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December 26, 2025

सम्मान की दौड़, अपमानित कब थे, दो साल से तो कोरोना ही खा गया सम्मान के गिफ्ट

उन दिनों पोपटलाल जी काफी खुश नजर आ रहे थे। बात वर्ष 2013 की है। उन्होंने पहले से ज्यादा घूमना शुरू कर दिया है। साथ ही उन पत्रिका व समाचार पत्रों की कटिंग अपने झोले में रखनी शुरू कर दी थी, जिसमें उनके लेख प्रकाशित हुए हैं।

उन दिनों पोपटलाल जी काफी खुश नजर आ रहे थे। बात वर्ष 2013 की है। उन्होंने पहले से ज्यादा घूमना शुरू कर दिया है। साथ ही उन पत्रिका व समाचार पत्रों की कटिंग अपने झोले में रखनी शुरू कर दी थी, जिसमें उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। अपने लेखों की कटिंग को वे जगह-जगह जाकर पत्रकार विरादरी में दिखाते फिरते। क्योंकि वह खुद को सभी पत्रकारों से बीस साबित करने का प्रयास करने का प्रयास करते। क्योंकि वह जानते हैं कि क्या पता कब उनके भाग्य का सितारा चमक जाए और वह सरकार की तरफ से बेस्ट पत्रकार का खिताब झटक लें।
वहीं, तब उत्तराखंड की सरकार को भी क्या सूझी कि पत्रकार भी आपस में भिड़ने लगे। कर दी घोषणा पत्रकारों को हर साल पुरस्कार देने की। घोषणा तो पत्रकारिता दिवस के दिन की थी, लेकिन तब सभी पत्रकार यही समझे कि ऐसी घोषणाएं तो होती रहती हैं। पर घोषणा के दो माह बाद फिर सरकार को याद आई कि घोषणा तो कर दी, लेकिन बेस्ट पत्रकार का चयन कौन करेगा। फिर क्या था तीन सदस्यीय कमेटी भी गठित कर दी। इस कमेटी में अनुभवी पत्रकारों को शामिल किया गया, जो कई सालों से इस पेशे से जुड़े हैं। शायद उनसे कई ने तो पत्रकारिता का क-ख-ग भी सीखा हो। इनमें से पोपटलाल जी के गुरु भी थे। उनके गुरु जब कमेटी में आए तो लगा कि अब तो शायद उन पर ही गुरु की नजर पड़ जाएगी।
वैसे कुछ साल पहले पोपटलाल जी ऐसे सम्मान समारोह के सख्त खिलाफ थे। वह कहते थे कि ऐसे सम्मानों से पत्रकारों में आपकी खटास बढ़ती है। एक बार मुझे पोपटलाल जी ने ही बताया कि महान अमेरिकी पत्रकार जोसेफ पुलित्जर ने जीवन में काफी संघर्ष किया था। पहले उन्होंने किसी के पत्र में काम किया, बाद में अपनी लगन व मेहनत से उन्होंने 1878 में सेंट लुई डिस्पैच नाम का अखबार निकाला। पत्रकारों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने अपनी कमाई से एक पुरस्कार योजना शुरू की। आज भी यह योजना एक ट्रस्ट के माध्यम से चलाई जाती है। तब ही से ऐसे सम्मान समारोह आयोजित किए जाते हैं।
जब भी किसी को सम्मान मिलता, तो मैं अक्सर पोपटलाल जी को छेड़ दिया करता था कि आप को सम्मानित नहीं किया गया। तब वे तुनक कर बोलते कि ये बताओ मैं अपमानित कब था, जो मुझे सम्मान की जरूरत पड़ेगी। उनका कहना था कि ये पुरस्कार उनके लिए होते हैं, जिन्हें सम्मान की जरूरत होती है। वह तो अपमानित तो हैं ही नहीं, तो किस बात का उन्हें सम्मान चाहिए।
पोपटलाल जी का मानना था कि जब भी किसी को सम्मान मिलता है, तो पुरस्कार से वंचित लोगों के विरोध का सम्मान देने वालों को भी सामना करना पड़ता है। क्योंकि हर पत्रकार खुद को ही पत्रकार मानता है और दूसरों को फर्जी करार देता है। उसे दूसरों के गुण नजर नहीं आते और वह दोष ही तलाशता है। वह कहते हैं कि जो कुछ भी लिख रहा है, चाहे कहीं भी लिख रहा है। छोटा पत्र हो या फिर किसी बड़े मीडिया में। यदि वह व्यक्ति को सूचना पहुंचा रहा है, शिक्षित करने का प्रयास कर रहा है, साथ ही मनोरंजन व रोचक जानकारी लोगों तक पहुंचा रहा है, तो वह पत्रकार है। अब तो फेसबुक में भी लोग लिख रहे हैं, भले ही वे किसी मीडिया से नहीं जुड़े हैं, पर वे ऐसी जानकारी परोस रहे हैं, जो पत्रकार का कर्तव्य है, तो वे भी पत्रकार हैं।
पोपटलाल जी में अचानक अंतर कैसे आ गया और वे अपने सिद्धांत को क्यों भूल गए। वे अपने ही मुंह मियां मिट्ठू क्यों बन रहे हैं, ये बात मेरे समझ से परे थी। मैने उनके ही मुंह से पूछना ज्यादा अच्छा बेहतर समझा। एक दिन मैं उनसे मिला और मैने पूछ ही लिया कि अब पत्रकारों को सम्मानित किया जाएगा। इस दौड़ में तुम भी हो क्या। इस पर पोपटलाल जी तपाक से बोले। इतने सालों की तपस्या का फल लेने का मौका आया तो मैं क्यों पीछे रहूं। अब लगता है कि इस पेशे से रिटायर्ड हो जाना चाहिए। काफी थक गया हूं। एक कामना है कि बस एक बार मेरी तरफ भी कमेटी के सदस्य अपनी नजरें डालें। इसके लिए अब मैं जो भी लिख रहा हूं, वह दूसरों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं।
मैने पूछा कि आपके उन सिद्धांतों का क्या हुआ, जिसे आप हर समय अपने से लपेटकर रखते थे। आप कहते थे कि सम्मान समारोह सिर्फ दिखावा होते हैं। व्यक्ति का कर्म ही उसका सम्मान है। सरकारी सम्मान तो चंद लोगों को खुश करने और आपनी में खाई बांटने का काम करते हैं। इस पर पोपटलालजी तपाक से बोले, भैय्या सिद्धांत रोटी नहीं दे सकते। जब तन में कपड़ा न होगा, रहने को घर नहीं होगा, पेट में रोटी नहीं होगी, तो तुम ही बताओ सिद्धांत क्या करेंगे।
पोपटलाल जी की बातें सुनकर मैं दंग रह गया और मैने अपना सिर पकड़ लिया। ये भी तो सच है कि समिति के लिए समूचे उत्तराखंड से किसी योग्य पत्रकार का चयन करना टेढ़ी खीर होगा। पहले तो किसे पत्रकार माने। फिर पत्रकारों की इतनी लंबी लाइन है कि हरएक के काम का आंकलन भी मुश्किल है। ऐसे मे समिति के सामने भी एक चुनौती होगी। फिर मैं घर आकर भोजन करने के बाद बिस्तर में लेट गया और फिर गहरी नींद में सो गया।
जब नींद आई तो सपने में देखा कि एक राजा एक शहर में पहुंचता है। वह अपने मंत्री से कहता है कि मुझे इस स्थान पर अभी फेमस होना है। कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मैं प्रजा के दिल में जगह बना लं। मंत्री कहता है कि भीड़ में से किसी भिखारी को पकड़कर ईनाम में अपने गले की कीमती माला दे दो। इस पर राजा खुश होता है। वह भीड़ से कहता है कि आप लोगों में कोई भिखारी है। इस पर सारी भीड़ हाथ उठाकर बोलती है कि हम सभी भिखारी हैं हुजूर।
तभी नींद उचटती है और करवट बदलकर मैं दोबारा सपना देखने लगता हूं। इस बार सपने में फिर भीड़ नजर आई। इस भीड़ में राजा पत्रकारों को पुरस्कार देने को खड़ा है और पोपटलाल जी की तरह सैकड़ों पत्रकारों की भीड़ पुरस्कार पाने के लिए एकदूसरे पर धक्कामुक्की कर रही है। वहीं, राजा तय नहीं कर पाता है कि किसे वह पुरस्कार दे। दो साल से तो इस सरकारी सम्मान को भी कोरोना के नाम पर खटाई में डाल दिया गया। ये तो समझ नहीं आया कि जब सारे काम हो सकते हैं, चुनाव हो सकते हैं, रैली हो सकती है। स्कूल खुल सकते हैं तो ये सम्मान समारोह आनलाइन क्यों नहीं हो सकता है। वहीं, अभी भी पोपटलाल जी सम्मान पाने के इंतजार में हैं। फिर भी उनके कुछ सिद्धांत अभी भी बचे हैं। इससे वे हर बार सम्मान पाने से वंचित रहे। उनकी योग्यता का आंकलन किसी ने इसलिए नहीं किया, क्योंकि सम्मान पाने के लिए उन्होंने आवेदन पत्र नहीं भरा। फिलहाल उनसे सिद्धांत का एक बिंदु ये रह गया, जिसे वह आज तक नहीं बदल पाए। उनका यही कहना रहा कि ऐसा क्या सम्मान, जिसे लेकर आवेदन पत्र भरना पड़े। यदि किसी को सम्मान देना है तो तब दें जब उनके काम का सम्मान देने वाले को पता हो।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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