कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की कविता-हिम की चादर ओढ़े पर्वत

हिम की चादर ओढ़े पर्वत
चांदी की चादर ओढ़े पर्वत,
कुछ दिन निंद्रालय में होंगे।
बसंत ऋतु की आहट पाते,
अमृतधाराओं से निसृत होंगे।
रजत मुकुट पहने डालियां,
शांत स्निग्ध निर्वेद स्वच्छ धरा।
मध्य हिमालय श्रृंग शिखर भी,
हिम -चादर ओढ़े ढका हुआ।
हिम में भी अब गर्मी है भाई ,
महसूस संत जन करते हैं।
या पर्वत सैलानी दूर देश के,
खुशियां नित मन भरते हैं।
छब्बीस जनवरी पर्व निकट है,
बचपन लौट के आता है।
इस महापर्व पर प्रजातंत्र के,
मन बालक बन जाता है।
उमड़ आता है फिर राग पुराना,
यादें रह रह.कर के आती हैं।
सुस्त सुप्त दिल के कोने से,
मन नूतन भाव जग जाते हैं ।
कोरोना से जग है पागल,
फिर भी हम जश्न मनाएंगे।
छोड़ गीत संगीत व नाटक,
केवल झंडा हम लहराएंगे।
कवि का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।