पिथौरागढ़ः यहां दबे हैं मिट्टी के बर्तन, बाराबीसी पट्टी मे है तांबे की खान
1 min readपिथौरागढ़ के टकाना नामक स्थान पर स्थित संग्रहालय, पिथौरागढ़ जिला व आसपास के क्षेत्रों से उत्खनन में प्राप्त हुई वस्तुओं को संरक्षित एवं प्रदर्शित करने का दर्शनीय स्थल है। इस संग्रहालय में मानव सभ्यता के विकास के विविध चरणों को क्रमबद्ध करने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। पुराणों में टेथिस सागर को क्षीर सागर कहा गया है। टेथिस फासिल्स प्राप्त होने के बाद ज्ञात होता है कि पिथौरागढ़ जिले में मिलम से छोटा कैलाश (14000 फीट) तक जो जीवाश्म मिले हैं, वे हिमालय के स्थान पर समुद्र होने की पुष्टि करते हैं। इसी क्षेत्र में उत्खनन से जो कलश
प्राप्त हुआ, उसका सबसे पुराना प्रतीक स्तम्भ पिथौरागढ़ नगर के मध्य में स्थित भाटकोट से लाल बलुवा पत्थर प्रस्तर पर मिला है। इस स्तम्भ में गरूड़ और अमृतकलश का अंकन, संग्रहालय का सबसे पुरानी स्तम्भ कला का नमूना है।
सन1815 में पिथौरागढ़ पर अंग्रेजों का अधिकार होने के समय तक भारकोट में कत्यूरी शैली के चार मंदिर थे, जिनके अवशेषों को संग्रहालय में देखा जा सकता है।
यहां दबे हैं मिट्टी के बर्तन
वर्षाकाल में भाटकोट की पहाड़ी कटने से भूरे और काले रंग की मिट्टी के बर्तन बहते हुए यदा-कदा दिख ही जाते हैं। भाटकोट से प्राप्त होने वाले धूसर मृदभाण्ड और काले रंग के मृदभाण्ड बरेली जिले के रामनगर में अहिच्छत्र की खुदाई में मिले बर्तनों से पूर्ण साम्य रखते हैं। अहिच्छत्र और नाटकोट के मृदभाण्डों को प्राचीन नागजाति से सम्बन्धित माना जा सकता है। भाटकोट, नासकोट, खीराकोट, सुजानीकोट, धूमकोट, उच्चाकोट आदि का सर्वेक्षण करने से पता चलता है कि इन स्थानों पर पकाये हुए मिट्टी के बर्तन दबे हुए हैं। प्राप्त मृदभाण्डों को देखकर कहा जा सकता है कि उस समय बर्तनों को चिह्नित करने की परम्परा थी। भाटकोट में प्राप्त बर्तन ईसवी पूर्व के हैं।
कुषाणकालीन कला का अद्भुत नमूना
भाटकोट में भूमि के कटान से प्राप्त लाल बलुवा पत्थर भरतपुर, राजस्थान की खानों में पाया जाता है तथा उस कुषाण युग में प्रचलित मथुरा कला में इसका विशेष प्रयोग हुआ है। भाटकोट स्तम्भ की तरह हल्द्वानी टनकपुर वनमार्ग पर सेनापानी में भी लाल बलुवा पत्थर के स्तम्भों के अवशेष मिले हैं। संग्रहालय में सुरक्षित पितरोट की लक्ष्मीनारायण मूर्ति में गरूड़ की दाढ़ी दिखायी गयी है, जो कुषाणकालीन कला का अद्भुत नमूना है। मूर्ति में चक्र अंगुल के ऊपर न होकर मुट्ठी में पकड़ा हुआ दर्शाया गया है और गरूड़ को पक्षी के रूप में न दर्शाते हुए मानव रूप में दिखाया गया है।
पिथौरागढ़ की डीडीहाट तहसील के गांवों से आठ तरह की तलवारें, दो ढाल, एक भाल व एक धनुष प्राप्त हुआ है, जिन्हें सिराकोट राजवंश के कर्मचारियों के वंशज पूर्वजों की धरोहर के रूप में पवित्र अस्त्र मानते हैं। संग्रहालय में प्राचीन सिक्के, हस्तलिखित ग्रंथ, भूमि व अन्न माप बर्तन, ताम्रपात्र, जलघड़ी, तमगे, ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों के अतिरिक्त पिथौरागढ़ जनपद के प्राचीन मंदिर और मूर्तियों के चित्र भी संग्रहित किये गये हैं।
दुर्लभ शिलालेख
संग्रहालय में नगर से पन्द्रह किलोमीटर दक्षिण की ओर मारडि नामक स्थान से प्राप्त एक दुर्लभ शिलालेख रखा है। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में कैलाश मानसरोवर के तीर्थयात्रियों के लिए किसी राजकुमारी ने धर्मशाला तथा पुष्प वाटिका बनवाई थी। यह पहला शिलालेख है, जो संस्कृत में लिखा गया है। इस शिलालेख की विशेषता यह है कि यह पीले रंग के पत्थर में उत्कीर्ण है। प्राचीन काल के अभिलेखों के लिए भी इसी पत्थर का लेप बनाया जाता था। ऐसा लेप 1264 ईसवी के गंगोलीहाट में जान्धवी शिलालेख तथा 1105 ईसवी के दिगास शिलालेख में भी लगाया हुआ है।
डीडीहाट
पिथौरागढ़ मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर लगभग 5500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। ऊँची व ठंडी जगह होने के कारण यहाँ धूप का आनन्द लेने के लिए समीपस्थ ग्रामीण भी आते हैं। डीडीहाट में पुराने राजमहल के खंडहर अभी भी विद्यमान हैं। बाराबीसी पट्टी में ताँबे की एक बड़ी खान भी है। इसे राजखान कहते हैं। यहाँ ताँबा काफी शुद्ध अवस्था में निकलता है। डीडीहाट की पट्टी माली के मुसमोली गाँव में नागकेशर का एक पुराना वृक्ष है, जिसके फूल कभी राजदरबार में जाते थे।
अस्कोट
पिथौरागढ़ मुख्यालय से 54 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह कत्यूरी राजाओं के राजवंश की एक छोटी सी पर प्रतिष्ठित राजधानी थी। विराट कत्यूरी साम्राज्य की निधि अब खण्डहर रूपी स्मारक के रूप में शेष है। अस्कोट के ऊपरी क्षेत्र में 13000 फीट की ऊँचाई पर छिपुला पर्वत में एक बहुत बड़ी गुफा है। प्रत्येक तीसरे वर्ष में जाड़ों में यहाँ मेला आयोजित किया जाता है। पूजा के समय पुजारी शंख, घंटी बाजे आदि के साथ गुफा में प्रवेश करता है उस समय वहाँ पत्थर में से स्वत: ही मात्र एक लोटा भर पानी निकलता है। इस पानी को देवता का प्रसाद मानकर बूंद-बूंद भर वितरित किया जाता है। कभी यहाँ पर अस्सीकोट अर्थात् अस्सी किले थे इसी कारण इसका नाम अस्कोट पड़ा।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।