आज के दिन हुआ था पेशावर विद्रोह, कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने के लिए किया था इनकार, पढ़िए इतिहास
23 अप्रैल 1930 का दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौर का ऐतिहासिक दिन रहा है। पेशावर में अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ देश की गढ़वाल रेंजीमेंट की बगावत ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दीं।
चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में
चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में पौड़ी गढ़वाल के मासौं, चौथान पट्टी सैणीसेरा नाम के गांव में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे। काफी समय पहले ही वे गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके। चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।
सेना में हुए भर्ती
3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गए। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।
हवलदार से बनाया सैनिक
प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। उच्च अधिकारियों की ओर से इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए।
दोबारा की गई तरक्की
कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज्बा पैदा हो गया। अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।
गोली चलाने से किया मना
उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया। इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।
सैनिकों पर चला मुकदमा, गढ़वाली की वर्दी को काटकर किया अलग
अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल की ओर से की गयी। उन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।
11 साल के कारावास के बाद किया आजाद
1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सजा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। साथ ही गढ़वाल में उनका प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।
महात्मा गांधी ने दी थी गढ़वाली उपाधि
इसके बाद वे महात्मा गांधी से जुड़ गए व भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। चंद्र सिंह भंडारी को ‘गढ़वाली’ की उपाधि देते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरे पास गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कब का आजाद हो जाता। वहीं, आजाद हिद फौज के जनरल मोहन सिंह ने कहा था कि पेशावर विद्रोह ने हमें आजाद हिद फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी।
कम्युनिस्टों के सहयोग से किया गढ़वाल में प्रवेश
22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1967 में वह कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली बन गए। इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बीमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उनके नाम से कई योजनाएं चलाई गई। जिनमें पर्यटन, स्वरोजगार और मेडिकल कॉलेज के नाम से संचालित हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।