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June 21, 2025

कभी छुआछूत थी एक बीमारी, अब बन गई लाचारी, इसमें भी है सुरक्षा का अहसास

वाकई छुआछूत एक बीमारी है, या फिर एक लाचारी। यह किसी को कभी भी लग जाती है, लेकिन इसकी चपेट में आने वाला व्यक्ति खुद को बीमार नहीं समझता।

वाकई छुआछूत एक बीमारी है, या फिर एक लाचारी। यह किसी को कभी भी लग जाती है, लेकिन इसकी चपेट में आने वाला व्यक्ति खुद को बीमार नहीं समझता। बचपन में सुनता था कि गांव में यदि किसी को कुष्ठ या क्षय रोग हो जाता है, तो ऐसे व्यक्ति का इलाज कराने की बजाय सारा गांव उसका बहिष्कार कर देता है। ऐसे व्यक्ति को गांव से दूर छानी (मवेशियो के लिए बनाया गया स्थान) में रहने के लिए कहा जाता था। सारे गांव को यह भय रहता था कि कहीं अन्य ग्रामीण भी बीमारी की चपेट में न आ जाएं। ऐसे में बीमार का सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। समय से साथ कई बीमारियों का इलाज होने से अब ऐसे बहिष्कार की घटनाएं कम ही सुनाई देती हैं।
इसके विपरीत आज कोरोनाकाल में देखा जाए तो छुआछूत जरूरी हो गया है। पहले ऐसे कई लोग मिल जाते थे, जो किसी व्यक्ति को छूने या हाथ मिलाने से परहेज करते थे। छूने की स्थिति में बार-बार हाथ धोने की आदत उन्हें होती थी। अब कोरोनाकाल में ये सब कोरोना के नियम ही बन गए। यानी एक तरह से कहा जाए तो छुआछूत से भी सुरक्षा का अहसास होने लगा है। यह मैं नहीं कहता कि साफ सफाई का ख्याल मत रखो, लेकिन किसी व्यक्ति को छूने से इतना परहेज भी मत करो। यदि ऐसा हो गया तो कोई किसी घायल को उठाकर अस्पताल नहीं ले जाएगा। हां इतना जरूर है कि किसी वस्तु, व्यक्ति आदि को छूने के बाद हाथ जरूर धो लें। जिसे हम बचपन में मजाक समझते थे, वो ही आज नियम बन गए हैं।
जब मैं छोटा था उस समय लोग सार्वजनिक नल से पानी भरते थे। तब ऐसे कई लोग थे, जो अपना नंबर आने पर पहले नल की टोंटी को रगड़-रगड़ कर धोते थे। इसके बाद ही पानी भरते। इसी तरह कई लोग रसोई में बच्चों का प्रवेश करने पर पूरी रसोई को धोते और इसके बाद ही खाना बनाते। ऐसे लोगों की रसोई में बच्चों का प्रवेश ही वर्जित होता था। छुआछूत की बीमारी वालों की बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। करीब चालीस साल पहले हमारे मोहल्ले में एक वृद्धा रहने आई। उसकी कोई औलाद भी नहीं थी। वह हर सुबह नहाती थी और पूजा पाठ भी करती। मोहल्ले की महिलाएं जब घर के पास मैदान की घास पर बैठकर धूप सेंकती तो वृद्धा उनसे कुछ दूरी बनाकर बैठती।
ऐसा शायद वह इसलिए करती थी कि कहीं कोई उसे छू न ले। अब देखा जाए तो इसे सोशल डिस्टेंसिंग की नाम दिया गया है। अब ये नियम है, तब वह महिला सभी के उपहास का पात्र थी। यदि गलती से कोई उसे छू लेता तो वह घर जाकर नहाती जरूर थी। मोहल्ले के बच्चों को जब इसका पता चला तो उन्होंने वृद्धा को तंग करना शुरू कर दिया। वह धूप सेकने बाहर बैठी कि तभी एक बच्चे ने दौड़ते हुए उसे छू लिया। अक्सर यह बच्चों का खेल बना हुआ था। वृद्धा को दोबारा नहाना पड़ता था। बच्चे नादानी कर रहे थे और वृद्धा मूर्खता। सर्दियों में कई बार नहाने से वह बीमार हो गई और एक दिन चल बसी।
लोगों को उस वृद्धा के किसी रिश्तेदार व नातेदार का भी पता नहीं था। ऐसे में मोहल्ले के लोगों ने चंदा एकत्र कर उसके अंतिम संस्कार का इंतजाम किया। जो वृद्धा लोगों को छूने से बचती थी, उसे चार कंधे देने के लिए पूरा मोहल्ला खड़ा हो गया। उसे उन लोगों ने ही कांधा दिया, जिनके छूने से वह पहले कई बार नहा चुकी थी। उस अभागी ने तो जीते जी यह तक नहीं जाना कि, जिनसे वह छूत करती है, वही उसके सच्चे हिमायती हैं।
जब मैं बड़ा हुआ तो देखा कि छुआछूत की बीमारी तो हर तरफ फैली हुई है। भले ही इसका रूप दूसरा है। जहां कहीं भी कोई नई जगह काम करता तो वहां पहले से मौजूद साथी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करते कि मानो उसे कोई बीमारी है। ऐसे लोग मुझे मोहल्ले की उस वृद्धा की तरह ही नजर आते, जिसे मैं बचपन में देखता था। ऐसे लोग या तो नए व्यक्ति के काम में गलती निकालते या फिर उससे गलती होने का इंतजार करते हैं। साथ ही उससे कुछ दूरी भी बनाकर रखते हैं। ऐसा हर नई जगह में शुरूआती दौर पर ही होता है। जब दूसरे को यह महसूस होने लगता है कि उसे नए व्यक्ति से कोई खतरा नहीं तो वे उसके अच्छे मित्र भी बन जाते हैं। ऐसी मित्रता बाद तक कायम रहती है। अब कोरोनाकाल में ही देख लो। ये ऐसा दौर था कि जान के खौफ से लोगों ने परिजनों के शव पर हाथ लगाने से परहेज कर दिया। तब समाज में ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने जान की परवाह नहीं की और लोगों का अंतिम संस्कार किया। ऐसे लोग हर काल में मिलते हैं और मिलते रहेंगे।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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