समय से हार गया गणित, मौजमस्ती से ज्यादा महत्वपूर्ण थी बेजुबान की जान

बात जनवरी 2014 की है। सर्दी पड़ी और बच्चों की छुट्टी भी पड़ी। समय के मुताबिक मुझे ये समय रंग-रोगन के लिए उपयुक्त लगा। ये रंग रोगन भी बड़े काम की चीज है। जिस पर लगाया जाए, उसकी सूरत ही बदल जाती है। दीवारों पर लगे तो दीवार चमक उठती है। क्रीम, पाउडर फेशियल के रूप में चेहरे पर लगाने से दूर से व्यक्ति भी चमकता हुआ दिखाई देता है। हालांकि सुंदरता बाहर की नहीं, बल्कि भीतर की ही अच्छी होती है। फिर भी व्यक्ति खुद के साथ ही अपने घर को संवारने के लिए हर संभव प्रयास करता है।
इसी तहत यदि घर की दीवारें भीतर की मजबूत नहीं होंगी, छत पूरी तरह से दुरुस्त नहीं होगीं और भीतर नमी नहीं आएगी, तब ही रंग रोगन का फायदा है। नहीं तो रंग रोगन कराओ और एक बरसात के बाद घर की दीवारों का भी मेकअप धुल जाएगा। इसी तरह आप पोष्टिक आहार नहीं लोगे। खानपान में ध्यान नहीं दोगे, तो बाहर से चेहरा कितना भी चमका लो, लेकिन वो चमक नहीं आएगी। दूसरा रंग रोगन हमें अपनी आत्मा का पर भी करना पड़ता है। यानी कि अपने विचारों का। यदि हम कुढ़ते रहेंगे तो इसका असर हमारे शरीर में भी पड़ेगा। असली रंग रोगन तो ये ही है कि दूसरों की खुशी में खुश रहो। ऐसा काम करो कि दूसरों को अच्छा लगे। खैर यहां तो भौतिक रंग रोगन की बात हो रही है। इसलिए घर के रंग रोगन की ही बात कर लेते हैं।
घर को संवारना भी कोई आसान काम नहीं है। हर चार-पांच साल में दीवारें रंग छोड़ने लगती हैं। दीवारों का पलस्तर उखड़ने लगता है। फिर पहले दीवारों की मरम्मत होती है, तब जाकर उसमें रंग-रोगन चढ़ाया जाता है। घर चमक जाता है। इस बहाने घर की सफाई हो जाती है, लेकिन सामान इधर से उधर सरकाने में फजीहत भी कुछ ज्यादा ही हो जाती है।
सर्दियों में बच्चों के साथ ही पत्नी के स्कूल की छुट्टियां पड़ी तो मुझे भी यही समय घर में रंगाई-पुताई कराने में सबसे उपयुक्त लगा। पुताई करने वाला आया और उसने एक सप्ताह में काम पूरा करने का वादा किया। एक सप्ताह फजीहत होनी थी। खैर मानसिक रूप से सभी तैयार थे। काम शुरू हुआ। जैसै-जैसे काम होता जाता, वैसे-वैसे ही और बढ़ता जाता। दस दिन बीते, लेकिन घर के भीतर से ही पुताई वाले बाहर नहीं निकले। वे तो दुश्मन जैसे नजर आने लगे। हर सांस में रंग रोगन की गंध भीतर फेफड़ों में घुस रही थी। घर के सभी सदस्यों को परमानेंट जुखाम सा महसूस होने लगा। जो भी घर आता, वही हमें सीख देने से भी बाज नहीं आता। नसीहत दी जाती कि सर्दियों में क्यों काम छेड़ा, गर्मियों में छेड़ते।
अब उन्हें कौन समझाए कि गर्मियों में बच्चों की छुट्टी पड़ती है और वे कहीं बाहर जाने की योजना बनाते हैं। ये ही वक्त हमें ज्यादा सहूलियत का लग रहा था, सो पंगा ले लिया। एक दिन लगा कि अब दो दिन का ही काम है। अगले दिन बारिश हो गई। उस दिन काम ही नहीं हुआ। फिर मसूरी के साथ ही आसपास की पहाड़ियों में जमकर बर्फ गिरी। मेरा मन भी हुआ कि बच्चों के साथ देहरादून से धनोल्टी जाकर बर्फ का आनंद उठाया जाए, लेकिन पुताई से पीछा ही नहीं छूट रहा था।
रविवार को सुबह से ही धूप खिली हुई थी। मैं समय के अनरूप ही काम को निपटाने का प्रयास करने में जुट गया। घर में कुछ बल्ब व ट्यूब जल नहीं रहे थे। ऐसे में मैने बिजली के काम के लिए इलेक्ट्रीशियन बुलाया। वह भी अपना काम कर रहा था और मैं उसकी मदद। मैने बच्चों से कहा कि बिजली का काम निपटने के बाद सभी मसूरी की तरफ चलेंगे। बच्चों में भी इस पर खासा उत्साह था। एक ट्यूब को बदलने के बाद मैं एक टेबल को पत्नी की मदद से उठाकर उसकी निर्धारित जगह में रखना चाह रहा था। तभी टेबल एक्वेरियम से टकरा गई। चट की आवाज के साथ ही उसका शीशा चटख गया। उससे पानी लीक होने लगा।
आनन फानन मछलियों को पानी की बाल्टी में डाला गया। एक्वेरियम को खाली किया गया। चटखे कांच को जोड़ने के लिए आरेल्डाइट लाया। अब मेरे काम की प्राथमिकता मसूरी नहीं थी, बल्कि मछलियों का घर ठीक करना था। एक्वेरियम रिपेयर किया गया। इस काम में मुझे कई घंटे लग गए। देर शाम तक भी वह नहीं सूख पाया। मछिलिंया बेघर रही। ठीक उसी तरह जैसे हम कमरों की पुताई के दौरान पहले हमारी बेकदरी हो रही थी। कभी बिस्तर किसी कमरे में लगता तो अगले दिन दूसरे में।
तब एक दिन कीचन में काम नहीं हुआ और होटल से खाना आया। ठीक उसी तरह मेरी मछलियां भी एक दिन से लिए एक्वेरियम से बाहर हो गई। साथ ही बच्चों का छुट्टी के दिन मसूरी जाना भी केंसिल हो गया। क्योंकि समय काफी निकल चुका था। इस दिन बच्चों के साथ ही मछलियां दोनों ही शायद मुझे कोसते रहे होंगे। फिर भी मुझे संतोष रहा कि मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण था मछलियों का जीवन।
भानु बंगवाल
Bhanu Bangwal
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।