मातृ शक्ति तेरे जज्बे को सलाम, बस दिल से निकलती है एक ही दुआ
कहते हैं कि जब किसी मोहल्ले में एक समान विचारधारा वाले ज्यादा लोग रहते हैं, तो वहां बसने वाले अन्य लोग भी ऐसे लोगों से प्रभावित होकर उनकी ही तरह बन जाते हैं। यहां राजनीतिक विचारधारा की बात नहीं हो रही है।
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करीब पैंतीस साल पहले देहरादून में राजपुर रोड स्थित सेंट्रल ब्रेल प्रेस से सटकर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान की कालोनी विकसित हो रही थी। शुरूआत में वहां आठ मकान बने और कर्मचारियों को आवंटित कर दिए गए। उस समय राजपुर रोड पर ट्रैफिक काफी कम रहता था। जहां कर्मचारियों के मकान थे, वहां से आसपास के मोहल्ले और आबादी करीब पौन किलोमीटर दूर थी।
मुख्य मार्ग से सटी इस छोटी की कालोनी में चार परिवार दृष्टिहीन कर्मचारियों के और चार परिवार सामान्य कर्मचारियों के थे। सभी कर्मचारियों में आपसी मेलमिलाप था। इनमें दो दृष्टिहीन कर्मचारी की पत्नी भी दृष्टिहीन थी। उनके बच्चों सहित अन्य सभी लोग सामान्य थे। इन परिवारों के बच्चों में भी आपसी मेलमिलाप भी काफी अधिक था।
तब राजपुर रोड शाम सात बजे के बाद से सुनसान हो जाती थी। आवागमन के लिए लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ती थी। मसूरी के पहाड़ों व बरसाती नदियों में खनन का व्यापार तब जोरों पर था। ऐसे में सड़क पर ट्रक ज्यादा चलते थे। अमूमन उन छोटे ट्रक को गट्टू कहा जाता था, जिसके चारों पहिए इंजन चलने के साथ ही घूमते थे। ऐसे वाहन मसूरी की खड़ी चढ़ाई में आसानी से चढ़ जाया करते थे। बरसात के दिन थे। रात करीब साढ़े आठ बजे कालोनी के सामने सड़क पर एक तारकोल के ड्रमों से भरा ट्रक पलट गया।
इस दुर्घटना के होते ही कालोनी के लोगों में हड़कंप मच गया। रात को गहरा अंधेरा था और बारिश भी थी। साथ ही कालोनी में रहने वाले आठ परिवारों में सामान्य पुरुषों की संख्या भी चार थी। ऐसे में महिलाओं ने ही मोर्चा संभाला टॉर्च व लालटेन लेकर वह वहां पहुंच गई, जहां ट्रक पलटा हुआ था।
तभी मैं और मेरा एक मित्र भी वहां पहुंच गए। सड़क किनारे गहरा खाला था। वहां तारकोल से भरे भारी ड्रम चारों तरफ बिखरे पड़े थे। इन ड्रमों की चपेट में आकर कई मजदूर घायल होकर लहूलुहान हो रखे थे। इधर-उधर करीब आठ मजदूरों को अंधेरे में तलाश किया गया। इनमें से अधिकांश बेहोश थे, तब यह जानना भी मुश्किल था कि कौन जिंदा है या मुर्दा। कई तमाशबीन भी मौके पर आ गए, लेकिन उनमें से अधिक ने तमाशा ही देखा। कुछ ही घायलों को तलाशने में जुटे। भला हो कि तब मोबाइल का जमाना नहीं था। नहीं तो लोगों को वीडियो बनाने से ही फुर्सत नहीं मिलती।
तब गजब की शक्ति नजर आई उन महिलाओ में। साक्षात दुर्गा का रूप लेकर महिलाओं ने मुझ जैसे दो-तीन युवाओं की मदद से घायलों को उठाकर सड़क तक पहुंचाया। तभी एक खाली विक्रम (टैंपो) सड़क पर नजर आया। महिलाओं ने उसे रुकवाया और घायलों को अस्पताल तक ले जाने में मदद मांगी। महिलाओं के हौंसले को देख चालक भी मदद को तैयार हो गया। बेहोश मजदूरों को बिक्रम में डाला गया। महिलाओं ने चालक को पैसे देने का प्रयास किया, लेकिन चालक ने पैसे लेन से इंकार कर दिया। वह मजदूरों को टैंपो में लादकर अस्पताल की तरफ रवाना हो गया। अगले दिन पता लगा कि समय से उपचार मिलने पर सभी मजदूरों की जान बच गई।
इसके बाद भी महिलाओं ने झाड़ियों में तलाश किया कि कहीं अन्य घायल मजदूर तो नहीं पड़ा है। पूरी तसल्ली के बाद ही सभी अपने घर को रवाना हुए। मैं जब घर पहुंचा तो मेरे कपड़े पहनने लायक नहीं बचे थे। मेरी तरह मजदूरों के अन्य मददगारों का भी यही हाल रहा होगा। कपड़े खून से रंग गए थे। अब राजपुर रोड पर जब भी मैं ब्रेल प्रेस की तरफ से गुजरता हूं, तो वहां मुझे काफी कुछ बदला हुआ नजर आता है। जिस कालोनी में सिर्फ आठ मकान थे, वहां अब मकानों की कतार बनी हुई थी। उनमें रहने वाले अधिकांश चेहरे भी बदल गए हैं। फिर भी मैं दुर्घटना की बात याद करके कालोनी की मातृ शक्ति को मन ही मन प्रणाम करना नहीं भूलता। कुछ एक को छोड़कर मुझे पता नहीं कि बाकी लोग कहां और किस हाल में होंगे। कुछ की मौत की सूचना जरूर मिली। फिर भी जो इस समय दुनिया हैं, उनके लिए बस मन में एक ही बात उठती है कि-काश…जाति धर्म छोड़कर हर व्यक्ति मानवता की सेवा को धर्म समझे।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।