गुरु से बढ़कर पंडितजी दे गए ज्ञान, जब जानकारी ना हो तो क्यों करते हो आलोचना
गुरु की भूमिका स्कूल में होती है और माता पिता की भूमिका घर में। इनसे ही बच्चा शुरुआती दौर में ज्ञान प्राप्त करता है। फिर वह आस पड़ोस के बच्चों के साथ भी अपने ज्ञान को बढ़ाता है।

बचपन से ही पंडित जी मुझे काफी पसंद थे। उनका काम भी मुझे काफी सरल नजर आता था। किताब में लिखे श्लोक पढ़ो, पूजा अर्चना कराओ और दान दक्षिणा लेकर घर को चले जाओ। इस काम में जहां इज्जत थी, वहीं तरह-तरह के पकवान खाने का मौका अलग से था। खुशी का मौका विवाह हो, फिर तेहरवीं या श्राद्ध। सभी में पहले पंडितजी ही जिमते हैं। मुझे लगता था कि इसमें न तो ज्यादा मेहनत है और न ही ज्यादा पढ़ाई लिखाई की जरूरत। बस थोडा श्लोक का उच्चारण आना चाहिए। किताब में व्याख्या होती है। अभ्यास कर सभी अच्छा बोल सकते हैं।
टिहरी जनपद के सौड़ू गांव में मैरे मौसाजी धर्मानंद सेमवाल भी पुरोहित का काम करते थे। वह वाकई में पंडित (विद्वान) थे। इसका अहसास भी मुझे बाद में हुआ। कड़ाके की सर्दी में वह सुबह उठकर ठंडे पानी से नहाते थे। पूजा पाठ करते और शाम को संध्या करना भी नहीं भूलते। जब भी मौसाजी देहरादून हमारे घर आते तो रसोई में बच्चों के जाने की मनाही होती। यदि कोई बच्चा रसोई में घुस जाता तो वह खाना नहीं खाते। यानि साफ सफाई का उस दौर पर भी ख्याल रखा जाता था।
मौसाजी शांत स्वभाव के थे। उन्हें कभी किसी ने गुस्से में नहीं देखा। जब मैं सातवीं कक्षा में था, तो एक दिन मौसाजी हमारे घर आए। आपसी बातचीत में मैने मौसाजी से कहा कि सबसे आसान काम पंडिताई का है। इसमें मेहनत भी नहीं है और किताब पढ़कर हर कोई यह काम कर सकता है। मेरे इस कथन को सुनकर वह कुछ नहीं बोले। सिर्फ मुस्कराते रहे।
कुछ देर बाद उनके हाथ में संस्कृत की एक किताब अभिज्ञान शाकुंतलम थी। किताब भी मेरी बड़ी बहिन की बीए की थी। मौसाजी ने मुझे बुलाया और एक पन्ना खोलकर उसमें लिखे श्लोक पढ़ने को कहा। संस्कृत में कमजोर होने के कारण मैं श्लोक का उच्चारण ठीक से नहीं कर सका। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि जब किसी के बारे में ज्ञान न हो तो उस पर टिप्पणी नहीं करते। साथ ही वह किताब से श्लोक पढ़कर उसका अर्थ भी समझाने लगे।
तब मुझे असहास हुआ कि जिस काम को मैं आसान समझता था, वह काफी कठिन था। किसी के काम के बारे में सही जानकारी ना होने पर आलोचना करना मूर्खता है। क्योंकि ऊपर से जो दिखाई देता है, वह असल में होता नहीं है। एक पुरोहित का काम भी किसी तप से कम नहीं था। नौकरी-पेशे वाला तो आफिस से छुट्टी होते ही घर पहुंच जाता है, लेकिन पंडित जी तो कई बार इस शहर से दूसरे शहर विवाह, भागवत कथा आदि संपन्न कराने के में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में वह अपने परिवार से भी दूर रहते हैं। परिवार से दूर रहने का कष्ट भी वही अनुभव कर सकता है, जो इसे भोगता है। दोनों तरफ परेशानी होती है।
यही नहीं, किसी कर्मकांड के दौरान पंडितजी कई घंटों तक पलाथी मारकर बैठे रहते हैं। आप एक घंटा इस मुद्रा में बैठकर दिखा दो, तब पता चल जाएगा कि जमीन पर बैठना भी एक तपस्या से कम नहीं है। यजमान थक जाता है, लेकिन पंडित जी भी थके हैं, इसका आभास किसी को नहीं रहता। घर से कई-कई दिनों तक बाहर। पत्नी व बच्चों से दूर रहकर जो कर्मकांड वह करते हैं, वही उनकी मेहनत है। उनका ज्ञान ही उनकी पूंजी। इसी के बल पर उनका घर परिवार चलता है।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।