छोटा कंफ्यूजन, लंबी कसरत, थलेड़ीजी का सामान पहुंच गया तल्हेड़ी
कभी-कभी सुनने में, तो कभी किसी बात को समझने में, कभी किसी को समझाने में कंफ्यूजन हो जाता है। यह हर किसी के साथ होता है।

पेंट में इतनी गुंजाइश थी कि उसे चार ईंच कर लंबा किया जा सकता था। ऐसे में मैने सोचा कि बाजार तक जाने में समय लगेगा। ऐसे में मोहल्ले में किसी टेलर से ही पेंट को करीब दो ईंच नीचे से खुलवा लिया जाए। मेरे पास समय नहीं था। पत्नी ही पेंट को घर के निकट टेलर की दुकान में लेकर पहुंची। वहां शटर डाउन मिला। पता चला कि बगल में किसी की मौत हो रखी है। ऐसे में वह भी शोक मना रहा है। खैर अनहोनी को कौन टाल सकता है।
अगली शाम मुझे समारोह में जाना था। ऐसे में पत्नी पेंट को लेकर उस लेडिज टेलर के पास ले गई, जो उसके सूट सिलती थी। इसमें उसे भी कोई बुराई नहीं लगी। क्योंकि नीचे से पेंट खोलकर सिर्फ तुरपाई ही करनी थी। जो मैं खुद भी कर सकता था, लेकिन हाथ से तुरपाई करने में सफाई से काम करने की जरूरत होती है। मशीन से तो मैं आसानी से पेंट सिल लेता हूं, लेकिन फिर छोटी बड़ी हो तो उसे उधेड़ना भी पापड़ बेलने के समान है।
पत्नी ने लेडिज टेलर से कहा कि पेंट को खोलकर दो ईंच बड़ी कर देना। नीचे से कपड़ा गलती से भी मत काटना। क्योंकि और बड़ी करनी हो तो गुंजाइश रहेगी। बस लेडिज टेलर ने पेंट बड़ी करना तो शायद सुना नहीं, लेकिन काटना सुन लिया। अगले दिन पेंट दे दी। घर में फिर पहनकर परखा तो नीचे से टांग चमकने लगी। उसने दो ईंच पेंट बढ़ाने की बजाय दो ईंच छोटी कर दी। साथ ही पेंट का कपड़ा करीब दो ईंच काट दिया। उसे काटना याद रहा, लेकिन उसे- नहीं शब्द याद नहीं रहा। अब फिर उसके पास पेंट पहुंची। गनीमत ये थी कि पेंट पहले चार ईंच तक फोल्ड थी। ऐसे में पेंट जब बढ़ाई गई तो नीचे की तरफ भीतर से दूसरा कपड़ा जोड़ा गया। इसे कहते हैं छोटा कंफ्यूजन, बड़ी कसरत।
इसी कंफ्यूजन में एक कहानी है कि एक व्यक्ति अपनी धुन में हमेशा खोये रहते थे। जब कहीं जाते तो इतनी जल्दी कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। वह अपनी ही बात सुनाया करते थे। दूसरों की सुनने को तैयार नहीं रहते। एक बार एक व्यक्ति उन्हें रास्ते में मिला। उसने महाशय से पूछा क्या हाल हैं। कंफ्यूज रहने वाले महाशय ने जवाब दिया कि बैंगन लेकर घर जा रहा हूं। इस पर व्यक्ति ने पूछा बच्चे ठीकठाक हैं। महाशय ने जवाब दिया शाम को भर्ता बना कर खाउंगा। यानि जल्दबाजी में सुनने पर कंफ्यूजन।
अब बड़ा कंफ्यूजन और बड़ी कसरत का एक और जिक्र करता हूं। ये भी सच्ची घटना है। तब इसका शिकार होने वाले मित्र को गुस्सा आया होगा, आज हो सकता है हर कोई इसे सुनकर हंस दे। कई साल पहले की बात है। यानी वर्ष 93 से लेकर 94 तक की। उन दिनों मेरे मित्र नवीन थलेड़ी मेरठ से निकलने वाले एक समाचार पत्र अमर उजाला में थे। उनका तबादला देहरादून से मेरठ के लिए किया गया। वहां कुछ माह रहने के बाद फिर से उनका तबादला सहारनपुर कर दिया गया। मेरठ में पैकिंग कर उनके सामान को समाचार पत्र सप्लाई करने वाली गाड़ी में रखवा दिया गया। चालक को समझा दिया गया कि यह सामान थलेड़ीजी का है। इसे सहारनपुर में उतारना है। थलेड़ी जी बस से सहारनपुर पहुंच गए और सामान समाचार पत्र की गाड़ी में साथियों ने रखवा दिया।
सहारनपुर में थलेड़ी अपने सामान का इंतजार करते रहे, लेकिन सामान नहीं पहुंचा। इस पर उन्होंने मेरठ कार्यालय में संपर्क साधकर वस्तुस्थिति जाननी चाही। पता चला कि सामान गाड़ी से भेज दिया गया था। इसके बाद चालक को तलाशा गया। चालक ने बताया कि उसने तलहेड़ी में अखबार के बंडलों के साथ सामान उतार दिया। तब अखबार के बंडल सड़क किनारे ही उतार दिया करते थे। तलहेड़ी सहारनपुर जिले के अंतर्गत ही आता है, लेकिन जिला मुख्यालय से उस स्थान की दूरी करीब 30 किलोमीटर है। इस गांव का नाम तल्हेड़ी बुजुर्ग है। ऐसे में सड़क पर सामान को अखबारों के बंडल के साथ चालक लावारिस हालत में छोड़कर चला गया। खैर उसे नाम व स्थान का कंफ्यूजन था। उसने थलेड़ी के नाम को स्थान का नाम तलहेड़ी समझा। गनीमत रही कि सामान किसी दूसरे ने सड़क से नहीं उठाया और सही सलामत मिल गया।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।