लीला की चिट्ठी, पढ़ी लिखी ना होने के बावजूद थी मेरी पहली गुरु
सच कहो तो मन की भावनाओं को शब्दों में बयां करना मैं लीला से ही सीखा। उस लीला से जो अंगूठा छाप होने के बावजूद मुझे पढ़ना और लिखना सीखा गई।

मैं जब चौथी कक्षा में था, तब से ही लीला मुझसे अपने पति के लिए चिट्ठी लिखवाती थी। जवाब आने पर मुझसे ही चिट्ठी पढ़वाया करती थी। उसे मोहल्ले के बच्चे लीला भाभी कहते थे। उसकी चिट्ठी लिखते और पढ़ते ही मुझे भी शब्द ज्ञान होने लगा और मैं भी धारा प्रवाह पढ़ना व लिखना सीख रहा था। यानि लीला ही मेरी गुरु थी। लिखने के तीन दिन से चार दिन बाद ही चिट्ठी मेबालाल को मिल जाती थी। उसका जवाब आता, फिर लीला भाभी मेवालाल को चिट्ठी लिखवाती। यानि सप्ताह में एक बार मैं लीला की चिट्ठी पढ़ता और लिखता था।
लीला भाभी की देखादेखी मोहल्ले की कई अन्य महिलाएं भी मुझसे चिट्ठी लिखवाने लगी, लेकिन वह कभी-कभार ही मेरे घर आती थी। लीला का चिट्ठी लिखाना और उसे पढ़ाना नियमित था। उसमें दुखः- सुख, मौसम का हाल, आस- पड़ोस की घटनाएं, सभी का जिक्र रहता था। जैसे- फलां महिला की पांचवी बार भी लड़की पैदा हुई। फलां की लड़की उसके साथ भाग गई। साथ ही बच्चों के भविष्य की चिंता। भविष्य के कार्यों को करने की साप्ताहिक, मासिक कार्ययोजना आदि। इनमें यह तक होता था कि दीवार का चूना उधड़ रहा है, अब सफेदी कराउंगी।
आर्थिक कमी व गरीबी से जूझते लीला व मेवालाल चिट्ठी में एक-दूसरे का साहस बढ़ाने का काम भी करते थे। जब मेवालाल बीमार हुआ तो उसने ठीक होने के बाद ही इसका जिक्र किया। तब उसने बताया कि वह इतना कमजोर हो गया था, कि कमर में बंधी तगड़ी तक ढीली पड़ गई थी। फिर चिंता न करना, अब पहले जैसा हूं आदि का उल्लेख कर उसने लीला की चिंता को दूर करने का प्रयास भी किया।
समय बदला। चिट्ठी का स्थान मोबाइल फोन ने ले लिया। लेटर बॉक्स का उपयोग प्रतियोगिताओं व अन्य पत्रों के लिए होने लगा। लोग चिट्ठी लिखना भूल गए। पोस्टकार्ड, अंतरदेशीय पत्र और लिफाफों का जमाना अब व्हाट्सएप मैसेज और फेसबुक मैसेंजर ने ले लिया। या फिर कभी किसी की शक्ल देखनी हो तो लाइव वीडियो चेट भी होने लगी है। नए साल के ग्रीटिंग कार्ड तो भूले बिसरे जमाने की बात हो गई है। अब तो ना ही कोई लीला को चिट्ठी की जरूरत पड़ती है, ना ही मोहल्ले की मुस्लिम महिला जुनेद की मां को भी। वह भी मुझसे अक्सर अपने भाई, मायके वालों के लिए चिट्ठी लिखवाती थी। जुनेद की मां ने भी मुझसे कई साल तक तब तक चिट्ठी लिखवाई, जब तक हम उस मोहल्ले में रहे। घर शिफ्ट होने पर ही चिट्ठी लिखने का ये क्रम छूटा।
चिट्ठी क्या थी, वह अपने शब्दों में ऐसे बोलती थीं, जैसे किसी को कोई बात कर रही है। उसे शब्दों में ढालना मेरा काम होता था। जुनेद की मां की चिट्ठी लिखते हुए मैं उर्दू के शब्द भी सीख रहा था। अब तो मैने भी करीब तीस साल से किसी को चिट्ठी नहीं लिखी। क्योंकि पहले बाहर रहने वाली बहनों को चिट्ठी से ही घर, परिवार, मोहल्ले की रिपोर्टिंग की जाती थी। अब तो पोस्टऑफिस के अलावा सड़कों के किनारे लाल रंग के लेटर बॉक्स भी दिखने बंद हो गए। ना ही अब मुझे पता है कि लीला भाभी कहां और किस हाल में हैं और ना ही किसी लीला को चिट्ठी जी जरूरत है।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
बहुत सुंदर