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December 19, 2024

जानिए भारत के पहले व्यक्तिगत ओलंपिक पदक विजेता की कहानी, गिरवी रखा था घर, 100 बैलगाड़ियों से स्वागत, जीते जी नहीं मिला सम्मान

क्या आप जानते हैं कि भारत के लिए पहली बार व्यक्तिगत स्पर्धा के किस इवेंट में और किस खिलाड़ी ने पदक जीता था। यहां हम आपको उस खिलाड़ी के जीवन संघर्ष की कहानी बता रहे हैं।

टोक्यो ओलंपिक शुरू होने में अब चंद ही दिन शेष रह गए हैं। इसी महीने से ओलंपिक शुरू होने जा रहे हैं। इसमें भारत की ओर से 126 खिलाड़ी ओलंपिक में जाने की तैयारी में हैं और अलग अलग खेलों में भारत के लिए मेडल जीतने की कोशिश करेंगे। क्या आप जानते हैं कि भारत के लिए पहली बार व्यक्तिगत स्पर्धा के किस इवेंट में और किस खिलाड़ी ने पदक जीता था। यहां हम आपको उस खिलाड़ी के जीवन संघर्ष की कहानी बता रहे हैं, जिसने पहली बार ओलंपिक में भारत का सीना गर्व से फूला दिया था। छोटे कद के इस खिलाड़ी को ‘पॉकेट डायनेमो’ के नाम से भी जाना जाता रहा। ये खिलाड़ी थे-खाशाबा दादासाहेब जाधव। वह व्यक्तिगत स्पर्धा में ओलंपिक पदक जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी थे।
पॉकेट डायनेमो के नाम से विख्यात
उन्होंने कुश्ती में भारत की पहचान दुनिया भर में कराई। जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर भारत का परचम लहराया था। इससे पहले तक भारत के सभी पदक फील्ड हॉकी में आए थे, न कि व्यक्तिगत स्पर्धा में। यहां उनका दुर्भाग्य देखिए कि वह एकमात्र ओलंपिक पदक विजेता रहे, जिन्हें पद्म पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया। केडी जाधव को छोटी हाइट के चलते ‘पॉकेट डायनेमो’ के नाम से भी जाना जाता था।
जन्म व बचपन
केडी जाधव का जन्म 1926 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। उनके पिता दादासाहेब खुद भी पहलवान थे। छोटे कद के जाधव बेहद कमजोर दिखाई देते थे। इसी वजह से राजाराम कॉलेज के स्पोर्ट्स टीचर ने उन्हें वार्षिक खेलों की टीम में शामिल करने से इनकार कर दिया था। बाद में कॉलेज के प्रिंसिपल ने उन्हें प्रतियोगिता में भाग लेने की इजाजत दे दी थी। बस फिर क्या था, उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
रगों में दौड़ी थी कुश्ती
कुश्ती तो केडी जाधव की रगों में दौड़ती थी। उन्होंने पांच साल की उम्र में ही उठापटक के दांवपेच सीखने शुरू कर दिए थे। 8 साल के हुए तो अपने इलाके के सबसे धाकड़ पहलवान को महज 2 मिनट में धूल चटा दी। थोड़ा बड़े हुए और वक्त आजादी के लिए संघर्ष का आया तो सब छोड़छाड़ खुद को इसमें झोंक दिया। देश आजाद हुआ। हर ओर तिरंगा लहरा रहा था। इनके अंदर का पहलवान फिर जाग गया। प्रण लिया कि विश्व की सबसे बड़ी प्रतियोगिता यानी ओलंपिक में तिरंगा लहराऊंगा और तिरंगा लहराने के बाद ही वह माने।
उनके बाद व्यक्तिगत स्पर्धा में 44 साल बाद मिला मेडल
खाशाबा दादासाहेब जाधव ने 1952 में कांस्य पदक हासिल किया। इन्हें केडी जाधव के नाम से ज्यादा याद रखते हैं। उनके मेडल पर हिंदुस्तान 44 साल इतराया। इसके बाद दूसरा व्यक्तिगत मेडल 1996 में टेनिस में लिएंडर पेस ला सके। 15 जनवरी 1926 को जन्मे और 14 अगस्त, 1984 को दुनिया को अलविदा कहने वाले भारत के इस पॉकेट डायनैमो की कहानी बेहद खास है।
1948 में दुनिया ने देखा, किसी भारतीय पहलवान को
1948 में लंदन ओलंपिक की बारी आई तो जाधव को समझ आया कि मेहनत के साथ पैसा भी चाहिए। पैसा था नहीं। खैर, हाथ-पैर मारे तो पैसे का इंतजाम हो गया। कुछ पैसा कोल्हापुर के महाराज ने दिया तो कुछ पैसे का इंतजाम गांव वालों ने किया। जाधव भइया ने भी इन पैसों की कीमत खूब चुकाई। 52 किलो की कैटेगरी में वो लंदन ओलंपिक में छठे नंबर पर आए। उनके देसी मगर फुर्तीले दांवपेच देखकर ही उन्हें अमेरिका के पूर्व कुश्ती विश्व चैंपियन रईस गार्डनर ने उन्हें कोचिंग भी दी थी। वो लंदन से मेडल भले ना ला पाए, मगर अगली बार के लिए अपनी दावेदारी जरूर ठोक दी थी।
दूसरी बार ओलंपिक जाने के लिए बेलने पड़े पापड़
लंदन ओलंपिक से लौटने के बाद तो जाधव ठान ही चुके थे कि उन्हें ओलंपिक मेडल लाना है। वह अगले 4 सालों की तैयारी में जुट गए। फिर 1952 को वो वक्त आ ही गया, जब हेलसिंकी में जाधव इतिहास रचने वाले थे। इतिहास रचने के पहले जाधव को खूब पापड़ बेलने पड़े।

ओलंपिक से नाम काटा, फिर ऐसे लगा जुगाड़
सरकारी सेलेक्टरों ने तो उनकी नैया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ओलंपिक की लिस्ट से उनका नाम तक कट गया था। जाधव ने हार नहीं मानी और पटियाला के महाराजा से इंसाफ की गुहार लगाई। महाराजा खुद खेलकूद के शौकीन थे। ऐसे में जुगाड़ लग गया और जाधव को ट्रायल में हिस्सा लेने का मौका मिल गया। जाधव जानते थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं। फिर क्या था, जो भी पहलपान उनके सामने आया, उसे चित करते रहे। ऐसे में उनकी ओलंपिक टिकट पक्की हो गई।
घर तक रख दिया गिरवी
हेलसिंकी ओलंपिक जाने की सीट तो पक्की हो गई थी। मगर बात एक बार फिर अर्थ पर अटक गई। इस पर जाधव एक बार फिर जुगाड़ में लग गए। इस बार उन्हें पैसे के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। उनके घरवालों ने पैसे इकट्ठा करने के लिए गांव के हर घर का दरवाजा खटखटाया। कुछ से मदद मिली भी, मगर वो नाकाफी थी। कहते हैं कि जाधव के परिवार वालों ने मुंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री से 4000 रुपये की मदद की गुहार लगाई थी, मगर वो इतना भी नहीं कर सके। नौबत ये आ गई कि उनको मराठा बैंक ऑफ कोल्हापुर में अपना घर तक गिरवी रखना पड़ा। यहां से जाधव को 7000 रुपये मिले। उनकी किट का इंतजाम उनके दोस्तों ने किया। इसके बाद वो ओलंपिक गए तो अपने चाहने वालों को निराश नहीं किया।
हेलसिंकी ओलंपिक में किया कमाल
जाधव बैंटमवेट फ्रीस्टाइल वर्ग में कनाडा, मैक्सिको और जर्मनी के पहलवानों को पछाड़कर फाइनल राउंड में पहुंचे थे। वह सोवियत संघ के पहलवान राशिद मम्मादबेयोव से हार गए। अब उनके पास मुकाबलों के बीच में आराम करने का समय नहीं था। जाधव थक चुके थे। इसके बाद ही उन्होंने जापान के शोहाची इशी (स्वर्ण पदक विजेता) का सामना किया, जिनके खिलाफ वह हार गए। हालांकि भारत का यह दिग्गज कांस्य पदक जीतने में कामयाब रहा। ऐसा करके केडी जाधव स्वतंत्र भारत के पहले ओलंपिक पदक विजेता बने।
100 बैलगाड़ियों से स्वागत किया गया
केडी जाधव जब कांस्य पदक लेकर लौटे तो उन्हें देखने के लिए भीड़ उमड़ी। 100 बैलगाड़ियों से उनका स्वागत किया गया। स्टेशन से अपने घर तक पहुंचने में उन्हें 7 घंटे लगे, जो दूरी सिर्फ 15 मिनट में पूरी हो सकती थी।
मुंबई पुलिस में मिली नौकरी
1955 में उन्हें मुंबई पुलिस में सब इंस्पेक्टर की नौकरी दी गई। पुलिस में बेहतरीन परफॉर्मेंस के चलते जाधव रिटायरमेंट से 6 महीने पहले असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बनाए गए थे।
सड़क दुर्घटना में हुई मौत, जीते जी नहीं मिला सम्मान
सड़क दुघर्टना में गंभीर रूप से घायल इस महान पहलवान को बचाया नहीं जा सका। 58 साल के केडी जाधव ने 1984 में दुनिया को अलविदा कह दिया। देश के लिए पहला पदक जीतने वाले जाधव को भारत सरकार जीते जी उचित सम्मान नहीं दे सकी। ओलंपिक पदक जीतने के 50 साल बाद 2001 में उन्हें मरणोपरांत अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2010 में दिल्ली के इंदिरा गांधी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में कुश्ती स्टेडियम का नामकरण केडी जाधव के नाम पर हुआ।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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