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December 13, 2024

जान लो मीडिया की बातें, डेस्क में हर रोज होती थी लड़ाई, हर रोज लड़ते दो जातिभाई, हीरो पुक नहर में बहाई

मीडिया संस्थान में काम करना जितना आसान लगता है, वह होता नहीं है। चाहे रिपोर्टिंग हो या फिर डेस्क में काम करने वाले सहयोगी। सभी का अपना अपना काम होता है और ये काम भी काफी संवेदनशील है।

मीडिया संस्थान में काम करना जितना आसान लगता है, वह होता नहीं है। चाहे रिपोर्टिंग हो या फिर डेस्क में काम करने वाले सहयोगी। सभी का अपना अपना काम होता है और ये काम भी काफी संवेदनशील है। प्रिंट मीडिया में तो हर खबर में सतर्कता बरतनी जरूरी रहती है। क्योंकि समाचार पत्र की छपाई के बाद गलती सुधारने की कोई भी गुंजाइश नहीं रहती। ऐसे में सब मशीन की तरह काम करते हैं, लेकिन यदि काम के दौरान मनोरंजन ना हो तो काम में ही नीरसता आ जाएगी। साथ ही अच्छा परिणाम देना भी मुश्किल हो जाएगा।
दिन भर के भागाभागी के इस दौर में रिपोर्टिंग वाले सहयोगियों को तो रात को कुछ समय अपनी मौज मस्ती के लिए मिल ही जाता है। छायाकारों का अलग ग्रुप, रिपोर्टरों का अलग ग्रुप। इनमें भी रात को दो पैग लगाने वालों का अलग ग्रुप। रात के समय बार में या फिर अन्य स्थानों पर ऐसे ग्रुप की सक्रियता देखी जा सकती है। हालांकि, उस दौरान भी वे खबरों के मामले में सतर्क रहते हैं। वहीं, डेस्क के सहयोगियों को तो शादी तक में जाने का समय नहीं मिल पाता है। कई बार तो दो से तीन सहयोगी पहले शादी में जाते हैं, फिर उनके लौटने पर दूसरे सहयोगी। वहीं, डेस्क में भी मनोरंजन का माहौल होता है। जैसे ही संपादकजी रात को घर के लिए निकलते हैं, तो अचानक डेस्क का सन्नाटा टूटता है। हंसी, ठिठोली, मजाक आदि का वातावरण हर तरफ बन जाता है। चाहे उत्तराखंड हो या फिर नोएडा में बड़े मीडिया संस्थानों के आफिस। हर जगह इसी तरह का वातावरण रहता है।
एक शादी की मुझे याद है। मेरे मोहल्ले के एक युवक की शादी हुई और सर्दियों के दिन थे। दुल्हन घर लाने के बाद मोहल्ले में ही खाली प्लाट में टैंट लगाकर प्रीतिभोज का आयोजन किया गया था। उस रात मुझे आफिस से निकलने में देरी हो गई। जब समारोह स्थल पहुंचा तो देखा कि सारे मेहमान घर जा चुके थे। दुल्हन और दूल्हा ही उस वक्त खाना खा रहे थे। उनके इर्द गिर्द परिवार के ही दो चार लोग थे। ऐसे में मुझे खुद पर शर्म आने लगी। ना ही किसी ने खाने के लिए पूछा। मैंने उन टेबलों के आसपास चक्कर मारा जहां, मेहमानों ने खाना खाया था। वहां वेटर सब डोंगे समेटने में लगा था। खैर मैं बगेर खाए ही घर लौट आया। साथ ही ये सिद्धांत बना लिया कि यदि लड़की की शादी में जाओ तो देर चल जाएगी। क्योंकि बरात देर से आती है और खाना देर तक चलता है। वहीं, लड़के की शादी के रिसेप्शन में तो समय से ही भोजन शुरू हो जाता है। सर्दियों में तो जल्द भी निपट जाता है। ऐसे में रात 11 बजे से बाद टैंट समेटते लोग ही नजर आएंगे।
अब कई बार डेस्क के सहयोगी दूर के इलाकों की शादी में पहले ही अवकाश के लिए अप्लाई कर लेते हैं। यदि सबकी अर्जी एक दिन की ही हो तो, उसमें जिनकी अर्जी पहले आई या फिर जिनका तर्क मजबूत हुआ उनमें से ही कुछ को अवकाश मिलता है। क्योंकि समाचार पत्र में भी काम चलना चाहिए और निजी जिंदगी का भी। खैर यहां एक शादी का ऐसा किस्सा बताने जा रहा हूं कि उसे लेकर कई माह तक डेस्क के दो सहयोगियों में विवाद चला। फिर किसी तरह उस विवाद में विराम लगा।
सर्दियों के दिन थे। बात करीब वर्ष 1999 या फिर इसके आसपास की थी। एक पत्रकार सहयोगी की शादी में एक मीडिया संस्थान के कुछ साथियों ने एकसाथ जाने का प्रोग्राम बनाया। दो जाति भाई (यानी एक ही सर नेम वाले) आपस में बात बात पर भिड़ते थे। उनमें खूब बहस होती थी। इनमें एक को मैं उनको उम्र के हिसाब से बड़ा और दूसरे को छोटा नाम दे रहा हूं। बड़े ने छोटे से कहा कि यार मेरा स्कूटर खराब हो रहा है। मैं तेरी मोपेड हीरो पुक में पीछे बैठकर शादी में चलूंगा। छोटा भी मान गया।
बड़ा रात को डेस्क में विज्ञप्ति बनाता था और छोटा खबरों का संपादन करने के साथ ही समाचार पत्रों के कुछ पन्ने तैयार करता था। बाकी देहरादून के भी शाादी में आमंत्रित थे। बड़े का रात को करीब आठ बजे काम समाप्त हो गया था। वहीं, छोटे ने उस दिन की छुट्टी ले रखी थी। बाकी रिपोर्टिंग के अन्य चार पांच और साथियों के साथ दोनों शादी के लिए निकले। पहले ठिकाने में दो दो पैग मारे गए। फिर सब दोपहिये वाहनों से शादी समारोह की ओर चल दिए।
शादी शहर से करीब पांच या सात किलोमीटर दूर रायपुर बालावाला के आसपास थी। बाइक और स्कूटर वाले तेजी से आगे निकल रहे थे। पीछे बड़ा और छोटा हीरो पुक में चल रहे थे। जब वे पीछे छूटते तो आगे वाले उनके इंतजार में रुख जाते। इसी बीच आगे कुछ पत्रकारों ने देखा कि बड़ा और छोटा कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। उन्हें किसी अनहोनी की आशंका जताने लगी। क्योंकि वह सड़क के सटी रायपुर नहर थी। जिसमें पानी भी ऐसा रहता था कि यदि कोई गिर गया तो हो सकता है वह बहे नहीं, लेकिन घायल जरूर हो जाएगा।
आगे निकल गए पत्रकार वापस लौटे। देखा कि एक जगह बड़ा और छोटा दोनों लड़ रहे हैं। पास जाकर पूछा तो पता चला कि बड़े ने कहा कि बेकार लूना है। इसे नहर में फेंक दे। कछुआ रफ्तार से चलती है। इस पर छोटे ने कहा कि फेंक दे, कौन रोक रहा है। उसके ये कहते ही बड़े ने हीरो पुक को नहर में फेंक दिया। विवाद यहां तक पहुंचेगा, किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी। जो शराब पीता था, उसका नशा भी फुर्र हो चुका था। छोटे ने बड़े को कहा कि मेरी लूना निकाल कर दे। इस पर बड़े को मौके पर एक रात्रि चौकीदार नजर आया। उसने चौकीदार को कुछ रुपयों का लालच दिया और पानी से हीरोपुक निकालने को कहा।
चौकीदार हीरोपुक निकालने के लिए नहर में घुसा तो छोटे ने उसे डांट दिया। कहा कि बड़ा ही लूना को बाहर निकालेगा। अब बड़े ने कड़ाके की सर्दी में जूते खोले, पैंट उतारी। फिर पानी में उतरा। पानी में चलते चलते उसके पैर में मोपेड टकराई। उसने उसे उठाने की कोशिश की, लेकिन फिर हाथ से छूट गई और आगे बह गई। खैर दूसरे साथी पत्रकारों ने नहर के बाहर से ही मदद की और किसी तरह हीरोपुक को निकाला। तब तक रात के 12 बजे से ज्यादा समय हो गया। शादी में जाने का कार्यक्रम कैंसिल हो गया। निकट की किसी परिचित के घर मोपेड रखवाई गई। फिर बड़े और छोटे तो अलग अलग दो पत्रकारों ने अपनी बाइक या स्कूटर से घर छोड़ा।
ये घटना तो निकट गई, लेकिन एक नया विवाद खड़ा हो गया। हर शाम छह बजते ही जब छोटा आफिस पहुंचता तो एक ही चकोर बड़ी टेबल के चारों और बैठे साथियों में बड़ा और छोटा दोनों ही लड़ने लगते। तब रिपोर्टर की लिखी खबरों के साथ ही अन्य माध्यम से आइ खबरों के प्रिंट निकाले जाते थे। फिर प्रिंट पर ही गलतियां सुधारने के लिए निशान लगाए जाते थे। हर रात बड़े और छोटे के बीच चलने वाले द्वंद्व का सब सहयोगी मजा लेते और सबका मनोरंजन होता रहता था।
छोटा कहता कि मेरी मोपेड खराब हो गई है, अब उसकी मरम्मत के लिए वह बड़े से पैसे मांग रहा था। खैर सीनियर साथियों ने समझौता कराने का प्रयास किया। बात रकम को लेकर अटक रही थी। छोटे ने कहा कि मैकेनिक ढाई हजार रुपये मांग रहा है। बड़ा बोला कि तू झठ बोल रहा है। ये विवाद करीब तीन माह तक चला और हर उस रात को चला, जब दोनों में से एक ही की छुट्टी न रही हो। किसी तरह बड़ा डेढ़ हजार रुपये देने के लिए मान गया। फिर रकम मिलने के बाद छोटा खुश हो गया। हालांकि, कुछ दिनों तक छोटा बाकी एक हजार रुपये की मांग करता रहा। तब संपादकजी ने सभी को समझाया कि ये परिवार है। मनोरंजन अलग बात है, लेकिन आपसी मनमुटाव नहीं होना चाहिए। अब समझोता हो गया है। मोपेड के पैसे मिल गए हैं, अन्य बातें मनोरंजन की करो, लेकिन मोपेड पर चर्चा समाप्त कर दो।
मोपेड पर चर्चा समाप्त हो गई। एक दिन बड़े की छुट्टी थी। तभी किसी ने छोटे को छेड़ दिया कि आपका बड़े ने काफी नुकसान कर दिया। मोपेड में ढाई हजार खर्च हुए और आपको करीब आधी से कुछ ज्यादा ही कीमत मिली। इस पर छोटा बोला-मैं भी (अपनी जाति का नाम लिया) हूं। मैं कैसे हार सकता हूं। मोपेड तो खराब हुई ही नहीं थी। मैकेनिक के यहां ले गया और उसने सफाई कर दी। मात्र सौ रुपये में मेरा काम हो गया था। अब बताओ किसका नुकसान हुआ। खैर ये बात किसी ने बड़े को नहीं बताई। क्योंकि यदि बताते तो सममुच में बड़ा विवाद हो जाता।

भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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