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March 12, 2025

राजशाही की आखरी जंग और कीर्तिनगर में फूटा फूटा बम, जानिए नागेंद्र सकलानी की जीवन गाथा

‘हमारी मृत्यु के बाद, इस संसार में, बार-बार बसंत ऋतु आएगी और फूल खिलेंगे। तीरदय और अर्दे बहिश्त के महीने, बार बार आएंगे, लेकिन तब तक हमारी कब्र, मिट्टी बन जाएगी।’ महान फारसी कवि शेख शादी की यह पंक्तियां 11 जनवरी को अनायास ही रह- रह कर मन में लौट आती हैं।
टिहरी गढ़वाल के पुजार गांव ( सकलाना) में कृपाराम सकलानी के घर जब नागेंद्र पैदा हुए होंगे, तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि उनका जन्म राजशाही के ताबूत पर अंतिम कील गढ़ने के लिए हुआ है। 20 नवंबर 1920 को पुजारगांव ( सकलाना) में एक साधारण किसान के घर नागेंद्र ने जन्म लिया।
एक सामान्य कृषक परिवार के होते हुए, उनके परिवार के सदस्य छोटे-मोटे कारोबारी भी थे और स्थानीय लोगों की जरूरत के मुताबिक आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति देहरा से क्षेत्र में करते थे। उनके बड़े भाई जयराम सकलानी की इच्छा थी कि उनका भाई पढ़- लिख कर भविष्य में किसी अच्छी राजकीय सेवा में चला जाए। होता वही है जो विधि को मंजूर होता है। नागेंद्र सकलानी देहरादून से मात्र मिडिल तक ही अपनी शिक्षा ग्रहण कर सके और उसके बाद उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन आजादी के लिए समर्पित कर दिया।
नागेंद्र सकलानी साम्यवाद की विचारधारा से ओत -प्रोत थे। सकलाना के असेवित क्षेत्र से जब पढ़ाई के निमित्त उन्होंने दून घाटी में उन्होंने पदार्पण किया तो उन्हें एक नया संसार मिला। नागेंद्र सकलानी वहां साम्यवादी दल के जनरल सेक्रेटरी आनंद भारद्वाज के संपर्क में आए और उनकी विचारधारा से प्रभावित हुए और स्कूल छोड़ दिया।
साम्यवाद का साहित्य बेच- बेच कर कमीशन के रूप में जो धन राशि प्राप्त होती, उसी से अपनी दिनचर्या चलाते थे। वे सुभाष चंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण आदि साम्यवादी नेताओं की विचारधारा से प्रभावित होकर उस युग की धारा के विरुद्ध चले। अत्यंत शांत और सादगी पूर्ण जीवन जीने वाला यह नव युवक, पूर्ण रूप से एकनिष्ठावान, समर्पित साम्यवादी सिपाही बन गया। जी जान से अपने मिशन पर लग गया।
उस समय प्रजातंत्रवादियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में खादीस्ट और गांधीस्ट का बोलबाला था। नागेंद्र धारा के विपरीत चलने वाले सकलाना के अकेले पथिक थे। और संपूर्ण जीवन झंझाबातों को झेल कर अपना नाम इतिहास के पन्नों में अंकित कर गए।
एक बार उनकी जयंती के अवसर पर पुजार गांव में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ। वरिष्ठ साम्यवादी नेता स्वर्गीय विद्यासागर नौटियाल उपस्थित थे। कामरेड नौटियाल ने उस समय नागेंद्र के बारे में अनेक संस्मरण सुनाए। एक संस्मरण मुझे आज भी याद है। उन्हीं के शब्दों में-नागेंद्र अधिकांश अपने आंदोलनों को देहरादून स्थित मालदेवता कैंप से अंजाम देते थे। सकलाना पट्टी का वह साम्यवादी, हमेशा धारा के विपरीत चलने वाला था। राजशाही से लेकर फिरंगी तब सब उनके पीछे पड़े थे। भोजन नसीब न होने पर नागेंद्र ने कैंप में भोजन के निमित्त पीले कद्दू एकत्रित कर रखे थे। पकड़े जाने पर अंग्रेजों ने कद्दुओं की ओर इशारा करते उनके बारे में जानना चाहा। नागेंद्र ने कैंप के भीतर रखे हुए पीले कद्दुओं को “बम” बताया। यह सुनकर अंग्रेज भयभीत होकर भाग खड़े हुए और वास्तव में ही वह नागेंद्र रूपी “बम” 11 जनवरी 48 को कीर्ति नगर में फटा”।
टिहरी रियासत ने राजशाही के जुल्म के विरुद्ध आंदोलन के दौरान अनेक क्रांतिकारी, देश प्रेमी व्यक्ति पैदा हुए। वामपंथी विचारधारा का यह प्रखर वक्ता, टिहरी का यह लाडला, टिहरी रियासत के दमन चक्र को कभी सहन नहीं कर सका। सामंती शासन के जुल्मों की दास्तान में बुजुर्ग लोग किस्से सुनाते हैं। एक बार टिहरी बाजार में कोई व्यक्ति किसी फिल्म का गाना गुनगुना रहा था। “दुनिया में गरीबों को आराम नहीं मिलता, रोते हैं तो हंसने का पैगाम नहीं मिलता”। बस इतने पर ही राजा के कारिंदों उसे हवालात में बंद कर दिया और घोर यंत्रणा देकर जेल में डाल दिया।
पं. दौलत राम कुगसाल, जो कड़ाकोट भूमि बंदोबस्त विरोधी आंदोलन के सूत्रधार रहे, के बड़े भाई एक कथा वाचक थे। उन्होंने एक समय तुलसीदास जी की चौपाई दुहराई थी- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी। यह सुनकर के राजा के अफसरों ने उन्हें जेल में डाल दिया और यातनाएं दी गई। इन्हीं बातों का प्रभाव युवा नागेंद्र के मन में पड़ा और उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा सामंतशाही के विरुद्ध अपना आंदोलन तेज किया था।
नागेंद्र सकलानी ने सर्वप्रथम अपने क्षेत्र सकलाना को राजशाही के विरुद्ध आंदोलन का केंद्र बनाया। उसके बाद संभवतः साम्यवादी दल के निर्देशों के कारण उन्हें डांग चौरा कड़ाकोट क्षेत्र में हो रहे कृषक आंदोलन में भाग लेने के लिए जाने का निर्देश मिला और वह कड़ाकोट भू – बंदोबस्त विरोधी आंदोलन में भाग लेने वहां आ गए।
नागेंद्र के कड़ाकोट पहुंचने पर आंदोलन को एक नई धार और नई दिशा मिली, क्योंकि आंदोलन के प्रणेता दादा दौलतराम कुगसाल बहुत काबिल व्यक्ति होने के बावजूद भी पढ़े-लिखे नहीं थे। इसलिए नागेंद्र सकलानी कड़ाकोट आंदोलन में एक क्रांतिकारी के साथ ही आंदोलन की रीढ़ बन गए। उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। जेल में उन्हें अनेकों यातनाएं दी गई, लेकिन नागेंद्र ने कभी हार नहीं मानी। जेल से छूटने के बाद नागेंद्र फिर अपने मिशन में लग गए।
जनवरी सन 1948 में टिहरी के विभिन्न भागों से स्वाधीनता संग्राम सेनानियों, क्रांतिकारियों, आंदोलनकारियों के दल कीर्ति नगर पहुंच गए। कडाकोट भू बंदोबस्त विरोधी आंदोलन चरम पर था। असंख्य व्यक्ति क्षेत्र से कीर्ति नगर पहुंचे हुए थे। 11 जनवरी 1948 को एसडीएम कोर्ट में, थाने पर इंकलबियों ने तिरंगा झंडा फहरा दिया। नागेंद्र सकलानी, सकलाना में आजाद पंचायत की स्थापना से काफी उत्साहित थे और कुछ आजादी के लिए वैसा ही प्रयास करना चाहते थे।
रियासत के कारिंदे असहाय नजर आने लगे। उस भीड़ को तितर-बितर करने के लिए प्रशासन ने आंसू- गैस के गोले दागे। कुछ अफरा-तफरी का माहौल पैदा हुआ। मेजर जगदीश प्रसाद डोभाल और पुलिस अधीक्षक ने दमन चक्र करना शुरू कर दिया। इसी बीच किसी ने पेट्रोल छिड़ककर न्यायालय भवन में आग लगा दी। अधिकारी लोग आतंकित होकर जंगल की ओर भागने लगे। आंदोलनकारियों ने उनका पीछा किया। उन्हें जीवित करना चाहते थे। आंदोलनकारी नागेंद्र सकलानी ने एसडीओ का पैर पकड़ कर जमीन पर गिरा दिया। उसने अपनी पिस्तौल से गोली चला दी। नागेद्र को संभालने के लिए मोलू आगे बढ़ा तो उसे भी तुरंत गोली से भून दिया गया।
बस ! फिर क्या था नागेंद्र और मोलू भरदारी की शहादत की खबर पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली तक पहुंचाई गई। 12 जनवरी को वीर चंद्र सिंह कीर्ति नगर पहुंच गए। गढ़वाली के पहुंचने पर क्रांतिकारियों का मनोबल बढ़ गया। पेशावर कांड के नायक ने जब यह दृश्य देखा तो उनकी आंखें भर आई। जीवन में कभी विचलित न होने वाला वीर चंद्र सिंह गढ़वाली इस दृश्य को देखकर स्तब्ध रह गया।
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने जन सैलाब को संबोधित करते हुए निर्णय लिया कि मोलू और नागेंद्र की लाशें देवप्रयाग होकर एक जुलूस के रूप में टेहरी ले जाएंगे। ताकि राजशाही की काली करतूत को जनता अपनी आंखों से देख सके। उसके बाद ही लाशों का अंतिम संस्कार किया जाएगा। इस जुलूस का नेतृत्व स्वर्गीय त्रेपन सिंह नेगी और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने किया।
14 जनवरी को नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी के पार्थिव शरीर पुरानी टिहरी पहुंचे। शहर के कुछ अंतराल पर उन्हें रखा गया। असंख्य लोग शहर में उमड़ पड़े। कहते हैं कि इससे पूर्व और पश्चात कभी टिहरी में इस प्रकार का दृश्य नहीं दिखाई दिया। लोग अपने बलिदानियों को विदाई देने उमड़ पड़े। राजा की फौज का कमांडिंग अफसर नत्थू सिंह सजवान, जो रंवाई कांड का हश्र देख चुका था, किंर्तव्यविमूढ़ हो गया।
नागेंद्र और मोलू के अंतिम संस्कार के बाद टिहरी में आजाद पंचायत का गठन हुआ। कानून व्यवस्था का दायित्व स्वयं सेवियों ने निभाया। इस प्रकार नागेंद्र सकलानी की जन्मभूमि सकलाना से शुरू हुआ यह आंदोलन मोलू भरदारी के क्षेत्र कीर्तिनगर में समाप्त हुआ। साथ ही राजशाही के विरुद्ध यह जन आंदोलन “आखिरी जंग” के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
राजशाही के अंत के साथ ही अंतरिम मंत्रिमंडल का गठन हुआ। संयुक्त प्रांत में टिहरी का विलय हो जाने के बाद डॉक्टर कुशलानंद गैरोला देहरादून से सत्यौं (सकलाना) पैदल चलते हुए आए और नागेंद्र सकलानी की याद मे 15 गते बैसाख होने वाले मेले (थौलू) की घोषणा की। स्वर्गीय नागेंद्र सकलानी के नाम पर राजकीय इंटर कॉलेज का नाम भी अंकित हो गया है तथा नागेंद्र सकलानी राजकीय महावि्यालय की भी घोषणा कुछ समय पूर्व हुई है।
यूं तो टिहरी सामंत शाही के खिलाफ टिहरी गढ़वाल प्रजा मंडल और अमर शहीद श्रीदेव सुमन का योगदान भी महत्वपूर्ण है। जिन्होंने तिल- तिल कर जलते हुये , राजशाही के खिलाफ आंदोलन में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। वीर नागेंद्र का बलिदान इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योकि कि उन्होंने बिना संगठन के अपने दम पर यह लड़ाई लड़ी और सामंतशाही का हजार वर्ष पुराना शासन अपना अप्रतिम बलिदान देकर उखाड़ करके फेंक दिया।
एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कामरेड, शहीद नागेंद्र सकलानी, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन जन- आजादी के लिए समर्पित कर दिया। 28 वर्ष की अल्पायु में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। उन्हें पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन।


लेखक का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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