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April 19, 2025

जानिए उत्तरकाशी जिले का इतिहास, पौराणिक महत्व और खासियत

जिला उत्तरकाशी पूर्व में टिहरी जिले का एक भाग था। सन् 1949 में टिहरी रियासत के स्वतंत्र भारत में विलीनीकरण के उपरान्त प्रशासनिक तथा सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से सीमान्त जनपद उत्तरकाशी का निर्माण 24 फरवरी 1960 को हुआ। उत्तरकाशी जनपद की राजनैतिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त इसका प्राचीन ऐतिहासिक आधार तथा परम्परा काफी महत्त्वपूर्ण हैं पौराणिक स्रोतों के आधार पर यह माना जाता है कि भागीरथ ने यहीं पर तपस्या की थी। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर गंगा शिव जी से सम्भालने का वरदान भागीरथ को दिया था। तभी से यह नगरी विश्वनाथ की नगरी कहलाई तथा बाद में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा।
केदारखंड में है बाड़ाहाट शब्द का उल्लेख
उत्तरकाशी के लिए पुराणों में तथा केदारखण्ड में बाड़ाहाट शब्द का प्रयोग आया है। केदारखण्ड में ही उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख आता है। विश्वनाथ मंदिर के समक्ष शक्ति मंदिर के अभिलेख से विदित होता है कि इस जनपद पर 576 ईसवीं के आसपास मौखरी नरेश का अधिकार था। बाड़ाहट (उत्तरकाशी) त्रिशूल अलिलेख की लिपि के आधार पर नागवंशी राजा गणेश्वर नामक नृपति ने बाड़ाहाट में एक शिवमंदिर का निर्माण किया तथा गणेश्वर के पुत्र ने, शिवमंदिर के सम्मुख एक शक्ति (त्रिशूल) की स्थापना की थी।


महाभारतकालीन संस्कृति की मिलती है झलक
गुप्तवंशी समुद्रगुप्त के शासनकाल में बाड़ाहाट प्रत्यत जनपद था। कुणीन्द नरेशों के राज्यकाल में प्रमुख बस्तियों में से बाड़ाहाट का नाम आता है। जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तरकाशी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अत्याधिक प्राचीन तथा पौराणिक है। उपनयाण पर्व जो कि महाभारत में है, के अनुसार वाणाहाट (उत्तरकाशी) में क्रीटस, तिरसज जातियाँ थी। महाभारत में ही उल्लेख है कि आर्यों को प्रारम्भिक पाँच शाखाओं में से एक जाति तिरसज थी जो कि यमुना और पुरूसिनी के मध्य अवस्थित थी। इनमें देव देसन नाम का प्रथम राजा था। इसके अतिरिक्त उपनयण पर्व में खसक्रीटस, उत्त कुरू, कुणीन्द प्रतंगना का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में इन जातियों ने अद्भुत उपहार युधिष्ठिर को भेंट किये थे। कुछ इतिहासकार भी इन जातियों को महाभारत काल से सम्बद्ध होने की पुष्टि करते हैं। उत्तरकाशी जनपद के कई प्रमुख स्थानों पर दुर्योधन की पूजा की जाती है। महाभारत कालीन संस्कृति की स्पष्ट झलक इस जनपद में दिखाई पड़ती है।
मूर्तियों को बनाने का रहा केंद्र
कत्यूरी शासन काल में भी 740 ईसवी से 900 ईसवी तक बाड़ाहाट (उत्तरकाशी), बैजनाथ, सिमली, जागेश्वर आदि मूर्तियों के बनाने के केन्द्र थे। यह क्षेत्र कत्यूरी राजाओं के अन्तर्गत आता था। उस समय यह क्षेत्र तिब्बत के शासकों के प्रभाव में भी था।
उत्तरकाशी नगर की स्थिति
उत्तरकाशी की स्थिति गंगोत्तरी मोटर मार्ग पर है यह हरिद्वार से 170 किलोमीटर दूर और 1621 फीट की ऊँचाई पर है। पुराणों में इसे सौम्य काशी भी कहा गया है। यह नगर गंगा भागीरथी के दायें तट पर पूर्व एवं दक्षिण दिशा में नदी से घिरा हुआ है। इसके उत्तर में असी गंगा, पश्चिम में वरूण नदी है। वरूण से असी के मध्य का क्षेत्र वाराणसी के नाम से प्रसिद्ध है। इसको पंचकोशी भी कहा जाता है। वरूणावत पर्वत की गोद में यह भूमि है। इसके पूर्व में केदारघाट और दक्षिण में मणिकार्णिका का परम पुनीत घाट है। मध्य में विश्वनाथ का मंदिर, कालभैरव, परशुराम, दत्तात्रेय, जड़भरत और भगवती दुर्गा के प्राचीन मंदिर है। अर्वाचीन मंदिरों में अन्नपूर्णा मंदिर तथा जयपुर की राजमाता रानी राठौर का बनाया हुआ मंदिर है। मणिकर्णिका के पण्डे जोशी जाति के ब्राहमण हैं। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान भी यहीं है।
नानासाहब पेशवा यहां रहे अज्ञातवास पर
इतिहास पुरूष एवं 1857 की जन-क्रांति के शीर्ष नायक नानासाहब पेशवा ने भी उत्तरकाशी में अज्ञातवास किया था। स्वतंत्रता संग्राम के इस मुख्य सेनानी ने उत्तर भारत की यात्रा की, तथा यात्रा से लौटने पर देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम की रूपरेखा तैयार कर देशवासियों को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। सन् 1859 के अक्टूबर माह में नाना साहब सुरक्षा की दृष्टि से उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी क्षेत्र में आ गये थे, क्योंकि अंग्रेज क्रांतिकारी नानासाहब को पकड़ने का पूरा प्रयास कर रहे थे।
यहाँ पहुँचकर नाना साहब ने अपने लिए मराठा शिल्पकला से मिलता जुलता एक सुदृढ़ निवास बनाया। यह केदारघाट के निकट है। मराठा परम्परा के अनुसार उत्तरकाशी के इस भवन का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है और गंगा इसके पूर्व में बहती है। जैसा बिठुर में पेशवा के उस भवन की स्थिति है जिसे बाजीराव द्वितीय ने बाद में सूबेदार रामचंद्र राव को दे दिया था।
गुप्त दरवाजे और सुरंग
उत्तरकाशी का यह भवन पेशवा द्वारा रामचंद्र राव को दिये गये भवन से काफी साम्य है। उत्तरकाशी वाले भवन के भी दो आंगन है, यह भी दो मंजिला है। इस भवन में नाना पेशवा द्वारा सुरक्षा हेतु दीवारों पर कई स्थानों में अंदर से गुप्त कोठरियाँ बनायीं थी। वे काफी समय तक वैसी ही रहीं। इसमें बाद में टिहरी रियासत के न्यायाधीश का कार्यालय रहा। जो रियासती कर्मचारी इस भवन में रहे उनका कहना है कि इस भवन की दीवारें कई स्थानों पर भीतर से खोखली थीं। अन्दर अनेक रहस्यमय ताक, द्वार एवं तहखाने थे। नीचे बाहर जाने के लिए सुरंगें भी थी। जो बाद में टिहरी रियासत के कर्मचारियों ने बन्द कर दी।
नाना की गिरफ्तारी को अंग्रेजों ने भेजी सेना

उत्तरकाशी निवास करने के काल में ब्रिटिश सरकार को अपने गुप्तचरों द्वारा उनके निवास का पता लग गया। महाराजा सुदर्शन शाह की मृत्यु के बाद से टिहरी गढ़वाल में अंग्रेजों का प्रभाव अधिक हो गया था। अंग्रेजों ने नाना साहब को गिरफ्तार करने के लिए अपने सैनिक भेजे, परन्तु नाना साहब को इसकी सूचना मिल गयी थी और वे उत्तरकाशो छोड़कर अन्यत्र चले गये।
कई स्थल संजोए हैं ऐतिहासिकता और संस्कृति
इस जनपद में गंगोत्री, यमुनोत्री, गोमुख और हर की दून जैसे राष्ट्रीय, पौराणिक और धार्मिक संस्कृति से सम्बन्धित प्रसिद्ध तीर्थ स्थल स्थित हैं। इनके अतिरिक्त जनपद में छोटी बड़ी नदियों की घाटियों पर तथा पर्वत मालाओं की चोटियों पर पौराणिक एवं स्थानीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े हुए अनेक देवी-देवताओं के मंदिर स्थित हैं। इन मंदिरों की सुरक्षा और पारम्परिक सांस्कृतिक इतिहास को सुरक्षित रखने के लिए वंश परम्परागत पुजारी एवं महन्त सामन्ती युग से कायम हैं। देवपूजा के निमित्त मंदिरों के लिए ढोल, नगाड़े, रणसिंघा आदि बनाने वाले परिवार भी मंदिरों से सम्बद्ध है। इन्हीं बाजगियों के कारण हो जनपद की सांस्कृतिक परम्परा कायम है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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