व्यंग्यः बार बार बदले गए जाएं सीएम तो जान लो इसके फायदे, हम भी खुश और तुम भी खुश
इस रंग बदलती दुनियां में जिस आदमी का रंग सबसे ज्यादा बार-बार बदलता रहता है। वह नेता होता है। नेता ही ऐसी कौम है, जिसे सत्ता पर रहने पर भी काम है और विपक्ष में रहने के दौरान भी।
उत्तराखंड में बार-बार मुख्यमंत्री बदलने को भले ही कोई राज्य के विकास में रोड़ा अटकना बताए, लेकिन इस परिपाटी ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम से जोड़ दिया है। जो खाली बैठकर एक-दूसरे को कोसते रहते थे, वे अब व्यस्त हो गए हैं। यानी उन्हें रोजगार मिल गया है। कुछ करने का मौका, अपनी जेब भरने का मौका, या फिर दूसरों का भी कुछ न कुछ भला करने का मौका। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है। पहले भाजपा के कार्यकाल में भुवन चंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने तो उनसे जुड़े कार्यकर्ता बिजी हो गए। फिर निशंक मुख्यमंत्री बने तो उनके गुट के कार्यकर्ताओं को भी किसी न किसी काम के बहाने रोजगार मिला। कई कार्यकर्ता तो बड़े-बड़े कामों के ठेकेदार बन गए। वहीं, खंडूड़ी से जुड़े कार्यकर्ता उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उनके कामों को पूरा कराने में व्यस्त रहे। इस तरह भाजपा के दोनों गुटों को काम मिलता रहा। कांग्रेस की सरकार बनी तो बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने से उनसे जुड़े कार्यकर्ता व्यस्त रहने लगे। कई की ठेकेदारी चल पड़ी। फिर हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उनसे जुड़े युवा भी अब रोजगार की तलाश में जुट गए। जो कार्यकर्ता निठल्ले बैठे थे, वे तड़के घर से निकलने लगे। उनके फोन बिजी रहने लगे। सीएम के कार्यक्रमों में अक्सर वे नजर आते रहे। तब किसी को कोसने के लिए उनके पास वक्त नहीं बचा।
पांच साल की सरकार में बार-बार मुख्यमंत्री बदलेंगे तो हर गुट के कार्यकर्ताओं को फायदा मिलेगा। इस मंत्र को भाजपा ने जाना तो साढ़े चार साल में पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत, फिर तीन चार माह के लिए तीरथ सिंह रावत, फिर पुष्कर सिंह धामी को सीएम बनाया। ऐसे में सबके कार्यकर्ता बिजी हैं। फायदा क्यों न मिले। हजारों घोषणाएं हो रही हैं। इन घोषणाओं के शिलान्यास हो रहे हैं। इसे पूरा करने के लिए कार्यकर्ताओं को ही तो आगे आना होगा। बार-बार मुख्यमंत्री बदलने से हर गुट के कार्यकर्ता को ठेकेदार बनने का मौका मिल जाता है।
यहां ये बात इसलिए भी कही जा रही है कि कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज ने तो एक कार्यक्रम में साफ कह दिया था कि बड़े ठेकों की बजाय हम छोटे ठेके देंगे, जिससे कार्यकर्ताओं को काम मिल सके। उनके इस बयान की आलोचन होने लगी, लेकिन वह सही थे। वह स्पष्ट बोल गए। किसी बात को उन्होंने छिपाया नहीं। जो काम पर्दे के पीछे होता था, उसमें उन्होंने पारदर्शिता लाने का प्रयास किया। बिजनेस बनती जा रही राजनीति यहां कार्यकर्ताओं के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है। वहीं निवर्तमान सीएम के कार्यकाल की घोषणाओं को पूरा करने के लिए उनसे जुड़े कार्यकर्ता भी जुटे हैं। इसका कुछ तो असर राज्य के आधारभूत ढांचे के विकास कार्यों पर जरूर पड़ेगा और कुछ कार्यकर्ताओं की जेब पर भी।
अब कर लो कितनी भी राजनीतिक अस्थिरता की बात। कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सीएम शिलान्यास करता है तो दूसरा उद्घाटन। कितना समाजवाद है। एक सीएम लोकार्पण से पहले ही बदल जाता है, तो दूसरे के नाम से लोकार्पण का पत्थर तैयार करने में कार्यकर्ता जुट जाते हैं। क्या फर्क पड़ता है कि कोरोना की दूसरी लहर में सीएम बदले गए और कोरोना किट लोगों को नहीं बटी। कारण ये था कि सीएम बदल गए। किट के पैकेट में पिछले सीएम की फोटो थी। लोग बीमार हो रहे थे। अस्पतालों में जगह नहीं थी। सांस लेने के लिए ऑक्सीजन की कमी थी और कार्यकर्ता फोटो बदलने में बिजी थे।
नेताओं के बिजी रहने से शहर, गांव, मोहल्लों व कस्बों में अमन चैन भी रहेगा। क्योंकि नेता यदि खाली हों तो यह शुभ नहीं होता। उनका खाली रहना ही राजनीतिक अस्थिरता पैदा करता है। नेता के बिजी रहने में ही सबकी भलाई है। यानी, हम भी खुश, तुम भी खुश और सारा जग खुश।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।