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November 22, 2024

जानिए उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के रमणीक और दर्शनीय स्थलों के बारे में, जहां छिपे हैं पौराणिक और ऐतिहासिक रहस्य 

उत्तराखंड में यूं तो सभी जिले अपनी खास पहचान लिए हुए हैं। साथ ही इन जिलों में प्राकृतिक सौंदर्य कूट कूट कर भरा है। वहीं, सभी जिले धार्मिक महत्व भी लिए हुए हैं। अल्मोड़ा जिले की ही बात करें तो उत्तराखंड कें तेरह जिलों में सबसे अधिक पुराना नगर है।

उत्तराखंड में यूं तो सभी जिले अपनी खास पहचान लिए हुए हैं। साथ ही इन जिलों में प्राकृतिक सौंदर्य कूट कूट कर भरा है। वहीं, सभी जिले धार्मिक महत्व भी लिए हुए हैं। अल्मोड़ा जिले की ही बात करें तो उत्तराखंड कें तेरह जिलों में सबसे अधिक पुराना नगर है। नैनीताल और मसूरी की तरह इसकी उत्तपत्ति अंग्रेजों के आगमन पर नहीं हुई। यहां के रमणीक और दर्शनीय स्थलों के बारे में यहां विस्तार से बताया जा रहा है।
चितई
अल्मोड़ा का चितई ग्राम जो नगर की सीमा पर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटर मार्ग पर बसा है। यह गोल्ल देवता की पीठ माना जाता है। इस मंदिर में गोल्ल को गौर भैरव के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में कोर्ट फीस लगाकर देवता से प्रार्थना करने वाले प्रार्थना पत्र आज भी टंगे देखे जा सकते हैं। सम्पूर्ण कुमाऊँ में विश्वास है कि यदि न्यायालय में न्याय नहीं मिला तो गोल्ल देवता के दरबार में पुकार करने मात्र से ही न्याय स्वतः ही घर चलकर आ जाता है। पर्वतों के मध्य बसे इस मंदिर की लोकप्रियता का अनुमान इसी तथ्य से लग जाता है कि क्षेत्र में प्रवेश करने वाला प्रत्येक विशिष्ट व्यक्ति भी बिना देवता की अनुमति के कार्य या अग्रिम यात्रा प्रारम्भ नहीं करता। चितई मंदिर में लटकी हजारों घटियाँ गोल्ल की महत्ता, उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास की जीवन्त प्रतीक हैं।


आदिम शिला चित्र
उत्तराखंड का आंचल भी आदिम मानव की हलचलों से सरोबार रहा है। लखुडियार, फलसीमा, फुडकानोली तथा गढ़वाल में डूंगी गाँव के शिलाचित्र भी उस युग की दास्तां कह रहे हैं, जब मानव सम्भवतः हथियारों का प्रयोग भी नहीं जानता था। लखुडियार, फुडकानोली तथा कसारदेवी, मटेना ग्राम अल्मोड़ा जिले में ही अवस्थित हैं। अल्मोड़ा नगर के पास बाड़ेछीना वाली एक पर्वत पट्टी पर अधिकतर चित्रों वाली यह सभी चट्टानें हैं।
लखुडियार का यह चित्रित शैलाश्रय अल्मोड़ा नगर से 13 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटरमार्ग पर दलबैंड के पास अवस्थित है। इसके समीप से सुआल नदी बहती है। सुआल का रुख यहाँ अर्धचन्द्रमा के समान हो जाता है।
सड़क के दायीं ओर नदी से लगा हुआ लगभग 26 फीट लम्बा और 26 फीट ऊँचा विशालकाय शिलाखंड है। इस विशाल शिला का ऊपरी किनारा सर्प के फन जैसी आकृति बनाता हुआ छत्र का स्वरूप देता है। कभी आवास के लिए यह चट्टान सर्वश्रेष्ठ रही होगी। ऊँचाई पर स्थित होने के कारण जानवरों से बचाव होता होगा और छत्र पानी से रक्षा करता होगा। नदी पास होने से पानी पीने आये जानवरों का शिकार भी सरल बन पड़ता रहा होगा।


चित्रों की ये ही खासियत
इस शैलाश्रय तक पहुँचने के लिए चट्टान की दार्थी ओर से एक संकरा रास्ता है। अपनी भव्यता, विशालता और मनोहारी स्वरूप के लिए यह चट्टान दूर से ही अपनी ओर आकर्षित करती है। शैलाश्रय में पहुँचते ही धुंधली-धुंधली सी आकृतियों के रंग चमकने लगते हैं। समय के थपेड़ों से अधिकांश चित्र धूमिल पड़ गये है। रंग संयोजन पर हल्की सफेद पारदर्शक परत सी भी चित्रों पर चढ़ गई लगती है। चित्रण का मुख्य विषय मानवाकृतियों का नृत्य मुद्रा में खड़े होना है। कहीं-कहीं अकेले तथा समूहबद्ध नर्तक भी दर्शाये गये हैं।
लम्बे चोगे पहने, कतारबद्ध ये मानव हाथों में हाथ डाले मस्ती से उल्लसित हो नृत्य को गति देते जान पड़ते हैं। कहीं-कहीं ये आड़े-तिरछे और कहीं कमर लचकाकर खड़े जान पड़ते हैं। इन आकृतियों के अतिरिक्त ज्योमितिय डिजाइन, बिन्दू समूह, सर्पिलाकार रेखायें, वृक्ष जैसी आकृतियाँ और पशु सदृश चौपाये भी अंकित हैं। इन शैलाश्रयों में चित्रण का तरीका प्रारम्भिक और परम्परागत है। एक अन्य चित्र संयोजन में पशु तथा मानव का अंकन है। पशु का रंग काला है, मानव कत्थई रंग से बनाये गये हैं। शैलाश्रय के मध्य में आम आदमी की पहुँच से दूर एक पिटारे जैसी आकृति बनायी गयी है। इसके समीप ही एक मानवाकृति खड़ी है। पूरे शैलाश्रय में यह चित्र सबसे अधिक चटकीला है। शैलाश्रय के दूसरी ओर वृक्ष जैसी आकृतियों का भी अंकन किया गया है।


ऊपर की ओर देखने पर बिन्दू समूह एवं सर्प जैसी आकृतियां दिखाई देती है। इनका चित्रण इतने ऊपर कैसे किया गया होगा, एक आश्चर्यपूर्ण बात है। कसार देवी का शैलाश्रय भी अल्मोड़ा नगर से मात्र छ; किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। लखुडियार, फलसीमा, कसारदेवी तथा मटेना ग्राम के शैलाश्रय मुख्यत: कत्थई लाल रंग से चित्रित किये गये हैं। रंग तैयार करने में सम्भवत: गेरू, चूना, लकड़ी का कोयला, वनस्पतियों का रस, चर्बी, सिन्दूर के अतिरिक्त पशु रक्त का प्रयोग भी किया गया होगा।
इन चित्रों को ल्वेथाप की संज्ञा दी गयी है। ल्वेथाप का शाब्दिक अर्थ खूनी छाप है। शैलाश्रय का नाम ल्वेथाप होना भी कहीं न कहीं उसे खून से सम्बन्धित करता सा मालूम होता है। एक विशेष बात यह है कि इन चारों शैलाश्रयों के पास ही ‘कप मार्क्स’ जैसे गड्ढे मौजूद हैं। कहा जाता है कि प्राचीन मानव इनके पास ही मुर्दो की शवाधान क्रिया किया करता था। इन चित्रों की शैली के आधार पर इन्हें ताम्रयुगीन अथवा मध्य पाषाण युगीन माना जा रहा है।
कटारमल
अल्मोड़ा से 14 किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर कटारमल नामक मंदिर समूह हैं। जो प्राचीन काल में सूर्य पूजा के प्रसिद्ध केन्द्र थे। यहाँ लगभग चालीस मंदिर आज भी विद्यमान हैं, जो कि सातवीं से चौदहवीं सदी के मध्य अलग-अलग काल में बनते रहे हैं। इन मंदिरों में से चार मंदिर फांसाकार शैली के शिखरयुक्त आकर्षक है। मुख्य मंदिर जिसे कटारमल नामक कत्यूरी नरेश ने सातवीं सदी के अंत और आठवीं सदी के आरम्भ में बनवाया, गुप्तकालीन वास्तु शिल्प से प्रभावित है।


कटारमल में उत्तराखंड की काष्ठ कला के प्राचीनतम अवशेष एक स्तम्भ के रूप में विद्यमान है, जो कि नौवीं सदी का माना जाता है। आज यह राष्ट्रीय संग्रहालय नयी दिल्ली में प्रदर्शित है। इस मंदिर में पंचायतन शैली की एक स्थानीय संरचना है जिसमें देवालय के प्रवेश द्वार स्तम्भों के निचले भाग में दोनों ओर मकर में बैठी गंगा की आकृति उत्कीर्ण हैं। भारतीय कला में इस प्रकार का अंकन अन्यत्र नहीं मिलता।
अल्मोड़ा से दक्षिण और दक्षिण पूर्व की ओर लगभग आठ किलोमीटर की दूरी में कपिलेश्वर नामक स्थान है, जहाँ कटारमल नाम का एक और उत्तराखंड का प्राचीनतम और विशालतम फांसाकार शिखरयुक्त मंदिर विद्यमान है। इसके शुकनास में गंगा-यमुना के मध्य शिव नटराजन का अंकन अत्यन्त उच्च कोटि की कला शैली में किया गया है। इसी मंदिर के मन्दोवर में अलग-अलग पहलुओं में एक-एक रथिका बनायी गयी है, जिसमें क्रमश: बायीं ओर महषिमर्दिनी पीछे की ओर ध्यानस्थ लकुलीश, और दायीं ओर गणेश की आकृति अत्यन्त सजीवता के साथ अंकित है।


कलाशैली की दृष्टि से इन मूर्तियों में गुप्तकालीन कला का प्रभाव स्पष्ट है। मंदिर के प्रवेशद्वार के दार्थी ओर सिद्ध मात्रिका लिपि में एक लेख ‘श्री कपर्दशील धैविंचण’ उत्कीर्ण है। जिसका आशय है कि यह लेख कपर्दशील द्वारा उत्कीर्ण कराया गया है जो कि सदैव अपनी बुद्धि में विचरण करता है। यह लेख आठवीं सदी की लिपि में उत्कीर्ण है। मंदिर की तिथि सातर्वी सदी प्रतीत होती है। कपिलेश्वर में कुछ छोटे देवालय भी विद्यमान हैं। यह सभी कला की दृष्टि से आकर्षक हैं।


यहां है नवीं सदी के मंदिर
अल्मोड़ा से लगभग सात किलोमीटर उत्तर की ओर नारायण काली और इससे दो किलोमीटर उत्तर की ओर बौणसी नामक स्थान है, जिसमें नवीं सदी के मंदिर विद्यमान हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि नारायण काली में जगद्गुरू शंकराचार्य आये थे और उन्होंने नारायण काली को कीलित किया था। यहाँ कुछ कलात्मक मूर्तियाँ भी हैं।
अल्मोड़ा के अधिकांश प्राचीन भवनों में आकर्षक काष्ठ शिल्प विद्यमान है। इस काष्ठ शिल्प के उल्लेखनीय उदाहरणों में सजे द्वार स्तम्भ, उल्टी छत और अलंकृत दिवारें हैं, जिनमें ज्यामितीय नमूने, फल-फूल, पशु-पक्षी, देवी आकृतियाँ और कुछ भवनों में मूल भवन स्वामी की रूपाकृतियाँ अत्यन्त सुन्दरता से उत्कीर्ण की गयी है।


रानीखेत
अल्मोड़ा से 50 किलोमीटर की दूरी पर एक रमणीक स्थल है। इसे सैलानियों का स्वर्ग कहा जाता है। यहाँ कुमाऊँ रेजीमेन्ट की छावनी है। अंग्रेजों के समय पर यहाँ सैनिकों का शिक्षण केन्द्र तथा उच्च विद्यालय था। आज यह आस-पास के क्षेत्रों हेतु व्यवसायिक मंडी है।
शीतलाखेत
अल्मोड़ा और रानीखेत के मध्य एक छोटे शहर के रूप में विकसित है। यह 5000 फीट पर स्थित प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर अल्मोड़ा से 30 किलोमीटर के अन्तर पर स्थित है। यह फलों के बाग-बगीचों के लिए प्रसिद्ध स्थली है। यहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर मान्यता एवं विश्वास की प्रतीक स्याही देवी का मंदिर है।
गनानाथ
अल्मोड़ा से 47 किलोमीटर की दूरी तथा 7000 फीट के ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ प्रत्येक वर्ष अक्टूबर-नवम्बर में पूर्णिमा के दिन विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।
रियूनी
रानीखेत से 13 किलोमीटर की दूरी पर मनोहारी दृश्यों से ओत-प्रोत स्थान है। यहाँ पर वायुसेना का प्रशिक्षण केन्द्र भी है।
जागेश्वर
अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मंदिरों का वृहत् समूह है। पुराणों के अनुसार बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक जागेश्वर है। यह देवदार वनों से आच्छादित, शांत और सुरम्य स्थान है। यहाँ – शाश्वत सत्य के प्रतीक शिव साक्षात् विराजमान हैं।
जागेश्वर मूलत: एक मंदिर न होकर कई मंदिरों का समूह है, जिसमें जागनाथ, महामृत्युंजय, डंडेश्वर, कुछ जागेश्वर, कोटेश्वर, बटेश्वर, कालेश्वर शिव मंदिरों के अतिरिक्त पुष्टि देवी, नव दुर्गा, चंडिका, कुबेर तथा नवग्रहो के मंदिर भी हैं। इसके प्रांगण में इक्कीस तथा कुल मिलाकर यहाँ लगभग 124 मंदिर है, जो कि केदारनाथ मंदिर की शैली में निर्मित है। अन्य शिव मंदिरों की तरह यहाँ द्वार पर शिव के वाहन नंदी की प्रतिमा नहीं है। इसका कारण यहाँ के विग्रह में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनहार विष्णु तथा संहारक शिव का सम्मिलित रूप से विद्यमान होना है। दूध या जल से शिवलिंग को स्नान कराते समय तरल द्रव्य स्पष्टत: दो मित्र धाराओं में बहने को लोग इसका प्रतीक मानते हैं।


मंदिरों के अतिरिक्त यहां, ब्रह्मकुंड, नारद, सूर्य, ऋषि और वशिष्ठ कुंड भी हैं। वैशाख पूर्णिमा, श्रावण चतुर्दशी, कार्तिक पूर्णिमा तथा शिवरात्रि में यहाँ पूजा-अर्चना के साथ-साथ कुमाऊँनी संस्कृति के इन्द्रधनुषी रंग जागेश्वर के अद्भुत सौन्दर्य को उल्लास एवं आनन्द से सरोबार कर देते हैं। सावन में शिव उपासना के लिए यहाँ दूर-दूर स्थानों से लोग आते हैं।
उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह भी माना जाता है कि आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आये और उन्होंने यहाँ शक्तिपीठ की स्थापना की। शैव धर्म की स्थापना करने पर स्थानीय गौण देवताओं को द्वारपाल का स्थान देने की प्रथा भी कुमाऊँ में शंकराचार्य ने ही प्रचलित की और स्थानीय भैरव देवता को शिव मंदिर के बाहर स्थान दिया।
इतिहास के अनुसार जागेश्वर, चंद राजाओं का शमशान था और यहाँ तंत्रवादी, कापालिक तथा अघोरपंथी शव साधना किया करते थे। प्रकृति ने इतिहास के साथ मिलकर वर्षों जागेश्वर में सन्नाटा बुना है। यहाँ के प्राचीन मंदिर, सैकड़ों वर्ष पुराने वृक्ष और मंदिर समूह के आस पास बने नक्काशीदार खिड़की, दरवाजे और पत्थर की छत वाले मकान सभी जैसे कभी न समाप्त होने वाली खामोशी के अभिन्न अंग हैं। पर्वतों के आँचल में बसा जागेश्वर अपनी संस्कृति की सात्विकता से एक नजदीकी साक्षात्कार का अवसर अवश्य देता है।
द्वाराहाट
रानीखेत से 32 किलोमीटर की दूरी तथा 5031 फीट ऊँचाई पर स्थित एक छोटा सा शहर है। इस स्थान पर लगभग पैंसठदेवालय व बावड़ियाँ हैं। प्रायः सभी कत्यूरी राजाओं के शासनकाल में निर्मित की गयी हैं। कुछ मंदिर जीर्णशीर्ण अवस्था में हैं तो कुछ में अभी मूर्तियाँ विद्यमान हैं। एक मंदिर गूजरदेवल कहलाता है। कहते हैं कि इसे गूजरशाह नामक वैश्य ने बनवाया था। एक टूटे मंदिर का नाम कुट्टनबूढ़ी का देवल है। कहा जाता है कि इसको एक बुढ़िया, जो धान कूटकर जीवन यापन करती थी, उसने बनवाया था। द्वाराहाट में स्थित गणेश के मंदिर में 1103 शाके लिखा हुआ है।

मंदिर के प्रांगण में एक बड़ा चबूतरा विद्यमान है, यह कछेरी का देवाल कहलाता है। शायद कत्यूरी राजा यहाँ बैठकर राज्य का कार्य करते थे। एटकिंसन ने लिखा है कि ‘चंद्रगिरी व चांचरी पर्वत में कत्यूरी राजाओं का राजमहल था।’ कत्यूरी राज्य के टूटने पर एक पीढ़ी की यह राजधानी रही। यहाँ का शहर व बाजार बहुत पुराना है।
यहाँ पर एक स्यालदे पोखर भी है, जहाँ प्रत्येक वर्ष बैसाख माह की संक्राति को मेला लगता है। ऐसी भी कहावत है कि श्रीकृष्ण यहाँ द्वारिका बसाना चाहते थे, परन्तु कुछदैवी कारणों से यह सम्भव न हो पाया। द्वाराहाट के ऊपर द्रोणगिरी पर्वत में वैष्णवी देवी है। इस पर्वत में दुर्लभ वनस्पतियों की भरमार है। दुधारू गाय भैंस यहाँ की घास चरकर विशिष्ट स्वादवाला दूध देती हैं। यही कारण है कि यहाँ का दही समूचे उत्तराखंड में प्रसिद्ध है। रामायण काल में मूर्छित लक्ष्मण के उपचार हेतु सुषेण वैद्य ने इसी पर्वत से हनुमानजी से संजीवनी बूटी मंगाई थी। यहाँ पारस पत्थर के विद्यमान होने की कहावत भी प्रचलित है।
जलना
अल्मोड़ा से 35 किलोमीटर दूर तथा 5500 फीट ऊँचाई पर स्थित एक अत्यन्त सुन्दर स्थान हैं। यहाँ से हिमालय की समस्त हिमाच्छादित चोटियों के दर्शन होते हैं। यहाँ अखरोट, नाशपाती, प्लम और सेब के अनेक बाग हैं।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

सभी फोटोः साभार सोशल मीडिया

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