Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

March 12, 2025

उत्तराखंड का पिथौरागढ़ जिला, यहां से पैदल शुरू होती है कैलाश मानसरोवर की यात्रा, जानिए विशेषता

उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जिला अपने में प्राकृतिक सुंदरता तो समेटे हुए हैं। वहीं, इस जिले की सीमा चीन और नेपाल से लगती है। ऐसे में यह जिला सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। वहीं, इस जिले में धारचूला से लेकर नविढांग तक कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी होती है।

उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जिला अपने में प्राकृतिक सुंदरता तो समेटे हुए हैं। वहीं, इस जिले की सीमा चीन और नेपाल से लगती है। ऐसे में यह जिला सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। वहीं, इस जिले में धारचूला से लेकर नविढांग तक कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी होती है। ऐसे में करोड़ों हिंदुओं की आस्था से जुड़ी इस पवित्र यात्रा के कई पड़ाव इस जिले में हैं। यहां इतिहासकार देवकी नंदन पांडे इस जिले में पड़ने वाले कैलाश मानसरोवर यात्रा और पड़ावों की विशेषता बता रहे हैं।
धारचूला से नविढांग
(कैलाश-मानसरोवर यात्रा मार्ग) विश्व में हिमालय सदृश पुण्य स्थली शायद ही कहीं हो। हिमालय में सुशोभित कैलाश मानसरोवर की पावनता तो अत्यन्त दुर्लभ ही है। जिस प्रकार सूर्य की किरण फूल पर गिरे ओस के कणों को सुखा देती है, उसी प्रकार कैलाश-मानसरोवर के दर्शन मात्र से पाप स्वतः ही दूर भाग जाते हैं।
कैलाश-मानसरोवर की पावन यात्रा को पूर्णता देने में पिथौरागढ़ निवासियों व कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का सहयोग अवर्णनीय है। इस पावन यात्रा का प्रारम्भिक व मध्यमचरण पिथौरागढ़ जिले से ही आरम्भ होता है। यह यात्रा भारत सरकार द्वारा स्वीकृत पत्र मिलने के उपरान्त दिल्ली से समूह के रूप में आरम्भ होती है।
यात्रियों के रेल के जरिये दिल्ली से काठगोदाम पहुँचने पर कुमाऊँ मंडल विकास निगम की ओर से सभी संस्तुति प्राप्त यात्रियों को बस से काठगोदाम से अल्मोड़ा पहुँचाया जाता है। अगले दिन की प्रात: बेला में अल्मोड़ा से धारचूला
(पिथौरागढ़) के लिए आरम्भ हुई मोटरबस यात्रा सोमेश्वर घाटी, कौसानी होते हुए वैजनाथ पहुँचती है।
वैजनाथ का प्रसिद्ध मंदिर
वैजनाथ का प्रसिद्ध मंदिर प्राचीन संस्कृति की सनातनता को ओढ़े आकर्षण का भाव पैदा करता है। प्रथम पड़ाव का प्रात:कालीन नाश्ता कर धारचूला की ओर प्रस्थान करना सजगता का परिचायक है। धारचूला के लिए यात्रा गरूड़ घाटी से होते हुए कोसी और सरयू नदी के संगम स्थल बागेश्वर तथा उससे आगे दक्षिण दिशा की ओर का मार्ग पकड़ चौकोरी में ही दिन के भोजन के लिए रुकना उचित है। चौकोरी का विश्राम स्थान अति मोहक है। यहाँ से हिमालय के भव्य दर्शन होते हैं। दिन के भोजनोपरान्त बस यात्रा मार्ग ढलान का रूख लेते हुए, काली नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ता है। काली नदी के समानान्तर लम्बी दूरी तय करने के पश्चात् मोटर मार्ग अपनी दिशा परिवर्तित कर गौरी गंगा की ओर का मार्ग अपनाता है।


भारत और नेपाल को जोड़ता है पुल
गौरी गंगा का उद्गम स्रोत मिलम ग्लेशियर है तथा गौरीगंगा व काली का संगम स्थल जौलजीवी में है। जौलजीवी से आगे की यात्रा के लिए स्थानीय प्रशासन की संस्तुति लेना आवश्यक है। मोटर मार्ग पुनः काली नदी के बायें किनारे के साथ-साथ गन्तव्य स्थान धारचूला पहुँचने के लिए गति पकड़ता है। इस तरह बस सायंकाल तक धारचूला पहुँच पाती है। यहाँ सैनिक छावनी और काली नदी के ऊपर बना पुल है, जो भारत और नेपाल को मानवीय बंधनों में जोड़ने का काम करता है।
धौलाघाट के समीप होता है धौलीगंगा और काली गंगा का संगम
धारचूला में कुमाऊँ मण्डल विकास निगम के विश्रामगृह में रात्रि भोजन व विश्राम कर प्रात:काल ही तवाघाट के लिए प्रस्थान करना समयोचित विचार है। तबाधाट, धारचूला से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। तवाघाट के समीप ही धौली गंगा और काली गंगा का संगम स्थल है। तवाघाट से पैदल यात्रा का शुभारम्भ होता है। थानेधार तक कठिन चढ़ाई को पार करने में दो से ढाई घंटे का समय लग जाता है। थानेधार के उपरान्त पौगू, जो कि 7620 फीट ऊँचे स्थान पर है, यात्रा सामान्य है। एक घंटे से कम समय में भी थानेधार कम समय में से पाँगू पहुँचा जा सकता है। पाँगू में दूर-दूर तक फैले पहाड़ी घर तथा फलों के बाग बरबस ही मन मोह लेते हैं । यहाँ भोटिया व कुमाऊँ मूल के निवासी दोनों ही निवास करते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय खेती व हथकरघे से ऊनी गलीचे तैयार करना है।


प्राकृतिक सौंदर्य से परिपर्ण आध्यात्मिक स्थल नारायण आश्रम
पाँगू से रात्रि विश्राम कर प्रात: ही 8450 फीट ऊँचाई पर स्थित सिर्खा के लिए यात्रा आरम्भ होती है। सिर्खा से ज्योतिनाला पहुंचन में पंद्रह मिनट का समय लगता है। ज्योतिनाला, हिमखोला से आता है और आगे चलकर काली नदी में समा जाता है। ज्योतिनाला से सोसा गाँव तक चार किलोमीटर की सीधी चढ़ाई है। मार्ग में एक कच्चा मोटर मार्ग भी है। परन्तु यात्री पैदल ही सोसा गाँव पहुँचना उचित समझते हैं। सोसा से सिखां पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। कुछ यात्री सीधे सिर्खा न जाकर नारायण आश्रम में भगवद् दर्शन करना उचित समझते हैं। नारायण आश्रम यहाँ से
तीन किलोमीटर की चढ़ाई पर है। यह प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर एक आध्यात्मिक स्थली है। नारायण आश्रम से ढालपूर्ण मार्ग पर पन्द्रह मिनट तक चलने के उपरान्त अगले पन्द्रह मिनट में फिर चढ़ाई पार कर मार्ग बाँज, बुरांश व चीड़ के जंगल में खुलता है। जंगल से फिर ढालपूर्ण मार्ग आरम्भ होकर सिरदाँग गाँव पहुँचता है। यह गाँव कम आबादी वाला है। यहाँ की मुख्य उपज आलू, राजमा, चौलाई के अतिरिक्त मौसमी फल-फूल हैं। यहाँ के निवासी खेती के साथ-साथ गलीचे बुनने का भी कार्य करते हैं।
यहां है मां दुर्गा की प्रतिमा
रात्रि विश्राम सिर्खा में कर गाला, जो कि 8052 फीट की ऊँचाई पर है, प्रात: ही प्रस्थान करना होता है। गाला, सिर्खा से सोलह किलोमीटर की दूरी पर है। सिर्खा से समरी गाँव तक ढालपूर्ण मार्ग है तदुपरान्त एक सीधी चढ़ाई। मार्ग में राजमा, मक्का, चौलाई से लहलहाते हुए खेत दिखते हैं। सिर्खा से दो घण्टे तक चलने के पश्चात्
जंगलचट्टी आता है। जंगलचट्टी से एक घंटे की यात्रा तयकर रूगलिंग टाप स्थान आता है। रूगलिंग टाप दस हजार फीट की ऊँचाई पर है। यहाँ दुर्गा माँ की प्रतिमा स्थापित की हुई है। यहाँ से सिमखोला तक का मार्ग ढालपूर्ण पथरीला होने के कारण कष्टदायक है। जंगल अब पहले से अधिक घने दिखते हैं। बॉंज, बुरांश के साथ रिंगाल की झाड़ियाँ भी मार्ग रोकती हैं। जंगल समाप्त होने पर सिमखोला गाँव दिखता है, जो 7350 फीट पर स्थित है।
गजब की खूबसूरती है यहां
यहाँ पहुँचने पर यात्री को आभास होता है कि वह जंगल की पथरीली ढलान पारकर रूगलिंग टाप से 2500 फीट नीचे आ गया है। सिमखोला से गाला पहुँचने के लिए चार किलोमीटर चलना पड़ता है। गाला से एक किलोमीटर आगे जिप्ती गाँव है, जहाँ सैनिक छावनी है। इस गाँव की उत्तर दिशा में छोटी-छोटी बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ है। दक्षिण दिशा की ओर नीचे देखने पर काली नदी एक रेखा सी दिखती है। बाँज के वृक्ष अधिक होने के कारण ठंडा क्षेत्र है। यहाँ प्रकृति का प्रत्येक रूप प्रेरणा देता है। बादलों का स्पर्श, जंगल का सन्नाटा, झरते झरने, तो कभी वनस्पतियों में अनायास चमत्कारिक परिवर्तन।
जिप्ती गाँव में निगम के विश्राम गृह में रात्रि व्यतीत कर प्रात: बेला में लखनपुर की ओर प्रस्थान किया जाता है। तीन किलोमीटर लम्बा मार्ग एक प्रकार से सीढ़ीनुमा ढाल है। वृक्ष, झाड़ियों के स्वरूप में दिखते हैं। ज्यों-ज्यों यात्री काली नदी के समीप पहुँचता है लखनपुर गाँव भी दिखने लगता है। यात्रा का रात्रि पड़ाव पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार माल्पा निशचित होता है। अत: येनकेन रात्रि तक माल्पा पहुँचने का साहस यात्री को जुटाना ही पड़ता है। यद्यपि वह मागं चढ़ाई वाला नहीं है परन्तु कष्ट साध्य अवश्य है। लगभग ढाई किलोमीटर की यात्रा पूरी करने पर काली नदी व नजंग गाड़ का संगम स्थल दिखाता है। यह संगम स्थल 6500 फीट की ऊंचाई पर है। नजंग गाड़ से माल्या तक की यात्रा ढाल एवं चढ़ाई दोनों से मिश्रित है। लगभग आधा किलामीटर पहले मार्ग पूरी तरह सुगम लगता है।
लहरों के चट्टानों से निकलती है दिल कंपाने वाली आवाज
समुद्रतट से 7200 फीट ऊँचा माल्पा एक छटा सा गाँव है, यहाँ रात्रि विश्राम के लिए निगम का विश्राम गृह व शिविर हैं। माल्या में रात्रि विश्राम के पश्चात बूंदी की ओर प्रस्थान किया जाता है। माल्पा से कुछ ही दूरी पर माल्या गाड़ मिलती है जो आगे चलकर काली नदी में मिल जाती है। माल्पा गाड़ से थोड़ी दूर की चढ़ाई पार करने पर पुन: काली नदी, मार्ग के समानान्तर दिखती है। यहाँ काली नदी की विशाल लहरें और चट्टानों से टकराने की आवाज दिल कंपा देने वाली होती है। दो घंटे अविराम चलने पर माल्पा से पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित लाभारी पहुंचा जाता है।
झरने की बूंदे बना लेती हैं छाते का आकार
यह स्थान प्रकृति प्रेमियों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। यहाँ 250 फीट की ऊँचाई से झरता झरना दिखाई देता है, जिसे छाता झरना कहते हैं। इस झरने की बूंदें पृथ्वी का स्पर्श करने से पूर्व ही छाते का आकार बना लेती है। लाभारी से बूंदी यात्री विश्राम गृह चार किलोमीटर की दूरी पर है। बूंदी में कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का रमणीक विश्राम गृह है। इसके दक्षिण पूर्व की ओर नेपाल का नामजिंग चट्टानी शिखर सिर उठाये दिखता है। इस स्थल से आगे भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के जवान प्रहरी के रूप में स्थान स्थान पर दिखते हैं।


बूंदी से गुंजी तक विकट यात्रा
बूंदी से गुंजी तक की यात्रा विकट है। इस यात्रा की दूरी 19 किलोमीटर है तथा इसे एक ही दिन में पूरा करना है। अत: यहाँ से अंधेरे में ही प्रस्थान करना लम्बी यात्रा के दृष्टिकोण से लाभप्रद है। निगम के विश्राम गृह से बुद्धिगाँव मात्र दस मिनट में ही पहुँचा जा सकता है। यहाँ से लियालेख, (11600 फीट) तीन किलोमीटर की दूरी पर
है। जबकि यात्री समूह 9135 फोट ऊँचाई से आगे बढ़ने में प्रयासरत है। इन तीन किलोमीटर के अन्तर को पाट पाना अत्यन्त कष्टदायक लगता है। छियालेख तक पहुँचने में डेढ़ घंटे का समय लगता है।
छियालेख एक रमणीक स्थान है, इससे दक्षिण पूर्व में ‘अपी’ नामक शिखर है। यहाँ देवदार के ऊँचे वृक्ष आकाश थामे दिखते हैं। यहाँ से गर्व्यांग तीन किलोमीटर की दूरी पर है। वहाँ पहुँचने में मात्र एक घंटे का ही समय लगता है। गर्व्यांग से गुंजी दस किलोमीटर की दूरी पर है। गर्व्यांग से एक किलोमीटर नीचे उतरते ही उत्तर दिशा से आ रही काली नदी व पूर्व से आ रही नेपाली नदी टिंगर का संगम देखने को मिलता है।
इस संगम स्थल के समीप ही भारत-नेपाल को आपस में जोड़ने वाला सीता
पुल भी है। संगम से लगभग चार किलोमीटर आगे सीती गाँव है। कहने को यह गाँव है, परन्तु यहाँ घरों की संख्या न के बराबर है। गाँव के समीप ही विशालकाय चट्टाने हैं, जो स्थान स्थान पर विशिष्टकार बनाये हुए हैं। जानकर लोगों का कहना है कि ये चट्टाने फासिल का रूप हैं, जो भूगर्भीय हलचल या नदी के कटाव से ऊपर आ गयी हैं।
छोटा कैलाश
गुंजी गौव पहुँचने से तीन किलोमीटर पूर्व ही उत्तर दिशा में छोटा कैलाश के दर्शन होते हैं। जिसे आदि कैलाश भी कहते हैं। यहीं पर कुटी नदी व काली का संगम भी है। कुटि का मूल स्रोत आदि कैलाश पर्वत ही है। संगम से गुंजी तक की यात्रा थका देने वाली है। गुंजी में एक सम्पन्न गाँव के दर्शन होते हैं। यहां पहुंचने पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के डाक्टरों द्वारा अग्रिम यात्रा के लिए यात्रियों की शारीरिक जाँच की जाती है। जाँच में खरा उतरने पर ही अग्रिम यात्रा को
अनुमति मिल पाती है।
गुंजी में रात्रि विश्राम कर अगला दिन कालापानी की ओर की यात्रा का होता है। यहाँ से यात्रा सेना के जवानों के संरक्षण में आरम्भ होती है। गुंजी से कालापानी नौ किलोमीटर दूरी पर है। जिसमें बारह सौ फुट की चढ़ाई पार करनी होती है। काला पानी में काली का मंदिर है, जहाँ से काली नदी निकली है। इस क्षेत्र का वातावरण किसी आध्यात्मिक स्थल से कम नहीं लगता। यहाँ उत्तरी छोर की सीधी ऊँची चट्टान के मध्य व्यास गुफा है। यहाँ व्यास मुनि ने तपस्या की थी। कालापानी में ही सीमापार तिब्बत जाने सम्बन्धी प्रपत्रों की जाँच पड़ताल पूरी की जाती है। कालापानी समुद्र तट से 11800 फीट की ऊंचाई पर एक सुन्दर स्थल है।


ओम पर्वत अलौकिक व चमत्कार
कालापानी में रात्रि विश्राम कर नविढांग को ओर प्रस्थान किया जाता है। मार्ग में लिपू गाड़ भी मिलती है। यहाँ वृक्ष देखने को नहीं मिले हैं। हुनखंग गाड़ और लिपू गाड़ का संगम भी यहाँ दर्शनीय है। संगम स्थल से आगे चलने पर ओम पर्वत के दर्शन होते हैं, जो कि स्वयं में अलौकिक व चमत्कार की पराकाष्ठा है। इस पर्वत को बर्फ ने
सहज ही एक दिव्य आकार ॐ का दे रखा है। यह एक चमत्कृत कर देने वाला दृश्य है।
कालापानी से नविढांग तक पहुँचने में तीन घंटे का समय लगता है। नवितांग में लिपू गाड़ और नीलयन्ती गाड़ का संगम है। नीलयन्ती ओम पर्वत से आकर ठीक नविटांग शिविर के नीचे लिपू गाड़ में मिलती है। नविढांग में निगम का यात्री निवास है। नाविढांग से तकलाकोट की ओर जाने वाला मार्ग पञ्चरीला है। तीन घंटे की कठिन यात्रा के उपरान्त यात्री तिब्बत सीमा में चीन अधिकारियों के संरक्षण में प्रवेश करता है। यहाँ से कैलाश मानसरोवर की 14 दिन की यात्रा चीनी अधिकारियों के संरक्षण में ही होती है।
एक हथिया देवाल
पिथौरागढ़ से 16 किलोमीटर की दूरी तथा 3000 फीट की ऊँचाई पर रामगंगा के किनारे स्थित पर्यटन स्थल, थल है। यहाँ प्राचीन मंदिर बालेश्वर से एक किलोमीटर दूरी पर स्थित है – एक हथिया देवाल। किंवदन्ती है कि यह देवाल किसी कुशल कारीगर ने एक ही रात्रि में, एक ही प्रस्तरखंड को काटकर-तराशकर एक ही हाथ से निर्मित किया था। कहते हैं कि पूजा-प्रतिष्ठा होने से पूर्व ही रात आ चुकी थी और इस देवाल को इसी स्थिति में छोड़ दिया गया।
इतिहासकार मानते हैं कि यह देवाल कत्यूरी काल (850-1050) के एक प्रमुख राजा ब्रह्मदेव के समय में एक हथिया नाम के एक कुशल शिल्पी ने बनाया था। उसी शिल्पी ने कुछ अन्य स्थनों में भी इसी शैली के नौले तथा मंदिर निर्मित किये थे।


नहीं होती पूजा अर्चना
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि इतने सुन्दर, कलात्मक देवाल में पूजा-अर्चन नहीं किया जाता। कुछ तर्कजीवियों तथा अध्येताओं का कहना है कि इस देवाल के गर्भगृह में अवस्थित शिव अर्ध्य दक्षिणमुखी है। शायद यह उस कुशल शिल्पी की सबसे बड़ी भूल कही जा सकती है, जिस कारण देवाल को पूजा-अर्चना के योग्य नहीं समझा गया। इस एक हथिया देवाल की सम्पूर्ण ऊँचाई लगभग बारह फीट है, जिसमें 3×3 फीट का बरामदा, 2×3 फीट का मुख्य कक्ष में जाने का प्रवेशद्वार, 4×4 फीट का मुख्य कक्ष, जहाँ पर दक्षिण मुखी शिव अर्ध्य है। बरामदे में तीन फीट ऊँचे गोलाकार दो प्रस्तर स्तम्भ भी हैं। देवाल के बाहरी आवरण में दो प्रस्तर कलश बने हुए हैं, जिनमें एक के ऊपर शेर द्वारा हाथी के बच्चे को दबायी हुई स्पष्ट अनुकृति है। यह सम्पूर्ण अनुकृतियाँ एक ही विशाल प्रस्तरखंड को काट-तराशकर बनी हुई है, जबकि पत्थर का शेष भाग बिना उकेरे ही छोड़ा गया है। देवाल के सामने एक कुंड बनाकर उसमें पास, बहने वाली नदी का जल छोड़ा गया है। यह ‘एक हथिया देवाल’ भारत की प्राचीन वास्तुकला की समृद्धि और गौरव का एक स्मारक है।
साभारः सभी फोटो सोशल मीडिया से।
पढ़ें: यहां 12 साल में एक बार मनाया जाता है कंडाली पर्व, महिलाएं करती हैं नेतृत्व

लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

 

Website |  + posts

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page