शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे हुए गौंण, धार्मिक उन्माद में उलझे लोग, शिक्षा पर ही कर लो बात
देश भर में अब ना तो स्वास्थ्य ही मुद्दा रहा है। ना ही पेयजल समस्या, ना ही बेरोजगारी और ना ही महंगाई। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों की हेडलाइन में मंदिर मस्जिद विवाद, ताजमल, कुतुबमीनार, ज्ञानव्यापी जैसे मुद्दे रह गए हैं। लोग भी ऐसे ही मुद्दों में उलझे हुए हैं और एक दूसरे को व्हाट्सएप में संदेश देकर धार्मिक एकता की कसमें खा रहे हैं। कामना करते हैं कि बस एक बार क्रांति हो जाए या यूं कहें तो एक बार लोग आपस में भिड़ जाएं। साथ ही कामना ये रहती है कि जो लड़े उनमें उनके परिवार का कोई ना हो। तभी तो जिन लोगों को बैठे बैठाए पेंशन मिल रही है, ऐसे लोग ही ज्यादा ऐसे संदेशों को फारवर्ड करने में जुटे रहते हैं। खुद सरकारी नौकरी करने के बाद अब कहते हैं कि सरकारी दफ्तरों में काम नहीं होता। इसलिए वह निजीकरण की पैरवी करते हैं। अब ऐसे लोगों ने भी शायद सरकारी नौकरी में काम नहीं किया होगा। तभी तो अपने अनुभवों के आधार पर वह ऐसे तर्क देते हैं। फिर यदि काम नहीं किया तो सवाल ये है कि वह पेंशन भी क्यों ले रहे हैं। खैर ऐसे सारे लोग नहीं हैं। कई ऐसे हैं, जो मुद्दों पर बात करते हैं, लेकिन उनके परिवार के लोग ही उनकी बात को दबा रहे हैं।
उत्तराखंड में भी सरकार का फोकस चारधाम यात्रा, समान नागरिक संहिता पर ही फोकस रहता है। सरकार में शामिल नेताओं में ज्यादातर की फोटो और प्रेस विज्ञप्ति जब भी जारी होती है, तो उनमें ऐसी खबरें भी होती हैं कि यहां धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत की। या इस मंदिर में पूजा की। रोजगार सृजन के लिए क्या हो रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए क्या हो रहा है। सड़कों की दिशा में क्या हो रहा है। महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए क्या हो रहा है। शिक्षा पर क्या हो रहा है। इस पर शायद ना तो जनता ही कुछ जानना चाहती है और न ही सरकारों का इसमें कोई दिलचस्पी है।
यदि बात स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर की जाए तो अभी उत्तराखंड में हालत ठीक नहीं हैं। अस्पताल हैं तो चिकित्सक नहीं हैं। एक्सरे मशीन है तो टेक्नीशियन नहीं हैं। हाल ही में पौड़ी जिले के रिखणीखाल के सरकारी अस्पताल में यही देखने को मिला। एक बच्ची के हाथ टूटा तो वहां टेक्नीशियन की व्यवस्था न होने से धूल फांक रही एक्सरे मशीन चलाने वाला ही नहीं था। ऐसे में चिकित्सक ने उसका प्राथमिक उपचार किया और रेफर कर दिया। हाथ में कच्चा प्लास्टर तो नहीं बांधा, लेकिन पट्टी बांध कर हाथ को गत्ते के सहारे लटका दिया।
इसी तरह सड़कों के अभाव में कई किलोमीटर सफर करने के दौरान ही मरीज की हालत बिगड़ जाती है। कई बार ऐसे मरीज की मौत तक हो जाती है। किसी भी राज्य के विकास के लिए शिक्षा जरूरी है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षण संस्थानों में सरकारी स्कूलों की हालत तो किसी से छिपी नहीं है। गरीब तबके की हैसियत बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने की नहीं है। किसी तरह यदि छात्र इंटरमीडिएट कर ले तो उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए भी बुरा हाल है। ऐसे में शिक्षा जैसे मुद्दे तो गौण हो चुके हैं। छात्र नेता भी छात्रसंघ चुनाव के दौरान सक्रिय होते हैं और विपक्षी राजनीतिक दल भी ऐसे मुद्दे चुनाव से कुछ पहले उठाते हैं। चुनाव निपटे और मुद्दे भी गायब। महंगाई ने लोगों को रुला रखा है, लेकिन रोजगार के सवाल पर भी शायद किसी को कोई लेना देना नहीं है।
राजकीय सरकारी महाविद्लायों की स्थिति
उत्तराखंड में के राजकीय महाविद्यालयों में 766 पद रिक्त चल रहे हैं। जो स्वीकृत पदों से 33 प्रतिशत से भी अधिक है। वहीं, राज्य गठन के 22 वर्ष में भी अंग्रेजी के 50 और हिंदी जैसे विषयों के 30 प्रतिशत से भी अधिक शिक्षकों के पद नहीं भरे जा सके हैं। जिस वजह से विद्यार्थी पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन करने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
प्रदेश भर में 119 राजकीय महाविद्यालय संचालित किए जा रहे हैं। जिनमें 2311 पद स्वीकृत हैं। परंतु सिर्फ 1545 पदों पर ही नियमित शिक्षक विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। जबकि 766 रेगुलर शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इसके अलावा संविदा के तहत 39, गेस्ट के तहत 113 और अन्य शिक्षक 373 शिक्षक अस्थायी पदों पर नियुक्त किए गए हैं।
अंग्रेजी पढ़ाने के लिए स्वीकृत 177 पदों में से 90 और हिंदी पढ़ाने के लिए स्वीकृत 212 पदों में से 65 रेगुलर शिक्षकों के पद रिक्त चल रहे हैं। जिसके चलते विद्यार्थियों को महत्वपूर्ण विषयों को पढऩे के लिए शिक्षक नहीं मिल पा रहे हैं। जिसका खामियाजा उन्हें परीक्षा परिणाम में भुगतना पड़ता है। पहाड़ के कालेजों में शिक्षकों के पद अधिक रिक्त हैं। महाविद्यालयों के प्राचार्यों को अस्थायी तौर पर रिक्त पदों को भरने का अधिकार दिया गया है। दावे किए जा रहे हैं कि इसके लिए लगातार विज्ञप्तियां भी जारी हो रही हैं। फिर भी ढाक के तीन पात।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।