शादी का हुल्लड़ और मैमसाब ने दी गाली, बराती सुनते तो उड़ जाते होश
शादियों का सीजन आया और निपट भी गया। यदि अपने परिवार की शादी न हो तो पता ही नहीं चलता कि कब शादी आई और कब निपट गई। महंगाई की मार भले ही आम आदमी पर पड़ती नजर आ रही है, लेकिन शादी में अभी ज्यादा दिखाई नहीं देती। फिर भी विवाह सामारोह फटाफट क्रिकेट की भांति होने लगे हैं। इसका कारण लोग शादी में भले ही पैसे खर्च करने में कंजूसी नहीं बरतते हैं, लेकिन उनके पास समय की कमी जरूर हो गई है। तभी तो शादी से कई दिन पहले की परंपराएं अब सिर्फ नाम की रह गई हैं।
दुखः व सुख के आयोजन व परंपराओं का एक फायदा तो यह भी नजर आता है कि इस बहाने वर्षों के बाद कई लोगों से मुलाकात हो जाती है। वर्ना कई बार तो किसी के बारे में यह भी पता नहीं होता कि वह कहां और किस हाल में होगा। शादी का आयोजन तो है ही ऐसा कि इसमें पुराने लोगों से मुलाकात ताजा हो जाती है, साथ ही नए संबंध बनते हैं व नए लोगों से पहचान भी होती है। वर्षों पहले और वर्तमान की शादियों में तुलना करें तो काफी अंतर नजर आएगा। पहले शादी के मौके पर कई दिनों से घर में उत्सव का माहौल रहता था। घर में कई दिन से महिलाओं की ढोलकी बजने लगती थी। समारोह में पूरा मोहल्ला कामकाज में जुट जाता था।
तब खानपान की वस्तुएं सीमित होती थी। आजकल शादी के मौके पर सिर्फ एक दिन पहले लेडिज संगीत के नाम पर परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है। इसमें भी महिलाएं कम गाती हैं और डीजे ज्यादा बजता है। खानपान की वस्तुओं की लिस्ट लंबी होती जा रही है। आधा खाना तो बेकार होने पर समारोह निपटने के अगले दिन फेंका ही जाता है। अब संगीत के नाम पर डीजे बजता है या फिर आर्केस्ट्रा का आयोजन होता है। बहाना महिला संगीत का होता है या फिर मेहंदी का। रात को खाना होता है और दारू की बोतलें खुलने लगती हैं। फिर तो नशे में झूम बराबर झूम शराबी वाला भी नहीं बजता कमबख्त।
फिर भी आजकल वो मजा नहीं रहा, जो करीब चालीस साल पहले शादियों में नजर आता था। बारातियों को चिढ़ाना, उनको चिढ़ाने वाले गाने गाना। कितना भी चिढ़ा लो, लेकिन बरातियों का बुरा न मानना। सभी कुछ तो था तब। अब ऐसी कम ही शादी नजर आती हैं, जहां बाराती चिढ़ाने लायक बचे हों। कई बार तो दुल्हे से लेकर पूरी बारात नशे में धुत्त नजर आती है। ऐसे में लड़की पक्ष वालों की चिंता यही रहती है कि कहीं कोई विवाद न हो। किसी तरह दोनों तरफ के मेहमान जल्द खाना खाकर अपने घर चले जाए।
चलिए मैं आपको एक टाइम मशीन में बैठाकर करीब पैंतीस साल पहले की एक शादी में ले चलता हूं। देहरादून में मेरी बड़ी बहन की शादी थी। पिताजी ने अपनी क्षमता के अनुसार कार्ड बांटे। लोगों को बुलाया। मोहल्ले के लोग हर छोटी-बड़ी मदद को तैयार थे। सबसे पहले पिताजी को चिंता थी कि चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी कहां से आएगी। निकट की राष्ट्रपति आशिया में रह रहे सेना के जवान ने एक सूखा पेड़ को काटने की अनुमति दे दी।
पेड़ से लकड़ी काटने के लिए कहीं से मजदूर नहीं बुलाए गए। मोहल्ले के युवाओं ने ये काम खुद ही किया। घर में लकड़ियों का ढेर लग गया। करीब एक सप्ताह से मोहल्ले की युवतियां व महिलाएं घर में जुटने लगी। जो दिन भर मिठाई, मठरी व अन्य सामग्री बनाने में मदद करती थी। घर के आसपास कागज की रंग बिरंगी पतंगी सजाने का रिवाज था। लंबी सुतली तिकोने कागज की झंडी चिपकाई जाती थी। कुछ झंडियां टैंट वाला भी लाता था। कुछ मोहल्ले के लोगों की मदद से तैयार की जाती रही थी। शाम को महिलाएं ढोलकी बजाकर शादी के उत्सव को मजेदार बना रही थी। इसमें ज्यादातर वे गाने ही गाए जाते थे, जो सास व बहू की तरकार और आपसी खींचतान वाले होते थे।
बात देहरादून की हो रही है। समीप ही राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान था। वहां के प्रशिक्षु दृष्टिहीन संगीत में दक्ष थे। इनमें से कुछ को बारात वाले दिन का आमंत्रण देने के साथ ही यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी कि बारात आने के बाद वे ढोलक, हारमोनियम आदि के साथ संगीत की सुर लहरियां छेड़कर बारात का मनोरंजन करेंगे।
घर में हर दिन होने वाले लेडिज संगीत में दो चरित्र ऐसे भी थे, जो उन दिनों सबके आकर्षण का केंद्र थे। इनमें एक दृष्टिहीन महिला थी, जिसे बहादुर की पत्नी के नाम से जाना जाता था। वह हर शाम लेडिज संगीत में शामिल होती। गाने गाती और ज्यादा उत्साहित होने पर अपने स्थान पर खड़े होकर नाचने लगती। उसके नृत्य को हम तब भालू डांस कहते थे, क्योंकि वह एक ही स्थान पर कूदती थी। जिसे देखकर खूब हंसी छूटती।
दूसरी थी मैमसाब। नाम था मैमसाब, लेकिन गरीब ईसाई महिला थी। पति दृष्टिहीन था, लेकिन दृष्टि के लिहाज से मैमसाहब खुद सामान्य थी और देख सकती थी। एक पांव उसका कमजोर था। इसलिए या तो पैर घिसड़कर चलती या फिर लचकाकर चलती थी। मैमसाब को मैने कभी चप्पल पहने नहीं देखा। नंगे पांव ही वह चलती थी। दिमाग से कुछ कमजोर जरूर थी। आवाज कड़क थी, लेकिन कुछ तोतलापन था।
मैमसाब का रंग गौरा था। उसके पति का नाम गोरेलाल था, लेकिन रंग गाढ़ा काला था। वह दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में कपड़ा बुनने की खड्डी चलाता था। जब औलाद नहीं हुई तो मैमसाब ने उसकी दूसरी शादी करा दी। दूसरी पत्नी हरना दृष्टिहीन थी और घर में ही रहती थी। भले ही नाम मैमसाब था, लेकिन उसका हाल हरना व गोलेराल की नौकरानी का हो गया। दोनों का खाना बनाना। घर की अन्य सुविधाएं जुटाना सभी कुछ उसका काम था। हरना घर में ही बैठी रहती और कुछ नहीं करती। ये अलग बात है कि हरना से भी गोरेलाल की संतान नहीं हुई।
मैमसाब दिल की साफ थी। अच्छा बुरा जानती थी। लोग भड़काते कि हरना से भी काम कराया कर, लेकिन वह भड़काने वालों को भी करारा जवाब देती। शादी से कुछ दिन पहले से ही मैमसाब घर आ रही थी। गाना गा नहीं सकती थी तो ताली ही पीटकर मनोरंजन करती। शादी वाले दिन बारात आई। टैंट के नीचे बाराती बैठे थे। तभी किसी को याद आया कि बारातियों को तंग करने वाले गाने नहीं गाए जा रहे हैं। किसी व्यक्ति ने कहा कि महिलाएं कहां हैं, बारात आ गई है और अभी तक बारातियों को गाली नहीं दी गई। तब गाली से तात्पर्य उन गानों से होता था जो बारितियों को छेड़ने के लिए गाए जाते थे।
जैसे- थोड़ा खाइयो रे बाराती, थोड़ा खाइयो रे,
पेट फट जाएगा, डॉक्टर नहीं आएगा
मैमसाब ने सुना कि गाली देने का वक्त आ गया है और कोई गाली नहीं दे रहा है। पहुंच गई सीधे टैंट से पीछे और शुरू हो गई-साले, हराम, कूत्ते, बाराती………। तभी एक महिला ने सुना और मेमसाब की गलती का अहसास होने पर वह दौड़ते हुए मेमसाब के पास गई। बाराती ऐसी अनोखी गाली न सुने इसलिए उसने मैमसाब का मुंह दबा दिया।
आज इस दुनियां में न गोरेलाल है और न ही हरना और मैमसाब। साथ ही उस तरह की शादी भी नहीं दिखाई देती, जिसके आयोजन में पूरा मोहल्ला कई दिनों से जुट जाता था। बची हैं तो सिर्फ तब की यादें।….हां इतना जरूर है कि मैमसाब का धर्म आज पढ़े-लिखे, समझदार, सूट-कोट में शामिल वे बाराती निभाते नजर आते हैं, जो शराब के नशे में चूर रहते हैं।……
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
Very good news