उत्तराखंड में पर्वतीय इलाकों में इगास बग्वाल की धूम, मैदानों में किया गया शालिग्राम तुलसी का विवाह
देवउठनी एकादशी के दिन जहां उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में इगास बग्वाल (दिवाली) की धूम रही। वहीं, मैदानी व अन्य इलाकों में तुलसी विवाह के साथ पूजा अर्चना की गई। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में खासकर उत्तरकाशी और टिहरी में इगास बग्वाल मनाई जाती है। यह बग्वाल दिवपाली से 11 दिन बाद एकादशी के दिन पड़ती है। अब इस इगास बग्वाल का भी राजनीतिकरण होने लगा है। इसे लेकर आमजन तो क्या नेता भी मनाने में पीछे नहीं हैं। चाहे जो भी हो, किसी न किसी बहाने अपनी संस्कृति को याद रखने, उसे अपनाने का जो ट्रेंड चला, वो आने वाले दिनों के लिए बेहतर है। भाजपा के कई नेताओं ने अपने गांवों में जाकर इगास बग्वाल मनाने का आह्वान किया था। इसकी शुरुआत पिछले साल राज्य सभा सदस्य अनिल बलूनी ने की थी। हालांकि वह बीमारी के चलते अपने गांव नहीं पहुंच सके, लेकिन उनके गांव में कई लोग जुटे थे और इगास बग्वाल का आनंद उठाया। भाजपा नेता संवित पात्रा पिछले साल उनके गांव पहुंचे थे। इस बार पौड़ी विधायक मुकेश कोली उनके गांव पहुंचे।
इस बार भी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल ने ऋषिकेश में भैलो खेलकर इगास मनाई। वहीं, सांसद अनिल बलूनी ने अपने दिल्ली स्थित आवास में दीपक जलाकर इगास बग्वाल मनाई। वहीं, कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना ने भी देहरादून के नगर निगम प्रांगण में भैलो खेलते हुए अपनी वीडियो जारी की। महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इगास बग्वाल की उत्तराखंड के लोगों को बधाई दी।
बर्त (मोटी रस्सी) खींचने की प्रथा
इगास बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में कई स्थानों पर बर्त खींचने की परम्परा भी है। इगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है। बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी। यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है। लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है।
भैला खेलने का रिवाज
इगास बग्वाल के दिन मुख्य आकर्षण भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है। परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं।
शुरू हो जाते हैं शादी विवाह के काज
मान्यताओं के अनुसार, भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चार माह के लिए सो जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन चतुर्मास का अंत हो जाता है और शादी-विवाह के काज शुरू हो जाते हैं।
ये है मान्यता
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीहरि विष्णु इसी दिन राजा बलि के राज्य से चातुर्मास का विश्राम पूरा करके बैकुंठ लौटे थे। इस एकादशी को कई नामों से जाना जाता है। इनमें देवोत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी प्रमुख हैं। इस दिन से सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं। इस एकादशी तिथि को तुलसी विवाह किया जाता है। इस दिन कई स्थानों पर शालिग्राम तुलसी विवाह का भी प्रावधान है।
लोगों ने किया तुलसी पूजन, शालिग्राम और तुलसी का रचाया विवाह
इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस दिन विष्णु जी को जगाने का आह्वान किया जाता है। सुबह उठकर साफ कपड़े पहने जाते हैं। फिर विष्णु जी के व्रत का संकल्प लिया जाता है। फिर घर के आंगन में विष्णु जी के चरणों का आकार बनाया जाता है। अगर आंगन में धूप हो तो चरणों को ढक दिया जाता है। फिर ओखली में गेरू से चित्र बनाया जाता है और फल, मिठाई, ऋतुफल और गन्ना रखकर डलिया को ढक दिया जाता है। रात के समय घर के बाहर और जहां पूजा की जाती है वहां दिए जलाए जाते हैं। रात के समय विष्णु जी की पूजा की जाती है। साथ ही अन्य देवी-देवताओं की पूजा भी की जाती है। पूजा के दौरान सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का पाठ किया जाता है। साथ ही भजन भी गाए जाते हैं। देहरादून सहित कई स्थानों पर इस रिवाज के साथ त्योहार मनाया।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।