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December 22, 2025

भगवान के वास्तविक ज्ञान को समझोगे तो सब होगा प्राप्त, समझते हैं कि आखिर कौन हैं भगवानः आचार्य पंकज पैन्यूली

आपने भगवान का वास्तविक रूप जान लिया। तो समझ लो सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। क्या हमने कभी गम्भीरता के  साथ ये जानने की कोशिश की है कि समस्त ब्रह्माण्ड को विधिवत संचालित करने वाले परमात्मा का अस्तित्व क्या है?

आपने भगवान का वास्तविक रूप जान लिया। तो समझ लो सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। क्या हमने कभी गम्भीरता के  साथ ये जानने की कोशिश की है कि समस्त ब्रह्माण्ड को विधिवत संचालित करने वाले परमात्मा का अस्तित्व क्या है? शायद नही। हाँ हम धारणात्मक और भावनात्मक रूप से अवश्य भगवान को मानते हैं और पूजा,अर्चना भी करते हैं। इसके बावजूद एक सवाल ये है कि भगवान कहते किसे हैं। भगवान का स्वरूप क्या है? भगवान का कार्य क्या है? भगवान का स्वभाव कैसा है? अधिकांश लोग नही जानते।जो लोग जान लेते हैं, उनके जीवन की दिशा और दशा ही बदल जाती है। पारलौकिक यात्रा भी सुधर जाती है। (जिसे शास्रों में मोक्ष कहते हैं)। तो आइए यहां आचार्य पंकज पैन्यूली से आज हम जानेंगे कि यथार्थ में भगवान कहते किसे हैं। भगवान का स्वरूप क्या है।
मनुष्य और भगवान का संबंध
उससे पहले हमारे लिए यह जानना भी आवश्यक कि मनुष्य मात्र का भगवान से क्या संबंध है। धर्म ग्रन्थों के अनुसार जीव (मनुष्य) भगवान का अंश हैं। यथा-ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी। (राम चरित मानस)। ममैवांशो जीवलोके जीव भूतः सनातनः। मनः षष्ठानीन्द्रियाणी प्रकृतिस्थानि कर्षति। ( श्रीमद् भागवत गीता)।        भावार्थ-यह है कि जीव (मनुष्य)भगवान का अंश है। अंश अर्थात “ईश्वरीय तत्त्व” का एक अति सूक्ष्मतम भाग या अति सूक्ष्मतम हिस्सा है! जिसे “आत्मा” कहते हैं। वस्तुतः मनुष्य मात्र की देह/शरीर में भगवान प्राण रूप में, चेतन रूप में विद्यमान रहकर उसे शारीरिक,ऐन्द्रिक मानसिक और बौद्धिक चेतना प्रदान करते हैं। जैसे ही पंच भौतिक शरीर से इश्वरीय चेतना निकल जाती है तो शरीर पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाता है। वस्तुतः मनुष्य हो या अन्य कोई प्राणधारी जीव। उसके अस्त्तित्व का, मूल जो मूल आधार “प्राण तत्त्व”  या “चेतन तत्त्व”है। वह उसे भगवान से ही प्राप्त होता है। जिसे “अंश” “आत्मा” और “प्राण” कहते हैं। इस प्रकार जीव मात्र का ईश्वर से “आत्म” संबंध अथवा “प्राण” संबंध सुनिश्चित होता है।
भगवान की व्याख्या
पाराशर मुनि भगवान शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि-समस्त धन, शक्ति, यश, सौन्दर्य, ज्ञान, तथा त्याग से युक्त परम् पुरुष भगवान कहलाता है। अन्यथा वह इन्सान ही है। संसार में ऐसे अनेकानेक व्यक्ति मिल जायेंगे, जो किसी क्षेत्र विशेष में अति प्रतिभावान होते हैं। जैसे-कोई अति ज्ञानी हो सकता है, अद्वितीय विद्वान हो सकता है, अति ताकतवर हो सकता है, अति विख्यात हो सकता, अति धनवान हो सकता है, अति सुंदर हो सकता है। ये सारे के सारे गुण भगवान के अलावा किसी इन्सान में हो ऐसा संभव ही नही हो सकता। अर्थात भगवान उसे ही कहते जो सम्पूर्ण होता है। श्रीकृष्ण में उपरोक्त सभी सद्गुण विद्यमान थे। तभी वे भगवान कहलाये।
भगवान का स्वरूप
शास्त्रों में भगवान के स्वरूप को तीन प्रकार से प्रस्तुत किया गया है। 1.रूप परिचय, 2.कार्य परिचय, 3.स्वभाव परिचय। यथा- सचिदानन्द रूपाया विश्वोपत्यादी हेतवे। ताप त्रय विनाशाया श्री कृष्णाय वयं नुमः। (श्रीमद्भागवत)। सबसे पहले चर्चा करेंगे कि भगवान का “रूप” कैसा है। रूप का सामान्य अर्थ भौतिक अस्तित्व के सन्दर्भ में होता है। जैसे- शारीरिक आकृति, कद, काठी, रूप सौन्दर्य आदि। भगवान का जो “रूप” परिचय उपरोक्त सभी से भिन्न है। शास्त्रों में भगवान का रूप बड़े ही अद्भुत और सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत किया है। यथा-1.भगवान “सत रूप” हैं। 2.भगवान “चित रूप” हैं। 3. भगवान “आनन्द रूप” हैं।
सबसे पहले भगवान का “सत रूप”समझेंगे
“सत” अर्थात सत्य। कौन सा सत्य? जो शाश्वत है, अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है। अर्थात दृश्यमान सृष्टि जब नहीं थी, तब भी जो मौजूद था। जो सृष्टि का निर्माण, पालन और संचालन करने वाला है। जब दृश्यमान सृष्टि का विलय हो जायेगा। तब भी जिसकी सत्ता विद्यमान रहती है। यथार्थ में उसे ही सत्य कहते हैं। वो कौन हैं? वो ही भगवान हैं। तीनों कालों में भगवान की इस उपस्थिति को ही “सत रूप” कहते हैं। अन्यथा संसार में जितने भी जीव, जन्तु, विषय, वस्तु व पदार्थ हैं, वे सब के सब  विनाशशील हैं। अर्थात असत्य हैं। इसिलए कहा गया कि  “ब्रह्म सत्य जगन्नामिथ्या”।
भगवान का “चित रूप”
चित अर्थात चेतनता। चित अर्थात प्राण। यानी जो जगत के सम्पूर्ण प्राणियों में प्राण रूप में, अंश रूप में विद्यमान हैं। तथा निर्जीव पदार्थों में तत्त्वरूप में, सार रूप में, क्रिया रूप में हैं। ऐसे सर्वचैतन्यमय भगवान के इस रूप को चित कहते हैं। वस्तुतः भगवान जगत के हर मनुष्य से लेकर जीव, जन्तु के भीतर प्राण रूप में और पदार्थों में क्रिया रूप में हर क्षण, हर पल विद्यमान है।”यतस्यत सर्वत्र सर्वदा”।।
भगवान का आनंद रूप
सामान्यतः सांसारिक व्यवहार में खुशी और प्रसन्नता के क्षण में होने वाली सुखद अनुभूति को हम आनन्द मान लेते हैं। यथार्थ में यह आनन्द का वास्तविक रूप नहीं है। वास्तविक आनन्द तो परमात्मा का रूप है। जिसका लाभ योगी, यति और भगवान के भक्त लेते हैं। जिसकी एक बार प्राप्ति होने पर वह भक्त के चित्त में स्थिर हो जाता है। जिसके सामने जगत के समस्त संसाधन, अतुलनीय वैभव, पद, प्रतिष्ठा तुच्छ और गौंण लगती है। इसी को आत्मलाभ कहते हैं। इस संदर्भ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि-आत्म लाभत परम लाभं न विद्यते। आत्म सुखं परम सुखं न विद्यते।।
भगवान के कार्य
रूप परिचय के बाद भगवान का कार्य परिचय आता है कि भगवान करते क्या हैं। वैसे तो भगवान को और भगवान की कार्यशैली को समझना अति दुर्लभ है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार भगवान का मुख्य कार्य इस रहस्यमय संसार की रचना करना है! जिसमें मनुष्य जाति से लेकर सभी प्रकार के जीव, जन्तु, वस्तु, पदार्थ मौजूद हैं। तत्पश्चात सम्पूर्ण संसार का संचालन करना,पालन करना और युग-युगान्तर में संसार का संहार करना आदि ये भगवान का मुख्य कार्य है।
भगवान का स्वभाव
भगवान के स्वभाव के बारे में सभी पुराणों में, शास्त्रों में, वेदों में एक ही बात दोहराई गई है कि  भगवान शरणागत दीनवत्सल हैं। अर्थात जो व्यक्ति उनकी शरण ग्रहण करता है, भगवान उसके दुःख, रोग, शोक, कष्ट, विपत्ति आदि को क्षण भर में दूर कर लेते हैं। भविष्य में भी उसके ऊपर कोई कष्ट न आये, ऐसी सम्भावनाओं से भी उसको मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार भगवान के स्वरूप का एक संक्ष्पित परिचय मात्र है। अन्यथा भगवान अनन्त और असीम है। उनको किसी एक निश्चित सीमा में परिभाषित नही किया जा सकता।

आचार्य का परिचय
आचार्य पंकज पैन्यूली
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक गुरु, संस्थापक भारतीय प्राच्य विद्या पुनुरुत्थान संस्थान ढालवाला। कार्यालय-लालजी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स मुनीरका, नई दिल्ली। शाखा कार्यालय-बहुगुणा मार्ग पैन्यूली भवन ढालवाला ऋषिकेश, जिला देहरादुन, उत्तराखंड।
सम्पर्क सूत्र-9818374801,,,,8595893001

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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