कैसी ये माया, कैसे ये लोग, अंत समय आने पर साथ छोड़ रहे अपने लोग
छल, कपट, लोभ, मोह, द्वेष ये सभी बुराइयां ही मानव को पतन की तरफ ले जाती हैं। ऐसा नैतिक शिक्षा की किताबों में भी लिखा होता है और समाज सुधार का सपना देखने वाले भी हर व्यक्ति को जीवन की इस सच्चाई से अवगत कराते रहते हैं।

पंजाब के किसी जिले के एक गांव में रहने वाला ज्ञानू बचपन में ही चेचक की बीमारी के चलते दृष्टिहीन हो गया था। सिख पिता की खेती थी। जमीन जायजाद थी। वे ज्ञानू को लेकर देहरादून आए और उन्होंने उसे पढ़ाने के लिए दृष्टिहीनों के विद्यालय में दाखिला करा दिया। ज्ञान की जिंदगी बदलने लगी। होनहार बालक में वह शुमार होने लगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद उसकी बतौर प्रशिक्षक सरकारी विभाग में नौकरी भी लग गई। पहले दूसरों पर जो निर्भर था, वह अपने पांव में खड़ा हो गया। ज्ञानू काफी सफाई पसंद था। वह हमेशा अपने घर में खुद ही झाडू-पौछा करता, खुद की कपड़े धोता, खुद ही अपना खाना बनाता और खुद ही बर्तन साफ करता। उसके कपड़े देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि वह दृष्टिहीन है।
ज्ञानू को आस पड़ोस पर उसके परिचित सभी लोगों ने यही सलाह दी कि वह शादी कर ले। अभी वह खुद ही कामकाज कर लेता है, लेकिन दुख बीमारी की अवस्था में पत्नी का होना भी जरूरी है। साथ ही बच्चे होंगे तो भविष्य की चिंताएं कम हो जाएंगी। ज्ञानू के पिता कभी-कभार उससे मिलने चले आते थे और वह भी साल दो साल में पंजाब में अपने गांव जरूर जाता था। उसके भाई नहीं चाहते थे कि ज्ञानू शादी करे और अपना घर बसाए। उन्हें तो ज्ञानू दुधारु गाय के समान प्रतीत होता था। जब चाहे उससे मदद के नाम पर पैसे मांगा करते थे। शादी होगी तो फिर उन्हें भी मदद की उम्मीद नहीं थी। ऐसे में वे ज्ञानू को शादी के नाम से हमेशा डराते रहते थे।
ज्ञानू ने अपने दफ्तर से लेकर आस-पड़ोस के लोगों को अपनी इच्छा बता दी थी। वह भी शादी की जरूरत महसूस कर रहा था। सीधी-साधी ऐसी लड़की वह चाहता था, जो उसका हाथ पकड़कर पथ प्रदर्शक बन सके। बात काफी पुरानी है। करीब 1972 की। मोहल्ले का एक व्यक्ति एक दिन ज्ञानू के पास पहुंचा। उसने ज्ञानू से कहा कि उसके गांव में एक महिला है। जो विधवा है। काफी गरीब है। यदि वह चाहे तो उसके ससुराल व घरवालों को कुछ पैसा देकर वह उससे विवाह के लिए राजी कर सकता है।
ज्ञानू ने उसकी बात मान ली और उसे उस समय के हिसाब से इस काम के लिए मुंहमांगी रकम भी दे दी। एक दिन वह व्यक्ति एक महिला को ज्ञानू के घर ले आया। उस ग्रामीण महिला की बोली भी जल्दी से किसी के समझ तक नहीं आती थी। पहनावे के तौर पर उसने एक कंबल रूपी लबादा पहना हुआ था। मानो वही उसकी धोती या साड़ी है। मोहल्ले में यही चर्चा थी कि उक्त व्यक्ति महिला को बहला-फुसला कर भगा कर साथ लाया है।
अनपढ़, गंवार महिला को जीवनसाथी बनाना ज्ञानू के लिए चुनौती भरा काम था। उसे उसकी पुरानी जिंदगी के कुछ लेना देना नहीं था। उसने उसे घर की सफाई करना, खाना बनाना आदि सारा काम सिखाया और वह उसका हाथ पकड़कर उसे बाजार, दफ्तर आदि ले जाया करती थी। मंगतीदेवी नाम की यह महिला जब ज्ञानू के घर आई तो कई बार उसका ज्ञानू से झगड़ा हो जाता। तब ज्ञानू उसे समझाने के लिए पिटता भी था। जब वह उसकी पिटाई करता तो मंगतीदेवी अपने कपड़े बदलकर वही कंबल पहन लेती, जिसे पहनकर वह गांव से ज्ञानू के घर आई थी।
वह घर से भागती और ज्ञानू उसे पड़ोसियों की मदद से तलाश करता। फिर घर लाता, समझाता। यह ड्रामा अक्सर होता रहता था। पड़ोस में रहने वाली पंडिताईन की ज्ञानू काफी इज्जत करता था। पंडिताइन ने उसे समझाया कि पत्नी को मारा मत कर। वर्ना तूझमें और जल्लाद में क्या फर्क रह जाएगा। ज्ञानू ने कहा कि यह बात-बात पर भागने की धमकी देती है। पंडिताइन ने कहा कि यह अपना कंबल लेकर जाने लगती है। इस कंबल को ही फेंक दे। साथ ही पंडिताइन ने मंगतीदेवी को भी समझाया। इसका असर यह हुआ कि ज्ञानू ने कंबल ही जला दिया। साथ ही मंगतीदेवी को पीटने से तौबा कर ली और मंगतीदेवी ने भी फिर कभी घर से भागने का नाटक नहीं किया।
समय तेजी से बीत रहा था। जब ज्ञानू के घर मंगतीदेवी का प्रवेश हुआ तब ज्ञानू की उम्र करीब चालीस साल व मंगतीदेवी की उम्र 35 साल रही होगी। समय के साथ ही मंगतीदेवी में भी परिवर्तन आया। वह सफाई पसंद महिला बन गई। हालांकि उनकी कोई औलाद नहीं हुई। नाश्ता-पानी कर सुबह ज्ञानू दफ्तर जाता। दोपहर को लंच टाइम पर खाना खाने घर आता। इससे पहले मंगतीदेवी घर की सफाई व भोजन आदि तैयार कर रखती थी। शाम को भोजन करने से पहले और बाद दोनों इवनिंग वाक के लिए घर से निकलते थे। दोनों की जोड़ी को एक आदर्श जोड़ी कहा जाने लगा। एक बार आफिस की कालोनी में लोगों के रहन-सहन व साफ सफाई को लेकर सर्वेक्षण किया गया। इसमें अफसरों से भी ज्यादा साफ सुधरा घर ज्ञानू का ही निकला और वह प्रथम पुरस्कार का विजेता भी बना। यह सब मंगतीदेवी की लगन व सीखने की इच्छा शक्ति का ही नतीजा था।
साठ साल की उम्र तक पहुंचने व सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति से पहले ही ज्ञानू ने एक छोटा सा अपनी जरूरत के मुताबिक मकान बना लिया। सेवानिवृत्ति के बाद उसे विभिन्न जमा पूंजी व फंड का काफी पैसा मिला। बस यहीं से इस दंपती पर गिद्ध दृष्टि पढ़ने लगी। रिटारमेंट के बाद ज्ञानू ने तय किया कि वह देहरादून में ही अपने मकान में रहेगा। साथ ही कभी-कभार पंजाब में गांव में जाकर अपनी पुस्तैनी जमीन व जायदाद पर भी नजर रखेगा।
पत्नी को लेकर वह कुछ माह के लिए पंजाब गया। वहां का माहौल उसे कुछ अटपटा लगा। उसके सगे भाइयों को पता था कि ज्ञानू के पास काफी पैसा है। ऐसे में वे उस पर दबाव बनाने लगे कि मंगतीदेवी को छोड़ दे। हम तेरी सेवा करेंगे। ज्ञानू को महसूस होने लगा कि यदि वह ज्यादा दिन अपने सगों के बीच रहा तो कहीं उसके साथ कुछ अनर्थ न हो जाए। जिस महिला ने उसका बीस साल से साथ निभाया हो, उस जीवन साथी को वह क्यों भला छोड़ेगा। इस दंपती पर पहरेदारी रखी जाने लगी। एक दिन ज्ञानू मौका देखकर चुपचाप से अपनी पत्नी को लेकर देहरादून वापस चला आया। ज्ञानू आस पड़ोस के लोगों को अपने सगे संबंधियों का हाल जब सुनाता था तो सिहर उठता था। उसका यही कहना था कि यदि वह भाग कर नहीं आता तो उसके अपने ही उसे और उसकी पत्नी को मार डालते।
करीब सत्तर साल की उम्र में ज्ञानू बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गई। अब घर में मंगतीदेवी अकेली थी। ज्ञानू को जो पेंशन मिला करती थी वह मंगतीदेवी को मिलने लगी। सब कुछ ठीक चल रहा था। फिर अचानक मंगतीदेवी के रिश्तेदार व नातेदार भी पैदा हो गए। उसकी पहली जिंदगी से उसका बेटा, बेटी आदि सभी अपनी इस मां के पास पहुंच गए। मंगतीदेवी भी काफी साफ दिल की थी। उसने सोचा कि वे उसकी औलाद ही हैं। यदि साथ भी रहेंगे तो उसकी वृद्धावस्था आराम से कट जाएगी। बेटा कुछ पैसे लेकर अलग हो गया। बेटी अपने पति के साथ मां के मकान में जम गई। बात-बात पर बेटी और जवाईं की दखल से मंगतीदेवी का जीना मुहाल हो गया। वह परेशान रहने लगी। बेटी उसे घर बेचने की सलाह देती और दबाव बनाती। इससे परेशान होकर अब मंगतीदेवी ने अपने लिए नया ठिकाना तलाश लिया। वह घरवार छोड़कर चैन की सांस लेने इस ठिकाने तक पहुंच ही गई। यह ठिकाना है वृद्धावस्था आश्रम।
भानु बंगवाल