राह चलते को लिफ्ट देकर मदद, यहां तो युवक ने कर दिया मना, पांच किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचा घर
सच ही कहा गया कि व्यक्ति जैसा कहता है, सोचता है और करता है, वैसा ही बन जाता है। अच्छा सोचो, कहो और करोगे तो भीतर से अच्छाई ही निकलेगी। इस दौड़धूप भरी जिंदगी में अब तो व्यक्ति दूसरे की मदद करने में भी कई बार सोचता है।

अक्सर बाइक से देर रात को घर लौटते समय मुझे ऐसे लोग भी मिल जाते थे, जो पैदल चल रहे होते थे और लिफ्ट मांगते थे। लिफ्ट देने में मेरा सिद्धांत था कि यदि सड़क सुनसान ना हो तो कोई बुराई नहीं है। कई बार लिफ्ट मांगने वाला सुनसान सड़क पर लूट भी सकता है। ऐसा कई बार मैं समाचार बना चुका था। फिर भी अक्सर मैं सिद्धांत को भूल जाता और पैदल चलने वाले की पीड़ा देखी नहीं जाती और लिफ्ट दे देता। एक बार देहरादून में लिफ्ट ऐसे व्यक्ति को दी जिसे मेरे घर से करीब छह किलोमीटर दूर राजपुर तक जाना था। जब मैं घर के पास पहुंचा और उससे पूछा कि आगे कैसे जाएगा तो वह बोला पैदल चल लूंगा। इस पर मैं उसे पूरा आगे छह किलोमीटर तक छोड़ने के लिए जाने लगा। इतनी देर में उसे भी हवा लग चुकी थी और उसने जो कुछ पैग लगाए थे, वे भी असर दिखाने लगे।
अब मेरी मुसीबत ये थी कि वह स्थिर नहीं बैठ पा रहा था। कभी उसे दायीं तरफ या फिर बाईं तरफ झटके आ रहे थे। कई बार वह गिरने से भी बचा। ऐसे में मैं डर गया। खैर किसी तरह धीरे धीरे बाइक चलाई। उसे राजपुर में बाइक से उतारा। इसके बाद पैंट की पीछे की जेब चेक की कि कहीं उसने हाथ साफ तो नहीं कर दिया। पूरी तसल्ली के बाद ही मैं वापस लौटा। उसने धन्यवाद बोला या नहीं, ये मुझे सुनाई नहीं दिया।
अब इसके उलट बात का जिक्र कर रहा हूं। अनजान की मदद करना आसान काम नहीं है। कई बार आप किसी की मदद करना भी चाहें तो दूसरा लेने से मना कर देता है। स्वाभिमान के चलते या फिर ऐसा डर के कारण भी होता है। एक बार मैं रात के समय आफिस से घर आ रहा था। करीब 12 बजे का समय था। सड़क पर करीब 21 साल का युवा मुझे नजर आया। उसके कंधे में बड़ा सा बैग था। सुनसान सड़क पर वह पैदल ही चल रहा था। गरमी के दिन थे। पसीने से तरबतर युवक को देखकर मुझे उस पर तरस आया।
मैने मोटर साइकिल रोकी और उससे पूछा वह कहां जाएगा। इस पर उसने देहरादून में सालावाला बताया। ये जगह मेरे घर के मोड़ से कुछ ही दूर पर थी। मैने उसे मोटर साइकिल पर बैठने को कहा। मैने कहा कि मैं उसी दिशा की तरफ जा रहा हूं। रास्ते में उसे छोड़ दूंगा। उसे कुछ ही दूर पैदल चलना पड़ेगा। युवक नहीं माना। कहने लगा कि वह स्वयं चला जाएगा। काफी जिद करने पर वह मुझ पर ही गुस्सा होने लगा। उसे पैदल चलना ही मंजूर था, पर अनजान का साथ मंजूर नहीं था। यह सच ही है कि अनजान पर आजकल किसी को विश्वासन ही नहीं रहा। उसे डर था कि कहीं रास्ते में मैं उसे लूट न लूं।
कितना बदल गया यह समाज। आज किसी पर विश्वास ही नहीं रहा। लोग एक-दूसरे के विश्वास का गला काट रहे हैं। अपने ही धोखा देते हैं, तो ऐसे में उक्त युवक का मेरे साथ न चलने का निर्णय उसके हिसाब से सही ही था। उसे करीब पांच किलोमीटर दूर पैदल चलना मंजूर था, लेकिन दूसरे के साथ बैठकर रिस्क लेना मंजूर नहीं था।
रिस्क तो मैं भी ले रहा था। कई बार तो लिफ्ट लेने के बाद मदद करने वाले को ही लूट लिया जाता है। ऐसे में तो मुझे और उस युवक को ही एक-दूसरे को अविश्वास की भावना से देखना चाहिए था। इस दिन मुझे उस युवक पर कुछ खीज जरूर हुई। मैने सोचा कि आगे से किसी परेशान व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा। क्यों करूं। क्या मैने मदद करने का ठेका लिया है। फिर मैं यही सोचने लगा कि अच्छा सोचो, अच्छा करो तो अंजाम भी अच्छा ही होता है।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।