घर आए मेहमान, बस यूं ही, पूरी बातचीत में उठता रहा सिर्फ एक सवाल, नहीं मिला जवाब
ऐसे में जिसके घर जाओ उस घर के बच्चों से लेकर जवान तक बस यूं ही, वालों को तिस्कार भरी नजरों से देखने लगे।
मैं बोखलाकर बिस्तर से उठा और बाहर को निकला। देखा सामने करीब 65 साल से अधिक उम्र का एक व्यक्ति व करीब तीस साल का एक युवक खड़े हैं। मैने अंदाजा लगाया कि वे बाप-बेटे हैं। खैर आगंतुक ने ही मुझसे पूछा कि तुम्हारा नाम भानु है। मुझे पहचाने नहीं, कहां से पहचानोगे। मैं काफी साल बाद आया हूं। तुम्हारे पिताजी से मिलने मैं आता रहता था। वे भी हमारे घर खूब आते थे। मुझे आज याद आई तो मैं आप लोगों से मिलने चला आया।
बैठक में बैठने के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पहले मैने उनकी पहचान पूछी। पता चला कि वे हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, जिन्हें मैने शायद पहले कभी नहीं देखा। या फिर देखा होगा तो मुझे याद नहीं। मेरी एक चाचीजी के वो भाई लगते थे। ऐसे में वे मेरे मामा हुए और उनका बेटा मेरा भाई। इधर-उधर की बातचीत हो रही थी और मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि वे हमारे यहां किस काम से आए हैं। क्योंकि आजकल किसी के पास इतना टाइम नहीं कि वो किसी से यूं ही मिलने चला आए। वो भी इतने सालों के बाद जब उसे कोई पहचानता नहीं हो। अक्सर जब भी कोई घर आता है तो वह घूमफिर किसी मकसद को उजागर कर देता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। मैने मामाजी से पूछा कि वह पहले कहां थे। उन्होंने बताया कि नौकरी के दौरान वे अक्सर बाहर रहे, अब रिटायर्ड हो गए हैं और देहरादून में ही मकान बनाकर रह रहे हैं।
मेरे घर में ना तो शादी की उम्र की कोई लड़की है और न ही लड़का। फिर ये सज्जन क्यों आए, यही विचार मेरे मन में उठ रहे थे। फिर लगा कि ये अपने बेटे को कहीं नौकरी दिलाने की बात छेड़ेंगे। उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की तो मैने ही चाय की चुस्कियों के दौरान उनके बेटे दीपक से सवाल किया कि तुम क्या करते हो। वह बोला पहले मैं देहरादून में किसी स्कूल में पढ़ाता था। फिर पिताजी के साथ पंजाब चला गया। वहां भी स्कूल में पढ़ाया। जब वापस लौटा तो पुराने स्कूल में उसके समय के सभी अस्थाई टीचर स्थाई हो गए। नौकरी तो लगी नहीं, लेकिन अब प्रापर्टी डीलिंग का काम कर रहा हूं। वह ठीकठाक चल रहा है।
मामाजी भी मुझसे कभी पत्रकारों के जीवन के बारे में, उनके कामकाज आदि के बारे में पूछते। फिर मुझे लगा कि शायद इन्हें बेटी का रिश्ता किसी पत्रकार से तो नहीं कराना है। ऐसे में पत्रकारों के बारे में पूछकर मुझे टोह रहे हों। मैने भी पत्रकारों की मौजी लाइफ की जगह वे सच्चाई बताई, जिसे सुनकर कोई भी पत्रकार बनने का साहस नहीं कर सके। हर समय टेंशन, खाना खाना भूल आजो, नौकरी का भरोसा नहीं, रात को यह पता नहीं कि कितने बजे बिस्तर नसीब हो, जितना करो वह कम है, छोटी सी चूक हो गई तो वर्षों की मेहनत से जो इमैज तैयार की उस पर बट्टा लगना तय है।
फिर मेरे मन में वही सवाल उठ रहा था कि क्या बाप-बेटे यूं ही मिलने चले आए। पिताजी को ही मामाजी जानते थे। पिताजी की मौत वर्ष 2000 में हो गई थी। तब से 14 साल हो गए। हां मेरे पिताजी काफी मिलनसार थे। वे जब नौकरी में थे तो छुट्टी के दो दिन अक्सर किसी न किसी के घर जरूर जाते थे। तब पलटकर लोग भी हमारे घर आते थे। जब वह रिटायर्ड हुए तो यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक वह चलने-फिरने में समर्थ रहे। उनकी मौत के बाद यूं ही मिलने को घर आने वाले भी गायब हो गए। अब तो जो भी आता है वह किसी न किसी काम के ही आता है। हां यूं ही मिलने वाले वे तो जरूर आते हैं, जो पहले से ही नियमित आ रहे हैं। जैसे मेरी बहने, जीजा, मांजा या ससुराल पक्ष के वे लोग जिनसे हम फोन से भी संपर्क में रहते हैं।
अब मुझे लगा कि शायद ये मामाजी यह कहेंगे कि बेटा यदि कोई जमीन बेचेगा या खरीदेगा तो हमें ही बताना, लेकिन उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। किसी का समाचार या विज्ञापन छपवाने को भी नहीं कहा। क्योंकि अक्सर मेरे घर आने वाले घूमफिर कर बात करने के बाद कुछ न कुछ ऐसा काम बताते हैं, जो कहीं सिफारिश करने वाला होता है। ऐसों को मैं भी एक कान से सुनकर टाल देता हूं। हां यदि किसी की बात जायज होती है तो यह सलाह जरूर देता हूं कि उन्हें क्या करना चाहिए।
वैसे मैं नियमों से चलने मैं ही विश्वास करता हूं और दूसरा मुझे शायद मूर्ख समझता है। वैसे तो आजकल सामने वाला दूसरे को मूर्ख ही समझता है। बॉस कर्मचारी को मूर्ख मानता है और कर्मचारी बॉस को। एक पत्रकार दूसरे को हमेशा मूर्ख ही बताता है। वह दूसरे की खूबियां कभी सहन नहीं करता। वह सोचता है कि सबकुछ जैसे वही जानता है। कुछ देर बाद यह कहकर दोनों उठे कि अच्छा चलते हैं, हमारे घर भी आना। हां घर की लोकेशन उन्होंने जरूर बताई। मैने दीपक को अपना मोबाइल नंबर दिया। फिर वे चले गए।
उनके जाने के बाद मैं फिर यही सोचने लगा कि आखिर वे दोनों क्यों आए। इसका जवाब मुझे नहीं मिला। खैर वे चले गए और मुझे उनका आना अच्छा लगा। मैं दोबारा बिस्तर में लेटा कि फिर गेट बजा। अबकी बार गांव का एक परिचित आया। जो किसी के बेटे की शादी का कार्ड देने के लिए आया था। वह घर भी बैठा नहीं। अभिवादन के बाद कार्ड थमाकर चलता बना। चाय की काफी जिद करने के बाद भी वह रुका नहीं। क्योंकि यूं हीं आने के लिए शायद उनके पास टाइम नहीं था और उनके जाने के बाद मेरे पास भी सोने का टाइम नहीं बचा। फिर भी मुझे उनके आना काफी अच्छा लगा। लगा कि मैें बचपन में चला गया। जब हम भी पिताजी के साथ परिचितों के घर बस यू हीं, चले जाते थे। बस यूं ही किसी के घर जाना छुट्टी के दिन रविवार को ही ज्यादा होता था। फिर टेलीविजन आया और रविवार के दिन दूरदर्शन में फिल्म दिखाई जाने लगी। ऐसे में जिसके घर जाओ उस घर के बच्चों से लेकर जवान तक बस यूं ही, वालों को तिस्कार भरी नजरों से देखने लगे। कारण कि उनकी फिल्म का मजा खराब हो जाता था। ऐसे में बस यूं ही, वालों की संख्या कम होती चली गई। उस दिन से लेकर आज तक बस यूं ही वालों का इंतजार कर रहा हूं।
भानु बंगवाल
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।