असली मसाण पानी मेंः तब भी कटी बलि के बकरे की गर्दन
गढ़वाल के एक जनपद की एक सुनसान व उबड़-खाबड़ सड़क पर बड़े साहब की कार दौड़ रही थी। रात के करीब साढ़े 11 का वक्त था। पथ प्रकाश की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। दूरस्थ गांव में समस्याओं को लेकर ग्रामीणों के साथ बैठक कर साहब तक वापस मुख्यालय लौट रहे थे। लौटते वक्त कुछ ज्यादा देर हो गई। कहीं दूसरी जगह रात बिताने की बजाय वह अपने बंगले में ही पहुंचना चाहते थे।
तभी हल्की बारिश शुरू होने पर चालक को वाहन चलाने में दिक्कत होने लगी। स्पीड हल्की कर वह अंधेरे में आगे तक सड़क देखने का प्रयास कर रहा था। तभी सफेद कपड़ों में सुनसान राह में एक व्यक्ति उन्हें नजर आया। इस व्यक्ति ने हाथ में एक रस्सी पकड़ी थी। इससे एक बकरा बंधा था। व्यक्ति जबरन बकरे को खींच कर ले जा रहा था, जबकि रात को बकरा आगे बढ़ने से शायद इंकार कर रहा था। ऐसे में वह कई बार एक ईंच भी आगे नहीं सरक रहा था।
इस दृश्य को देख बड़े साहब की उत्सुकता बढ़ गई। उन्होंने चालक से गाड़ी रोकने को कहा। चालक ने गाड़ी रोकी तो बड़े साहब नीचे उतरे और उक्त व्यक्ति के पास पहुंचे। उन्होंने पूछा- तुम कौन हो और इतनी रात को कहां जा रहे हो।
जवाब में वह व्यक्ति बोला- मैं पंडित हूं और शमशान घाट जा रहा हूं। मुसाण पूजन करना है।
पहाड़ में सिर्फ व्यक्ति दो ही चीज से डरता है। इनमें एक है गुलदार और दूसरा है भूत। दिन हो या रात, गुलदार किसी भी भरे पूरे परिवार के किसी भी सदस्य पर मौत का पंजा मार देता है। कई बार तो गांव के गांव बच्चों व बूढ़ों से खाली होने लगते हैं। साथ ही महिलाएं भी उसका शिकार बनती हैं। अक्सर गुलदार बीमार, बूढ़े, बच्चों, महिलाओं को आसानी से शिकार बना लेता है। किसी हैजा की तरह गुलदार का आतंक एक गांव में पसरता है तो यह बढ़कर आसपास के कई गांवों तक पहुंच जाता है। सांझ ढलते ही लोग घरों में दुबकने को मजबूर होने लगते हैं। बच्चों को हमेशा बड़ों की नजर में रखा जाता है, लेकिन किसी छलावे की तरह गुलदार कभी भी झपट्टा मारकर अपनी भूख मिटाने में कामयाब हो जाता है।
गुलदार के बाद पहाड़ों में लोग यदि डरते हैं तो वह है भूत। इस भूत के भी कई नाम होते हैं। जो स्थान व गांव बदलने के साथ ही बदल जाते हैं। कहीं उसे मसाण के नाम से जाना जाता है, तो कहीं खबेश कहते हैं। कहीं देवता का प्रकोप तो कहीं कुछ ओर। भूत या मसाण का आतंक भी गुलदार की तरह है। कभी किसी गांव में कोई बीमारी फैलती है तो इसका सारा दोष मसाण पर ही मढ़ दिया जाता है। फिर डॉक्टर के पास जाने की बजाय पंडित, बाकी या तांत्रिक के पास जाकर इलाज तलाशा जाता है। इलाज करने वाले भी पक्के जादूगर होते हैं। एक बकरे की बलि या फिर अन्य टोटके अपनाते हैं। इसके बाद गांव को बीमारी से निजात दिलाने का दावा करते हैं।
पंडितजी को देखते ही बड़े साहब समझ गए कि यह भी किसी गांव की बीमारी को दूर करने के लिए मसाण पूजन को जा रहा है। उन्होंने कार को सड़क किनारे पार्क करने को कहा और चालक, अपने साथ बैठे गनर व अर्दली को साथ लेकर पंडितजी के पीछे हो गए। करीब आधा किलोमीटर पैदल मार्ग पर चलने के बाद वे एक शमशान घाट पर पहुंच गए। वहां पहले से ही कुछ ग्रामीण मौजूद थे। वह समझ गए कि अब बेजुवान की बलि दी जाएगी।
इससे पहले ग्रामीण कुछ करते बड़े साहब ने अपना परिचय उन्हें दिया और पूछा कि आपकी दिक्कत क्या है। ग्रामीण बोले कि गांव में मसाण लगा हुआ है। लोग बीमार हो रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं हो रहा है। कई ग्रामीण मर चुके हैं। कई लोग गांव छोड़कर छानियों (गांव से दूर जंगल में मवेशियों के छप्पर) में शरण ले चुके हैं। अब मसाण पूजन ही मुसीबत से बचने का एकमात्र उपाय है।
बड़े साहब ने ग्रामीणों से कहा कि तुम्हारा मसाण को मैं भगा दूंगा, लेकिन तुम भी मुझे कुछ दिन का वक्त दो। साथ ही इस जानवर की बलि आज न चढ़ाओ। मेरी बात को मानो सब कुछ ठीक हो जाएगा। पहले ग्रामीण ना नुकुर करते रहे, लेकिन साहब की सख्ती के आगे उन्हें उस रात बलि का आयोजन टालना पड़ा। अब बड़े साहब ने बकरे को राजस्व पुलिस चौकी तक पहुंचा दिया।
अगली सुबह प्रभावित गांव में खुद बड़े साहब पहुंचे। उनके साथ चिकित्सकों की टीम ने गांव में बीमार लोगों का परीक्षण शुरू किया। जल संस्थान व अन्य विभागों की टीम इस जांच में जुट गई कि गांव में बीमारी फैलने का क्या कारण है। टैस्टिंग में पानी के सेंपल फेल निकले। इस पर पता चल गया कि असली मसाण तो पानी में है।
बड़े साहब की मुहीम रंग लाई और बीमार ग्रामीण एक सप्ताह के भीतर स्वस्थ हो गए। अधिकारियों की टीम भी गांव से शहर लौट गई। इस गांव में फिर मसाण पूजन तो नहीं हुआ, लेकिन काली पूजन किया गया। उस काली का, जिसके आशीर्वाद से गांव के लोग बीमारी से छुटकारा पा गए। काली पूजन पर एक समारोह आयोजित किया गया। इस आयोजन में उस बकरे की बलि दी गई, जिसे गले में छुरी चलने से डीएम ने पहले बचाया था।
कुछ माह बाद
बड़े साहब बीमार हो गए। कई टेस्ट कराए। कोई लाभ नहीं हुआ। नामी चिकित्सकों और अस्पतालों की खाक छानने के बाद जब कोई लाभ नहीं हुआ तो लोगों ने कहा कि पूजा रोकी तो देवता का दोष हो गया। अभी भी बड़े साहब ऐसी बातों में विश्वास नहीं कर रहे थे। पत्नी बोली- एक बार पंडितों, ग्रामीणों की बात मान लो। देवता पूज लो। बड़े साहब ने सोचा-जब कोई लाभ नहीं मिल रहा है, तो शायद आस्था पर भी विश्वास कर देख लें। साहब मान गए। फिर एक दिन उसी स्थान पर पूजा करने साहब भी पहुंच गए, जहां उन्होंने बकरे को बलि से बचाया था।
(नोटः एक सच्ची घटना का कहानी के रूप में प्रस्तुतिकरण)
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।