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June 25, 2025

पूर्व पीएम राजीव गांधी की हत्या, आतंकवादी विरोधी दिवस, मीडिया का इंतजार, आतंक से सहमा बाइक सवार

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्य तिथि को आतंकवादी विरोधी दिवस व सदभावना दिवस के रूप में मनाने का केंद्र सरकार ने फैसला लिया। इस दिन सरकारी कार्यालयों व अन्य संस्थानों में आतंक के खिलाफ शपथ ली जाने लगी।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में एक बम धमाके में हुई थी। हत्या के मामले में मुख्य दोषी शिवरासन को मुख्य बैटरी खरीद कर देने के मामले में दोषी जेल में बंद एजी पेरारिवलन को 31 साल बाद 18 मई को सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया। पेरारिवलन को इस मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी। बाद में उसे उम्रकैद में बदल दिया गया था। अब जाकर उसकी रिहाई हुई। कहानी यहां से नहीं, बल्कि हत्या के बाद के वर्ष की है। जो सरकारी संस्थानों से जुड़ी हुई है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्य तिथि को आतंकवादी विरोधी दिवस व सदभावना दिवस के रूप में मनाने का केंद्र सरकार ने फैसला लिया। इस दिन सरकारी कार्यालयों व अन्य संस्थानों में आतंक के खिलाफ शपथ ली जाने लगी। बात वर्ष वर्ष 96 की है। इस दिवस को मनाने के लिए वर्ष 96 में एक आदेश सरकारी कार्यालयों में पहुंचा। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के सभी केंद्र सरकार के संस्थानों में भी इस आदेश के अनुरूप तैयारी की जाने लगी।
राजपुर रोड स्थित एक संस्थान के निदेशक ने पीके को इस कार्यक्रम के आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपते हुए उन्हें इसका संयोजक बना दिया। संस्थान के एक अनुभाग के फोरमैन पीके ने सहर्ष जिम्मेदारी लेते हुए निदेशक से यह वादा भी किया कि वह ऐसे अंदाज मे इस दिवस को मनाएंगे कि देखने वाले देखते रह जाएंगे।
कद पांच फुट। पहनावे में सूट-कोट। मोटी आवाज। ज्यादा बोलने की आदत। कुछ इस तरह के गुण थे पीके के।
पीके ने तय किया कि आतंकवादी विरोधी दिवस के दिन संस्थान परिसर में जुलूस निकाला जाएगा। इसके लिए वह पूरी मेहनत से तैयारी में जुट गए। संस्थान के हर अनुभाग में जाते और नारे से लिखी पर्ची कर्मचारियों को थमाते। उनसे कहते कि नारे ठीक से याद कर लेना। दृष्टिहीन कर्मचारियों को ब्रेल लिपी में नारे लिखकर दिए गए। नारों से लिखे बैनर व तख्तियां खुद पीके ने अपने घर में ही तैयार किए। इस काम में उनकी मदद पत्नी व बच्चों ने भी की।
पीके जिस संस्थान में काम करते थे, तब वहां कोई मजदूर यूनियन कभी गठित नहीं हो पाई। गठित करने के कई बार प्रयास हुए, लेकिन ये प्रयास परवान नहीं चढ़ सके। हालांकि करीब 45 साल पूर्व तक मई दिवस के मौकों पर यहां के कर्मचारी शहर में निकाले जाने वाले जुलूस में भागीदारी करते थे। यही नहीं, ऐसे जुलूस में वे अपने बच्चों को भी शामिल करते थे। धीरे धीरे कर्मियों ने इन जुलूसों में भागीदारी भी कम कर दी। मैनेजमैंट का कर्मियों पर हमेशा खौफ रहता था। हरएक ही लोकतांत्रिक तरीके से उठाई गई आवाज को दबा दिया जाता। इस काम में पीके जैसे लोग भी खुफिया तंत्र की भूमिका निभाते थे।
हर कर्मचारी की रिपोर्ट पीके जैसे लोग ऊपर तक भेजते थे। ऐसे में कर्मचारियों के बीच पीके का आतंक बना रहता था। नारे कैसे लगाए जाते हैं। जुलूस कैसे निकलता है। इन सब बातों से संस्थान के कर्मचारी अनभिज्ञ थे। पीके को भी यह भय था कि कहीं जुलूस में कर्मचारी कुछ गड़बड़ न कर दें। फिर भी वह दस दिन पहले से ही जुलूस की तैयारी में जुटे थे।
आखिरकार वह दिन आ ही गया। 21 मई की भरी दुपहरी को संस्थान परिसर में जुलूस निकाला गया। सबसे आगे महिलाओं को रखा गया। उनके हाथों में बैनर व नारे लिखी तख्तियां थीं। साथ ही पीके ने व्यवस्था की कि जुलूस में शामिल लोग दो की पंक्ति में रहेंगे। इससे जुलूस लंबा नजर आएगा। कर्मचारियों ने पहले कभी नारे नहीं लगाए थे। ऐसे मे वे नारे लगाते झेंप रहे थे। पीके उन्हें जोश में नारे लगाने की हिदायत दे रहे थे। कर्मचारियों के गले कम्युनिष्टों की भांति साफ नहीं लग रहे थे। ऐसे में कार्मिकों की आवाज में जोश की बजाय खानापूर्ति नजर आ रही थी।
संस्थान परिसर का चक्कर काटने के बाद पीके की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इसका कारण यह था कि निमंत्रण के बावजूद प्रेस रिपोर्टर व छायाकार समय पर नहीं आए। उनके आने से पहले वह जुलूस समाप्त करना नहीं चाहते थे। ऐसे में जुलूस को संस्थान परिसर से आगे बढ़ाकर मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर ले गए। कर्मचारी गर्मी से बेहाल थे। वे जुलूस को समाप्त करने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन पीके तो जुलूस को आगे ही बढ़ाए जा रहे थे। कभी वह जुलूस में शामिल महिलाओं को निर्दश देते हुए सबसे आगे पहुंचते, तो कभी पीछे के लोगों में उत्साह भरने उनके पास पहुंच जाते। यानि उनकी भागदौड़ पहली पंक्तिवालों से लेकर अंतिम में खड़े लोगों तक हो रही थी। व्यस्तम मार्ग के एक हिस्से में जुलूस, दूसरी तरफ वाहनों का रेला चल रहा था।
मुख्य मार्ग पर ट्रैफिक भी था। ऐसे में कर्मचारी संभलकर चल रहे थे। पीके सबसे पीछे चल रहे कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाने के लिए उनके पास पहुंचे। तभी उनकी नजर सामने एक पेड़ पर पड़ती है। पेड़ की डाल पर चढ़कर एक प्रेस छायाकार जुलूस की फोटो खींच रहा था। ये प्रेस फोटोग्राफर भी कमाल के होते हैं। एक एंगिल की तलाश में वे खुद को खतरे में डाल देते हैं। ऊंचाई पर चढ़कर एक क्लिक के चक्कर में वह फोटोग्राफर जूते उतारकर ऊंचे पेड़ पर चढ़ा हुआ था।
पीके की नजर उस पर प्रेस फोटोग्राफर पड़ी तो वह खुश हो गए। उस वक्त पीके सबसे पीछे थे। ऐसे में वह फोटो में खुद को शामिल करने के लिए जल्द ही सबसे आगे पहुंचना चाहते थे। वह फोटोग्राफर की तरफ इशारा करते हुए जोर से चिल्लाए–ठहरो। इसके साथ ही उन्होंने आगे पहुंचने के लिए सड़क पर दौड़ लगा दी और तभी……
सड़क के बीच गोल दायरे में कर्मचारियों की भीड़ लगी थी। बीच में पीके बेहोश पड़े थे। अब नारों से लिखी तख्तियों से महिलाएं पीके साहब को हवा कर रही थीं। पानी की छींटे पीके के मुंह पर डाले जा रहे थे। राह चलते लोगों की भीड़ भी मौके पर जमा होने लगी। एक व्यक्ति ने एक कर्मचारी से पूछा कि क्या हुआ। इस पर कर्मचारी ने बताया कि पीके को एक मोटर साइकिल सवार ने सामने से टक्कर मार दी और वह बेहोश हो गए। राहगीर ने पूछा कि मोटर साइकिल सवार का क्या हुआ। जवाब मिला उसके भी चोट लगी है। पैर की हड्डी टूट गई है। पीके के होश में आने के बाद उससे भी निपटा जाएगा। सभी पीके को होश में लाने में जुटे थे। वहीं, बेचारा मोटर साइकिल सवार को पूछने वाला कोई नहीं था। वह सड़क के किनारे जमीन पर बैठा दर्द से कराह रहा था। साथ ही वह आतंक विरोधी दिवस मनाने वालों के आतंक से थर-थर कांप रहा था।

भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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