पहले बंदूक थाम कर की देश सेवा, अब प्रभु भक्ति में लीन होकर कर रहे श्रद्धालुओं की सेवाः भूपत सिंह बिष्ट

उत्तराखंड की देवभूमि में एक से बढ़कर एक नैसर्गिक, दिव्य और अध्यात्मिक स्थल मौजूद हैं। इस हिमालय अंचल में भ्रमण के दौरान विलक्षण उत्तराखंडी विभूतियों से मिलने के अवसर भी मिलते हैं। सेममुखेम में विराजमान अस्सी वर्षीय स्वामी कुलानंद सरस्वती जी से मुलाकात ऐसा ही एक दैवीय संयोग बना है। फौजी बाबा नाम से प्रचलित कुलानंद सरस्वती ने पहले बंदूक थामकर देश की सेवा की। अब प्रभु भक्ति में लीन रहते हैं।
उत्तराखंड के टिहरी जिले में सेममुखेम सबसे प्रमुख नाग मंदिर हैं। यह टिहरी जनपद की प्रतापनगर तहसील में स्थित है। सेममुखेम पहुंचने के लिए लंबगांव मुख्य पड़ाव है। लंबगांव आने के लिए ऋषिकेश – चंबा होते हुए से डोबरा चांठी पुल से या चिन्याली सौड़ या उत्तरकाशी की ओर से अब मोटर मार्ग का जाल बिछ गया है। लंबगांव के तंग बाजार से होकर सेममुखेम मार्ग खेतों की हरियाली और भरपूर प्राकृतिक छटा से होकर मुखेम गांव पहुंचता है।
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री सेमवाल के साथ सेममुखेम दर्शन का कार्यक्रम औचक रहा। बिना तैयारी और वस्त्र हम ऋषिकेश से सेममुखेम की ओर निकल पड़े। 9 मार्च को बारिश होने से प्रतापनगर तहसील में पहाड़ की ठंड लौट आई। मुखेम गांव पार कर हम सीधे मेला मैदान तक पहुंच गए थे। करोड़ों की लागत से बने नये टूरिस्ट भवन को अभी उदघाटन के लिए किसी नेता का इंतजार है और तब तक यात्री इधर उधर भटकने को विवश हैं।
बूंदाबांदी के बीच रात्रि विश्राम के लिए हम कुलानंद आश्रम खोजने में सफल रहे और अंधेरी रात में बाबा ने हम टार्च की रोशनी में एक कमरे में पहुंचाकर शरण दी। दो दिन से बिजली गायब थी। हमने ठंड से बचने के लिए पास के दूसरे बिस्तरों को भी समेट लिया। ऐसे में चाय की व्यवस्था ने हमारे थकान दूरकर दी और आत्म विश्वास को लौटाने का काम किया।
संयोग से तभी बिजली आई तो बाबा कुलानंद जी ने संतोष व्यक्त कर हमारे स्नान के लिए गीजर आन कर दिया। सेवादार बिस्तर पर खाना लाने का प्रस्ताव दे रहे थे लेकिन हमने भोजनालय का रूख किया। बाबा जी और अन्य खाना खा चुके थे। फिर भी हमारे लिए खाने की दुबारा व्यवस्था हुई। दाल, सब्जी और रोटी का प्रसाद मिला। बाबा जी ने मोटी रोटियां बनाने के लिए आलोचना की, लेकिन हरी सब्जी का स्वाद अनुपम था।
बाबा जी ने सुबह सेममुखेम के दर्शन के बाद लाटते हुए सेममुखेम कथा सुनने व दिन का भोजन करके जाने का अनुरोध किया। सुबह आंख खुली तो निर्माणाधीन सदानंद आश्रम का भ्रमण किया। पहले आश्रम में मिट्टी की कुटिया थी जो अब आरसीसी का आकार ले रही हैं। एक पुश्ता ठीक से नींव न होने पर क्षतिग्रस्त हुआ है। एक गौशाला, गोबर गैस प्लांट, यात्रियों के लिए छह से अधिक स्नानघर, पानी की टंकियां, भंडारे के लिए विशाल बर्तन, आटा पीसने की चक्की, एक बड़ा स्टोव, सोलर संयत्र रोशनी व पानी गर्म करने के लिए, पोलीहाउस में खेती आदि सब आश्रम की आधुनिकता का परिचय दे रहे हैं।
एक हालनुमा कमरे में स्वामी कुलानंद सरस्वती नित्य अराधना और प्रवचन करते हैं। स्वामी की कर्मठता से उनके निराले व्यक्तित्व का पता चल जाता है। स्वामी कुलानंद सरस्वती का जन्म 1940 में हुआ। वह मुखेम के समीप सदड़गांव के मूल निवासी हैं। 1960 में फौज मे भर्ती हुए। चीन और पाकिस्तान की लड़ाई में भाग लिया। लगभग 28 साल भारतीय फौज में रहे और 1988 में मेडिकल बोर्ड ने रिटायरमेंट की। पूरा भारत घूम चुके हैं।
आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में भारतीय फौज ने महति भूमिका निभायी है और फौजी कुलानंद चमोली ने अपना हर संभव योगदान किया है। स्वामी कुलानंद याद करते हुए बताते हैं कि फौज ही नहीं, हर जगह दो किस्म के लोग मिलते हैं। एक सिर्फ खाने की फिक्र करते हैं और दूसरा काम करते हुए खाना भी भूल जाते हैं।
अस्सी वर्षीय कुलानंद सरस्वती 2005 से अब सेममुखेम और यहां आने वाले तीर्थयात्रियों की सेवा में जुटे हैं। अब अपने अतीत की जगह सेममुखेम की महिमा का वर्णन करना रुचिकर मानते हैं। सेममुखेम की कथा का विस्तार से वर्णन करते हुए वो श्री कृष्ण को एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में चित्रित करते हैं। गंगू रमोला द्वारा स्थान न देने पर देवता डांडा नागरजा पौड़ी प्रस्थान करते हैं। फिर मान मनुहार से लौटकर शतराजुसौड़ में शतरंज खेली, झूला झूला और हिडम्बा राक्षसी का वध करते हैं। कुलानंद सरस्वती ने श्री नागचालीसा लिखा है और अन्य पुस्तकों में वो सेममुखेम के महत्व को संग्रहित कर रहे हैं।
इस से पूर्व कुलानंद चमोली देहरादून में रह रहे थे। फौज से सेवानिवृत्त होने के बाद देहरादून में विजयपार्क में आशियाना था। एक बेटा आज विदेश में समृद्ध कंप्यूटर विशेषज्ञ है और दूसरे को व्यापार में हानि होने से अब नौकरी करनी पड़ रही है। पूर्व बैंक अधिकारी राजकुमार जैन बताने हैं कि कुलानंद चमोली पीएनबी के पेंशनर हैं और बहुत ही शालीन व मृदुभाषी हैं। अपने परिवार के लिए समर्पित कुलानंद चमोली जी के स्वामी बाबा बनने की कथा दस पंद्रह साल पहले सुनने को मिली थी, लेकिन अब उनकी खोज खबर नहीं है।
अस्सी साल के कुलानंद तड़के सुबह उठने के बाद पूजा अर्चना करते हैं। फिर गौशाला में गोधन की सेवा के बाद आश्रम में मौजूद यात्रियों और सहभागियों के ज्ञान, ध्यान और भोजन की व्यवस्था का जिम्मा रहता है। सेममुखेम पांचवे धाम के रूप में पूरे भारत में स्थापित हो तथा गांव के होनहार बच्चों के लिए कापी, किताब, फीस और दवाई की चिंता करना बाबा कुलानंद अपना फर्ज मानते हैं।
कुलानंद की पीड़ा है कि मुखेम मेला मैदान को सीमेंट व टाइल से ढककर इसकी नैसर्गिक सुंदरता से छेड़छाड़ हो गई है। इस मड़बागीसौड़ मैदान का उपयोग बच्चों के लिए क्रिकेट व अन्य खेलों के लिए हो सकता था। नवंबर अंतिम सप्ताह में आयोजित होने वाले त्रिवर्षीय मेले के लिए जुटायी जा रही सोलर उपकरणों को लोग क्षतिग्रस्त कर देते हैं।
सदानंद आश्रम में एक गुजराती यात्री उत्तरकाशी से पूछताछ कर पहुंचे हैं और यात्रियों के लिए भोजन बनाने में जुटे हैं। एक अन्य बाबा लुधियाना के हैं। वह इस आश्रम में एक दशक से रहकर अपना सहयोग कर रहे हैं। निकट गांव के एक मां और बेटा आश्रम की सेवा में समर्पित रहकर अपनी दिनचर्या संवार रहे हैं। बेटा आश्रम के पशुओं को चराने और दूसरे काम में मग्न रहता है और मां आश्रम के खेतों में सेवा करती हैं। इस आश्रम में हिमाचल ओर अन्य प्रदेशों से आनेवाले यात्रियों का वर्षभर आना जाना रहता है। 9 हजार फीट पर स्थित सदानंद आश्रम से सेममुखेम मंदिर और आसपास के अन्य दर्शनीय स्थल देखे जा सकते हैं।
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लेखक का परिचय
भूपत सिंह बिष्ट, स्वतंत्र पत्रकार, देहरादून, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
बाबा कुलानंद चमोली जी को नमन्, सेम मुखेम की जय हो.