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November 22, 2024

ड्रीम गर्ल ने तोड़ा ड्रीम…, लंबा रहा इंतजार, फिर भी नहीं हो पाया ठीक से दीदार

ड्रीम गर्ल भले ही अब गर्ल न रह गई हो। वह दो बच्चों की अम्मा हो गई और उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गई हो, जहां इस उम्र में वृद्धा की संज्ञा दी जाती है।

ड्रीम गर्ल भले ही अब गर्ल न रह गई हो। वह दो बच्चों की अम्मा हो गई और उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गई हो, जहां इस उम्र में वृद्धा की संज्ञा दी जाती है। फिर भी भूतकाल की इस ड्रीम गर्ल ने खुद को इतना फिट किया हुआ है कि वर्तमान में भी उसकी त्वजा से बुढ़ापा कतई नहीं झलकता है। जब वह गर्ल थी, तब शायद कुछ मोटी थी, लेकिन अब तो वह स्लिम हो चुकी है। आज भी वह वही नजर आती है, जिसे देखकर शायद हर कोई यह गीत गुनगुनाने लगे–किसी शायर की गजल ड्रीम गर्ल।
फिल्मों के कलाकारों को देखने का क्रेज हर किसी को होता है। बच्चे तो फिल्म देखकर ही बड़े हो रहे हैं। छोटे में तो लड़के हीरो व लड़कियां हिरोइन की तरह बनना चाहते हैं। क्योंकि फिल्मी दुनियां की चकाचौंध बड़ों व बूढ़ों के साथ ही बच्चों को भी प्रभावित करती है। यदि किसी शहर में कोई फिल्म हस्ती आ जाए तो उसे देखने को जन सैलाब सा उमड़ने लगता है। पहले किसी शहर में यदि किसी फिल्म की शूटिंग होती थी, तो आमजन को इसका पता भी नहीं लग पाता था। यदि लगता भी तो फिल्मी हस्तियों की झलक देखने का मौका नहीं लग पाता था।
अब ट्रेंड बदला और चुनावी मौसम में इन फिल्मी हस्तियों के रोड शो आयोजित होने लगे। ऐसे में लोगों की इन फिल्मी हस्तियों को देखने की मुराद भी पूरी होने लगी। इसके अलावा स्कूलों के कार्यक्रमों में भी फिल्मी सितारों को बुलाया जाने लगा। अब बात हो रही है वर्ष 2014 के लोकसभा के चुनाव की। उस बार के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने फिर से ड्रीम गर्ल यानी हेमा मालनी के रोड शोर कई शहरों में आयोजित किए और आमजन को उसके दीदार का मौका मिला।
वैसे बचपन में अन्य बच्चों की तरह मैं फिल्मी हस्तियों की चमक-दमक से काफी प्रभावित रहा। मैं खुद भी फिल्म अभिनेता बनना चाहता था। पर उम्र बढ़ने के साथ ही मेरा यह भ्रम भी दूर होता रहा। फिर भी ऐसी फिल्म हस्तियों का दीदार करने का जब भी मुझे मौका मिला, तो अनुभव कुछ ज्यादा कड़ुवे ही साबित हुए। गर्मियों में मैं अक्सर चार-पांच दिनों के लिए मसूरी रहने को चला जाता था। वहां हमारे दूर के एक ताऊजी रहते थे। थे दूर के, लेकिन आपसी संबंध के वे निकट वालों से भी करीब थे। 80 के दशक में मई माह के दौरान मैं मसूरी में उनके घर गया था। वहां मुझे पता चला कि मसूरी की सबसे ऊंची चोटी लाल टिब्बा के पास बंगाली फिल्म-पूर्ति की शूटिंग चल रही है। शबाना आजमी इसकी नायिका है।
इसका पता चलते ही मैं भी शूटिंग देखने की चाहत मन में लिए लंढौर बाजार से पैदल ही शूटिंग स्थल की तरफ रवाना हो गया। वर्ष मुझे ठीक से याद नहीं। सिर्फ इतना याद है कि उस दिन 19 मई थी। इस दिन मेरा जन्मदिन था, लेकिन किसी को पता नहीं था। ऐसे में जन्मदिन भी नहीं मनाया और मैं शूटिंग देखने को चल दिया। कड़ाके की गर्मी थी। दूरदर्शन टावर के पास तक खड़ी चढ़ाई चढ़ते मैं हांफ रहा था। जिस ओर मैं जा रहा था, उस तरफ हर जाने वाले व्यक्ति को देख मैं यही सोचता कि वह भी शूटिंग देखने ही जा रहा है।
काफी चढ़ाई चढ़ने के बाद एक संकरी पगडंडी वाले रास्ते पर ही मुझे चलना था। इस रास्ते से पहले सड़क किनारे खड़े एक बड़े वाहन पर रखा बड़ा सा जेनरेटर धड़धड़ा रहा था। यह जेनरेटर फिल्म शूटिंग स्थल के लिए बिजली बना रहा था। आगे मोटर का रास्ता नहीं था तो करीब डेढ़ किमी पहले ही इसे रखा गया था। मैं जेनरेटर से जुड़ी बिजली की केबल के सहारे आगे बढ़ता गया। क्योंकि जहां तक केबल पहुंचाई गई थी, वहीं मैरी मंजिल थी। तभी एक सुंदर सी युवती भी मेरे पीछे से तेजी से चलती हुई आगे को बढ़ी। मैने सोचा कि यह भी शूटिंग देखने जा रही है। तब मैं करीब 15 साल का था और युवती की उम्र का अंदाजा लगाना मेरे लिए मुश्किल था। फिर भी वह मुझे एक छोटी व सुंदर गुड़िया सी प्रतीत हो रही थी। मैं उसकी बराबरी में चलने लगा।
तंग व सुनसान रास्ते पर वह कई बार लड़खड़ा जाती, लेकिन मैं उछल, कूद व फांद कर ऐसे रास्तों पर मतवाली चाल से चलता। कभी उससे आगे हो जाता, जब पता चलता कि वह काफी पीछे छूट गई तो जानबूझकर मैं अपनी चाल को धीरे कर देता। फिर वह जब बराबर तक पहुंचती तो मैं अपनी चाल बढ़ा देता। यहां हमारी रेस सी शुरू हो गई थी। ठीक उसी तरह जैसे सड़क चलते आपस में अनजान दो साइकिल सवार कई बार साइकिल की रैस लगाने लगते हैं।
पूरे सफर में मैं उस युवती से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। एक अनजान सा भय मेरे भीतर था। या फिर यूं कह सकते हैं कि किशोर अवस्था में मैं काफी झेंपू था।
हां मन में यही तानाबाना बुनता रहा कि इस युवती से कैसे बात करने की शुरूआत की जाए। लड़कियों के मामले में दब्बू प्रवृति एक दिन में दूर हो नहीं सकती थी। फिर कैसे युवती से बात हो। मैने सोचा कि यही पूछ लिया जाए- क्या आप भी शूटिंग देखने को जा रही हो। यही विचार मन में पक्का किया। कुछ हिम्मत जुटाई। गला खंखारा और कांपते हुए शरीर को सामान्य करने का प्रयास किया। तब तक हम उस कोठी तक पहुंच गए, जिसके गेट पर कई गार्ड खड़े थे और भीतर शूटिंग की तैयारी चल रही थी। गेट के बाहर शूटिंग देखने की चाहत रखने वाले करीब पच्चीस लोग खड़े थे, जिन्हें सुरक्षाकर्मी भीतर नहीं जाने दे रहे थे। हमारे करीब पहुंचते ही तमाशबीनों की नजरें हमारी तरफ हो गई। कई के कैमरों में फ्लैश चमकने लगी। बिजली की फुर्ती से युवती गेट के भीतर चली गई और मुझे सुरक्षाकर्मी ने रोक लिया। बाद में पता चला कि वही युवती शबाना आजमी थी।
इसी तरह का एक किस्सा और भी कष्टदायी रहा। एक समाचार पत्र के कार्यक्रम में फिल्म हीरो सुनील सेठी ने आना था। मेरे पास वीआइपी पास थे। साथ ही उस दिन मेरा अवकाश भी था। मैं परिवार समेत कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गया। कार्यक्रम का पास होने के बावजूद गेट से भीतर घुसना किसी जंग जीतने के समान था। तब मेरा छोटा बेटा करीब छह साल व बड़ा दस का था। देहरादून के रेंजर मैदान के गेट पर भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस कई बार लाठियां भी फटकार चुकी थी। इस भगदड़ में मेरा छोटा बेटा गेट के बाहर नाले में गिरते बचा। खैर किसी तरह भीतर गए। सबसे आगे की सीट मिली। पर जैसे ही सुनील सेठी आया भीड़ बेकाबू हो गई। पीछे से दबंग व ताकतवर लोग आगे बढ़ गए और हम धक्के खाते हुए इतने पीछे हो गए कि मंच नजर नहीं आ रहा था और सुनील सेठी को हमें स्क्रीन पर ही देखना पड़ा।
इस बार ड्रीम गर्ल को देखने का मौका था। वो भी रोड शो में। सड़क तो इतनी लंबी होती है कि कहीं से भी देख लो। न भीड़ का धक्का और न ही किसी भगदड़ का डर। देहरादून में रविवार की शाम पांच बजे एस्लेहाल से यह रोड शो शुरू होनी था। मेरी ऑफिस की छुट्टी थी। पत्नी, बच्चे सभी हेमा मालनी को देखने को उत्साहित थे। अक्सर ऐसे कार्यक्रम देर से ही शुरू होते हैं, लेकिन ज्यादा भीड़ होने के कारण समय से पहले ही ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचना समझदारी होती है। फिर भी मैं शाम साढ़े पांच बजे घर से रवाना हुआ। क्योंकि घंटाघर के पास मुझे जहां खड़ा होना था, घर से वहां पहुंचने में मुझे दस मिनट लगने थे। मोटर साइकिल पर मैं और छोटा बेटा व स्कूटी में पत्नी व बड़ा बेटा सवार हो गए।
कुछ आगे जाने पर पुलिस ने रास्ता बंद किया हुआ था। ट्रैफिक डायवर्ट होने पर मुझे उस रास्ते से निकलना पड़ा जहां संडे को जाने से मेरा दम फूलने लगता है। क्योंकि वहां संडे बाजार सजता है और भीड़ का रैला हर वक्त रहता है। घर से दस मिनट की बजाय करीब पौन घंटे में किसी तरह भीड़ में रेंगते हुए हम घंटाघर के पास एक मित्र के कपड़ों के शो रूम में पहुंचे। वहां वाहनों को पार्क कर हम दुकान में चले गए। तब तक भी रोड शो शुरू नहीं हुआ था।
दुकान में घुसते ही छोटा बेटा कपड़ों को देखकर ललचाने लगा। महंगे व ब्रांडेड कपड़े उसे दिलाने का मतलब था कि पूरे दो माह का बजट बिगाड़ना। वह नहीं माना तो एक शर्ट दिला दी। जो शायद संडे बाजार में दो सौ रुपये में मिलती और यहां पूरे एक हजार रुपये में मिली। प्रोग्राम था कि यदि रोड शो लेट होगा तो किसी सस्ते होटल में खाना खाया जाएगा। खाने का बजट शर्ट में चला गया। सड़क किनारे भाजपाइयों की भीड़ बढ़ने लगी। स्वागत के लिए महिलाएं फूलों की पंखुड़ियों से भरी थाली लिए खड़ी थी। उस मालनी के स्वागत के लिए, जो ड्रीम गर्ल थी। उन फूलों से उस मालनी का स्वागत होना था, जिसे किसी माली ने बड़ी मेहनत से फूलवारी में उगाया था।
इंतजार खत्म हुआ। चुनावी गीत, ढोल-दमऊ, गाजे-बाजे, नारों के शोर के साथ जुलूस हमारे करीब आ रहा था। हम खुश थे कि सपना पूरा होने वाला था ड्रीम गर्ल को पास से देखने का। करीब पचास मीटर निकट जब जुलूस
आया तो उस दूरी से देखकर लगा कि वाकई वह आज भी ड्रीम गर्ल है। वह खुले वाहन में खड़ी थी। उसे और निकट से साफ देखने की चाहत में छोटा बेटा मोटर साइकिल की सीट पर खड़ा हो गया। जब वह हमारी सीध पर पहुंचने वाली थी तो उस पर फूल बरसाने वालों को मैं कोसने लगा। फूलों से परेशान होकर ड्रीम गर्ल ने सिर पर पल्लू डालने का प्रयास किया। पल्लू इतना लंबा हो गया कि वह घूंघट में बदल गया। तब तक वह हमारी सीध में पहुंच गई। उसने जैसे ही घूंघट हटाया तो वह हमारी सीध से काफी आगे निकल गई और दीदार करने को रह गया बस……….पीछे का हिस्सा। उसके पीछे टेडी बने दो कार्टून चल रहे थे, जो शायद हमें चिढ़ाने के लिए हमारे पास आकर हाथ हिला रहे थे।
भानु बंगवाल

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