डॉ. सुशील उपाध्याय की दो कविता-दुख के गीतों का समय
दुख के गीतों का समय
वे औरतें
अक्सर दुखभरे गीत गाती हैं,
न जाने क्यों चुनती हैं
ऐसे शब्द
जो सदियों पहले खो चुके हैं-
अपना अर्थ, भाव और संप्रेषणीयता।
वजह-बेवजह गाती हैं,
और
घर के दरवाजे पर बैठकर
तकती हैं रास्तों को,
फिर भी कोई नहीं आता।
न समझता उनके गीत
और न ही अनचिन्हे रुदन को।
फिर भी वे गाती हैं,
कभी चूल्हे की आग के साथ
कभी झाड़ू की बुहार के साथ
कभी मकड़ी के जालों में लिपटकर,
कभी देह के दर्द के साथ
कभी दुधारू पशुओं की तरह दुहे जाते हुए! (अगले पैरे में देखें)
कभी नहीं लौटता
परेदस गया सजन,
नहीं लौटता उम्मीदों का समय,
नहीं लौटता लाम से बेटा,
लौट आती है बेबसी,
लौट आती है नाउम्मीदी,
लौट आते हैं दुःस्वप्न,
जो बदल जाते हैं शब्दों में
बन जाते हैं विरह के गीत
जो गाए जाते हैं वक्त, बेवक्त
क्योंकि
दुख के गीतों का
कोई तयशुदा समय नहीं होता।
कवि का परिचय
डॉ. सुशील उपाध्याय
प्रोफेसर एवं पत्रकार
हरिद्वार, उत्तराखंड।
9997998050
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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।