डॉ. पुष्पा खंडूरी की कविता- कितने सागर डूबे जिसमें, उन्हीं नयनों का नीर हूं मैं
कितने सागर डूबे जिसमें ।
उन्हीं नयनों का नीर हूं मैं॥
हर पल जो जी रहा है डर -डर के।
उस धड़कते दिल की पीर हूँ मैं॥
जिसे बढ़ाने श्रीकृष्ण भी न आए।
वो ही द्रौपदी का चीर हूं मैं॥
कितने सागर डूबे जिसमें।
उन्हीं नयनों का नीर हूं मैं॥
कहते हैं सब फर्क नहीं तुझमें-मुझमें।
सबसे ज्यादा लायक हो कर भी।
क्यों फिर मंजिल से दूर हूं मैं॥
कुछ तो कोख में ही हैं मारी जाती।
पर मैं लेकर जन्म भी क्यों ?
फिर ज़ुल्मी के हाथों मरने को मजबूर हूं मैं॥
कितने सागर डूबे जिसमें।
उन्हीं नयनों का नीर हूं मैं॥ (कविता जारी, अगले पैरे में देखिए)
कभी दिल्ली की अबला निर्भया की चीत्कार।
कभी कलकत्ता की जूनियर डॉ. मशहूर हूं मैं।
देश की सैनिक होकर दुश्मन से भिड़ती।
पर अपने ही देश में नहीं महफ़ूज़ हूं मैं॥
कितने निठारी खुले घूम रहे हैं पग – पग।
अपनी सुरक्षा को ले बहुत मजबूर हूं मैं॥
कितने सागर डूबे जिसमें।
उन्हीं नयनों का नीर हूं मैं॥
कवयित्री की परिचय
डॉ. पुष्पा खंडूरी
प्रोफेसर, डीएवी (पीजी ) कॉलेज
देहरादून, उत्तराखंड।
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