मदद की लिफ्ट, कई बार खुशी की बजाय हुई निराशा
कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि दूसरों की मदद को हमेशा उसी तरह तत्पर रहूं, जैसे मैं लड़कपन में रहता था। तब मोहल्ले में किसी को भी कोई छोटा-बड़ा काम पड़ता तो मेरे पास चला आता।

कहते हैं कि दूसरे की मदद कर हम किसी पर अहसान नहीं करते हैं। जब हम किसी की मदद करते हैं तो उसके बाद हमारे भीतर सच्चे आनंद की अनुभूति होती है। यह आनंद हमें जिस व्यक्ति की मदद से मिलता है, सच मायने में वह मदद का मौका देकर हम पर ही अहसान करता है। अब मदद के लिए समय न होने के बावजूद भी मैं यही सोचता हूं कि जब भी मौका मिले, तो खुद को कृतज्ञ करने से पीछे न रहूं। राह चलते जरूरतमंद को वाहन में लिफ्ट देना भी मुझे अच्छा लगता है, लेकिन कई बार मेरी यह दरियादिली ही मुसीबत का कारण बनने लगती है।
एक रात सड़क पर मैने एक व्यक्ति को लिफ्ट दी तो मोटरसाइकिल पर बैठते ही वह कभी इधर तो कभी उधर को लुढ़कने लगा। तब मुझे पता चला कि महाशय नशे में हैं। उसे बैठाकर मैं खुद ही डरने लगा कि कहीं वह गिर गया तो मेरी मुसीबत बढ़ जाएगी। फिर भी किसी तरह मैं उसका घर का पता पूछकर उसे घर तक छोड़ने गया। उसके घर पहुंचते ही इस अनजान महाशय की पत्नी मुझपर ही बिगड़ गई और गालियां देने लगी। वह मुझे महाशय का दोस्त समझ बैठी और पति को शराब पिलाने वाला मुझे ही समझने लगी। उस दिन मैने संकल्प लिया कि कभी शराबी व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा।
यह संकल्प मेरा ज्यादा दिन नहीं चला। एक रात आफिस से घर जाते समय मुझे एक परिचित मिला। जो सड़क किनारे स्कूटर पर किक मार रहा था। स्कूटर सीधा तक खड़ा नहीं हो रहा था। ऐसे में किक ठीक से नहीं लग रही थी और स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा था। मैं इस परिचित की मदद को रुक गया। मैने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। साथ ही यह भी देखा कि परिचित काफी नशे में है। मैने उसे समझाया कि आराम से जाना, लेकिन उसने बात नहीं मानी। करीब पांच सौ मीटर आगे जाने के बाद वह एक ठेली से टकरा गया। मौके पर मौजूद लोगों ने उसे घेर लिया। किसी तरह उसे लोगों से छुड़ाया। फिर उसका स्कूटर एक व्यक्ति के घर के आगे खड़ा कराया।
इस परिचित को काफी चोट लग चुकी थी। उसे मरहम पट्टी की जरूरत थी। मैं उसे देहरादून के दून अस्पताल ले गया। उसकी मरहम पट्टी कराई। फिर उसे घर छोडने के बाद देर रात अपने घर पहुंचा। इस घटना के कुछ दिन बाद एक महिला मेरे घर पहुंची। वह उसकी पत्नी थी। महिला मुझसे लड़ने लगी कि उसके पति को मैने शराब पिलाई व उसका स्कूटर छीन लिया। उसके पति को यह याद नहीं रहा कि उसका स्कूटर कहां है, लेकिन यह जरूर याद रहा कि मैं उसे घर तक छोड़ कर आया था। तब मैने महिला को सारी बात बताई। साथ ही यह भी बताया कि उसके पति का स्कूटर कहां सुरक्षित रखा हुआ है।
बात यहां भी खत्म नहीं होती। दिन में गर्मी के समय मैं साइकिल हाथ में लेकर देहरादून में प्रिंस चौक के पास से जा रहा था। तभी एक वृद्धा पर नजर पड़ी। वह सड़क पार करना चाह रही थी। मैने उसका हाथ पकड़ा और सड़क पार करा दी। सड़क पार करते ही उस महिला ने मेरा कसकर हाथ पकड़ लिया और बोलने लगी कि रोटी नहीं खाई है। पैसे दे, तब हाथ छोड़ूंगी। मेरे समझ नहीं आया कि उस महिला से हाथ कैसे छुड़ाऊं। मैने कहा कि मैं पैसे निकाल रहा हूं, हाथ छोड़ो। तब उसने हाथ छोड़ा और मैने दौड़ लगा दी। पीछे से मुझे उसकी गालियां सुनाई पड़ रही थी।
ऐसी मदद के बाद से मुझे सच्चे आनंद की अनुभूति के बजाय कष्ट ज्यादा हुआ। इसके बावजूद मदद का कीड़ा मेरे भीतर से कम नहीं हुआ। गर्मी की एक रात मैं देहरादून के घंटाघर से राजपुर रोड को होकर अपने घर को लौट रहा था। तभी मुझे सड़क पर करीब बीस वर्षीय एक युवक पैदल चलता नजर आया। उसके कंधे में भारी-भरकम बैग था। मैने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा। उसने बताया कि सालावाला। यह स्थान मेरे रास्ते पर ही पड़ता था। रास्ते में मधुबन होटल तक लिफ्ट देने पर युवक को कुछ दूर ही पैदल जाना पड़ता। युवक दिल्ली में नौकरी करता था। छुट्टी में वह घर आ रहा था। मैने उसे लिफ्ट देनी चाही, लेकिन उसने मोटरसाइकिल में बैठने से साफ मना कर दिया।
मेरी और से ज्यादा अनुग्रह करने पर तो वह चिढ़ गया। कहने लगा आप अपना रास्ता नापो मैं खुद ही घर चला जाऊंगा। मुझे उसके इस जवाब पर कोई ताजुब्ब नहीं हुआ। क्योंकि अनजान व्यक्ति से लिफ्ट लेना उसे सुरक्षित नहीं लग रहा था। कौन जाने किस वेश में लुटेरा लिफ्ट देकर उसे सुनसान जगह पर लूट कर चलता बने।
भानु बंगवाल
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।