साइकिलः सपना हुआ साकार, घर लाते समय निकलने लगे आंसू, हिम्मत हो गई पस्त
लगातार कोशिश के बाद जब चलानी आई तो फिर हैंडिल छोड़कर अभ्यास शुरू हुआ। कई किलोमीटर तक ऐसे चलाने में भी महारथ मिल गई। तब कई घंटों तक चलाने के बाद भी थकान महसूस नहीं होती थी।

बस क्या था, जो कोई भी मेहमान घर में आता, मैं उसकी साइकिल उड़ा लेता। चलाने की कोशिश करता। इस काम में मुझसे बड़ी बहन भी मदद करती। यह क्रम काफी समय तक चला, लेकिन मैं करेंची (बगैर गद्दी में बैठकर फ्रैम से पैर दूसरी तरफ डालकर चलाना) तक नही सीख पाया। फिर पचास पैसे घंटे के हिसाब से किराए में भी साइकिल ली। इससे बस इतना सीखा कि ढलान वाली सड़क पर मेरी बहन मुझे किसी तरह गद्दी में बैठा कर साइकिल पर धक्का दे देती थी। साइकिल ढलान पर लुढ़कती। मैं हेंडिल पकड़कर बैलेंस संभालता। उतरते हुए ब्रेक लगाता। उतरना आता नहीं था, सो धड़ाम से गिर जाता।
एक दिन पिताजी ने मुझे सड़क पर साइकिल पर बैठे देख लिया। मुझे ढंग से चलानी नहीं आती थी। ढलान पर जा रहा था। पैडल तक नहीं मार पाता था। उनकी नजरों में जब मैं आया तो सीधा आगे निकल गया। उनकी नजर से ओझल होने के बाद आगे जब साइकिल रोकी, तो फिर से मैं बुरी तरह गिर गया था। शायद पिताजी ने यही सोचा कि मुझे साइकिल चलानी आ गई।
जुलाई का महीना था। तब देहारादून में कई दिन की लगातार बारिश होती थी। एक दिन पिताजी मुझे साइकिल दिलाने दर्शन लाल चौक तक ले गए। तीन सौ छह रुपये आफिस से ऋण लिया था। एवन कंपनी की साधारण साइकिल का काला रंग पसंद किया। चार घंटे लगे खरीदने में। तब दुकान में आर्डर देने के बाद रिम में स्पोक लगाने, फ्रेम में पहिये जोड़ने, चेन लगाने, हैंडल फिट करने आदि सारा काम किया जाता था। इस काम में तीन से चार घंटे लगते थे। यानि साइकिल खरीदने में भी चार घंटे का इंतजार।
जब दुकान गए तब दोपहर के 12 बज रहे थे। मैं मैकेनिक से नजरें नहीं हटा पा रहा था। वह धीरे धीरे साइकिल के एक एक करके पार्ट को जोड़ रहा था। मेरी बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही थी कि कब साइकिल तैयार होगी। घंटी दुकानदार ने अपनी तरफ से लगाई। गद्दी हमें पसंद करने को कहा। आखिरकार टायर, ट्यूब आदि डालकर जब साइकिल तैयार हुई तो तब शाम के चार बज गए। दोपहर में चटख धूप थी। शाम को बारिश पड़ने लगी।
साइकिल खरीदने के बाद पिताजी ने कहा कि वह बस से घर जाएंगे। मुझे साइकिल लेकर उन्होने किनारे-किनारे चलाने को कहा। घंटाघर से कुछ दूर आगे राजपुर रोड की तरफ चलने के बाद वह सिटी बस अड्डे की तरफ चले गए। दुकान से हमारा घर राजपुर रोड पर करीब चार किलोमीटर से अधिक दूर था। कई स्थानों पर खड़ी चढ़ाई भी थी। मैं पैदल-पैदल साइकिल लेकर चलने लगा। बारिश तेज हो गई। साइकिल खरीदने का मेरा उत्साह कम होने लगा। एक किलोमीटर तक चलने के बाद मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।
करीब साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी जब मैं तय कर चुका था, तब सड़क किनारे एक साइकिल टूटी हुई दिखी। साथ ही एक जोड़ चप्पल भी कुछ दूर पड़ी दिखी। पता चला कि किसी साइकिल सवार को वाहन ने टक्कर मार दी। उसकी मौत हो गई। सड़क पर बहा खून बारिश से फैलकर धीरे धीरे धुल रहा था। मैं सड़क पर टूटी साइकिल, चप्पलों को देखकर सिहर उठा। हालांकि, शव को पुलिस अस्पताल की मोर्चरी में रखने के लिए ले जा चुकी थी। बस अब डर के मारे मेरे हाथ पैर और अधिक फूलने लगे।
साइकिल का हैंडल थामकर मैं पैदल पैदल चल रहा था। उपर से तेज बारिश हो रही थी। लगातार बारिश से साइकिल के फ्रेम में पैकिंग के गत्ते गलने लगे थे। मैं सर्दी से कांपने लगा। साइकिल का हैंडल ही मुझे किसी भारी बोझ सा प्रतीत होने लगा। कई बार मुझे खुद पर रोना भी आया। साथ ही इंद्रदेव को भी कोसता रहा। मेरे हाथ बुरी तरह दर्द करने लगे। किसी तरह घर पहुंचा। थकान से बुरा हाल था। घर में नई साइकिल देखकर सभी भाई बहन खुश थे।
अब बारी थी मोहल्ले के लोगों की। जिसे भी पता लगता वह हमारे घर में साइकिल देखने पहुंच जाता। देखते ही देखते घर में लोगों का तांता लगने लगा। कुछ को मां ने चाय भी पिलाई। साथ ही कई लोगों ने मुफ्त में सलाह भी दे डाली। कुछ ने कहा कि फ्रेम का गत्ता उतार दो, तो कुछ ने कहा कि अभी मत उतारना। जितनी देरी से उतारोगे, उतने समय तक साइकिल नई नजर आएगी। कुछ ने कहा कि साइकिल तो ठीक है, लेकिन दोनों रिम में झालर लगा देने चाहिए थे। इससे सुंदर दिखती। कुछ ने सीधे सवाल किया कि कितने ईंच की साइकिल है। मैने बताया कि 22 ईंच। तब कई बोले- ठीक है। इसके छोटी लेते तो बाद में तब दिक्कत होती, जब मेरी हाइट बढ़ जाती।
इस साइकिल के घर पहुंचने के बाद मेरा साइकिल का सपना साकार हुआ। इसी से मेरे तीसरे नंबर की बहिन और मैं साइकिल चलाना भी सीखे। लगातार कोशिश के बाद जब चलानी आई तो फिर हैंडिल छोड़कर अभ्यास शुरू हुआ। कई किलोमीटर तक ऐसे चलाने में भी महारथ मिल गई। तब कई घंटों तक चलाने के बाद भी थकान महसूस नहीं होती थी। तब यदि कैमरे में रील डालकर फोटो खींची जाती थी, तो एक फोटो साइकिल पर चढ़कर जरूर ली जाने लगी। हालांकि तब की एक भी फोटो मेरे पास सुरक्षित नहीं है। चौथे नंबर की बहन ने चलाने की कई बार कोशिश की। एक बार मैने उसे बैठाकर धक्का दिया और वह कुछ ज्यादा ही जोर से गिरी। तब से उसने साइकिल पर हाथ नहीं लगाया। हालांकि बाद में शादी के बाद वह सीधे कार ही चलाने लगी। इस साइकिल ने मेरा काफी समय तक साथ दिया। साथ ही मेरे कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी भी आ गई। हालांकि, मुझसे पहले वो जिम्मेदारी मेरी तीसरे नंबर की बहन के पास आई। फिर उसने मेरे ऊपर सरका दी। वह जिम्मेदारी थी बाजार और राशन की दुकान से घर का सारा सामान बाजार से लाने की। ये जिम्मेदारी बचपन में आई और तब तक जारी रही, जब तक मैने ये जिम्मेदारी अपने बच्चों को नहीं सौंप दी। (जारी)
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।