प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये जल, जंगल एवं जमीन का संरक्षण जरूरीः गोपाल नारसन
वड़ोदरा के पारूल विश्वविद्यालय में संचालित डिपार्टमेंट ऑफ साइक्लॉजी की ओर से नेचुरल डिजास्टर्स इन उत्तराखंड एंड इट्स साईक्लोजिकल इम्पेक्ट विषय पर वेबीनार का आयोजन किया गया।
वड़ोदरा के पारूल विश्वविद्यालय में संचालित डिपार्टमेंट ऑफ साइक्लॉजी की ओर से नेचुरल डिजास्टर्स इन उत्तराखंड एंड इट्स साईक्लोजिकल इम्पेक्ट विषय पर वेबीनार का आयोजन किया गया। वेबीनार के मुख्य अतिथि विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के मानद उपकुलसचिव, साहित्यकार एवं प्राकृतिक आपदा विश्लेषक गोपाल नारसन ने विश्वविद्यालय फेकल्टी सदस्यों, विद्यार्थियों एवं प्रतिभागियों को संबोधित किया।
वेबीनार में गोपाल नारसन ने उत्तराखंड में करीब सवा दो सौ वर्षो में आई प्रमुख आपदाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं के बारे में जानकारी देते हुये बताया कि उत्तराखंड के जंगलों में गर्मी के दिनों में अचानक आग लगने की घटनाएं होती है। वहीं दूसरी ओर बादल फटने, पहाड़ से पत्थर गिरने, पथरीली मिट्टी का बहाव एवं कटाव की घटनाएं प्रायः होती रहती है। उत्तराखंड में इन सवा दो सौ वर्षो में दो बार 8 एवं 9 की तीव्रता के भूकंप आ चुके है।जो बहुत घातक थे। गहन भूकंप जोन होने के कारण उत्तराखंड में भूकंप का खतरा बना रहता है। इन प्राकृतिक समस्याओ से निजाद पाने के लिये वनों का संरक्षण जरूरी है। उन्होंने पहाड़ों की मजबूती के लिये पेड़ों का निरंतर रोपण करने की आवश्यकता पर बल दिया। पेड़ों को विकास के नाम पर काटे जाने को लेकर उन्होंने चिंता प्रकट की है। उन्होंने बताया कि उत्तराखंड में अधिकतर पहाड़ कच्ची मिट्टी के बने हुये है,यदि यहां पर पेड लगेंगे तो पहाड़ों को मजबूती मिलेगी।
उन्होंने ब्रदीनाथ में आए भूकंप, केदार नाथ की त्रासदी सहित अनेक घटनाओं का जिक्र किया एवं प्राकृतिक आपदाओं की भयावता से अवगत कराया। उन्होंने एंटी भूकंप बिल्डिंगो के निर्माण की बात कही। साथ ही आपदा के बाद के प्रभावों को भी विस्तार से समझाया। उन्होंने कहा कि आपदा के बाद प्रभावित क्षेत्रों में प्रभावित व्यक्ति इतना टूट जाता है कि उसे संभालने के लिये विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं रात दिन कार्य करती है।
आपदाओं के कारण डिप्रेशन में लोग चले जाते है, जिन्हें मनोबल प्रदान करने में धार्मिक एवं समाज सेवी संस्थानों का काफी योगदान रहता है। उन्होंने बताया कि प्राकृतिक आपदाओं को पहाड़ी इलाकों में रह रहे बुजुर्ग पहले से ही भांप जाते है। वे पशुओं, पक्षियो के आचरण को देखकर पूर्वानुमान लगा लेते है कि किस प्रकार की प्राकृतिक आपदा आने वाली है। वातावरण में बदलाव को लेकर उन्हें अनेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का आभासा हो जाता है । वे इससे बचने के तरीके भी निकाल लेते है और सुदुर स्थानों पर जाकर स्वयं को संभाल लेते है।
उत्तराखंड के स्थानीय लोगों ने कम लागत की भवन निर्माण की तकनीक को भी समझ लिया है। साथ ही देश के जिस राज्य या राज्य के हिस्से में भूंकंप या इस प्रकार की आदाओं के क्षेत्र है वहां के लोगों के सपंर्क में आकर इस प्रकार की आपदाओं से निपटने के लिये काम करने का उन्होंने सुझाव दिया । उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये सरकारी स्तर पर किये जाने वाले कार्यों का विवेचन भी किया। उन्होंने जल,जंगल व जमीन को विकास के नाम पर बलि चढ़ाने पर चिंता जताई एवं इसे बचाने की पूर जोर वकालत की। उन्होंने प्रश्नोंत्तरी के माध्यम से प्रतिभागियों की जिज्ञासाओं को भी शांत किया। पारूल विश्वविद्यालय के डीन प्रो. रमेश कुमार रावत ने वेबीनार के आरंभ में गोपाल नारसन का स्वागत उद्बोधन के माध्यम से किया। वेबीनार में देश के विभिन्न प्रदेशो से सैकंडो विद्यार्थियों, शिक्षकों, शोधार्थियों एवं पत्रकारों ने भाग लिया।