चिल्लर बना देती है छोटा बेईमान, ये तो हो जाते थे परेशान, वो था चिल्लर लौटाने वाला ईमानदार कैशियर
वैसे तो अब चिल्लर की जरूरत कभी-कभार ही पड़ती है। जब लोग मंदिर जाते हैं तो भगवान को चिल्लर चढ़ाने से नहीं चूकते। हालांकि भले ही जुए में लाखों रुपये दांव पर लगा दें।
मुझे अपना बचपन याद है। मोहल्ले में कई दृष्टिहीन रहते थे। मैं उनके छोटे-छोटे काम को हमेशा तत्पर रहता। वे दुकान से मुझसे समान मंगाते। दस या बीस पैसे बचते तो मुझे ही दे देते। मैं भी लालच में उनकी सेवा को हमेशा तत्पर रहता। हमारे परिवार के एक चाचा कभी कभार साल में एक दो बार देहरादून आते तो हमारे यहां भी जरूर आते। उनका नाम सोमदत्त था और वह मुजफ्फरनगर रहते थे। जब भी वह वापस लौटते तो मुझे दो के नोट की गड्डी से एक करारा नोट निकालकर देते। वही नोट मुझे ऐसा लगता कि कई दिन मेरी मौज बन जाएगी। आज दो रुपये यदि मैं अपने बच्चों को दूं तो वे पलटकर यही जवाब देंगे कि इसका क्या आएगा। चिप्स का पैकेट भी दस रुपये से कम नहीं है।
मुझे चिल्लर की जरूरत सिर्फ बिलों की अदायगी के लिए पड़ती है। टेलीफोन, बिजली, पानी के बिल के साथ ही नगर निगम का जब भी हाऊस टैक्स देना होता है तो चिल्लर की जरूरत जरूर पड़ती रही है। अब सरकारी बिल ही देखिए, कभी राउंड फीगर में नहीं होते। तीस पैसे और चालीस पैसे तो शायद अब किसी के पास दिखते ही नहीं। कई दुकानदारों से तो एक रुपये का सिक्का लेना तक बंद कर दिया है। पर सरकारी बिलों में ऐसी ही छोटी राशि भी जुड़ी होती है।
वहीं, इन सरकारी डिपार्टमेंट वालों को चिल्लर से ना जाने क्या मोह है। किसी भी बिल में ऐसी रकम नहीं होती कि सीधे दस, पचास या सौ के नोट से काम चल सके। पांच, सात, आठ रुपये खुले चाहिए होते हैं। क्योंकि यदि चिल्लर नहीं हुई तो काउंटर में बैठा व्यक्ति खुले नहीं है कहकर वापस रकम नहीं नहीं लोटाता। बिल के पीछे बचे दो, तीन रुपये लिख देता है। अब दो-तीन रुपये के लेने लिए दोबारा कौन जाएगा। यह भी गारंटी नहीं कि अगले दिन उसी व्यक्ति की काउंटर में ड्यूटी हो। मेरे जैसे हर व्यक्ति से वह दो-दो रुपये बचाकर अपनी चाय-पानी का खर्च जरूर निकाल लेता है। भिखारी भी जिस चिल्लर को नहीं लेता, कर्मचारी उसे वापस नहीं करते और यही चाहते हैं कि पैसे जमा कराने वाला चिल्लर वापस न मांगे।
वर्ष 2013 की बात है। देहरादून नगर निगम से हाउस टैक्स का बिल आया। बिल की आदायगी के लिए मुझे 588 रुपये खुले चाहिए थे। मैं खुले पैसे के लिए सुबह-सुबह मोहल्ले के लाला के पास गया। लाला की लंबाई कुछ कम है, ऐसे में सभी मोहल्ले वालों ने उसका नाम गट्टू लाला रखा है। लाला को उसके सामने ही कुछ पुराने लोग उसे गट्टू लाला के नाम से ही पुकारते हैं। हालांकि मैने कभी उन्हें गट्टू लाला के नाम से संबोधित नहीं किया। मैं भाई साहब कहकर पुकारता हूं। लाला के पास गया और संकोच करते हुए मैने पांच सौ रुपये के खुले मांगे। मैने कहा कि ऐसे नोट देना, जिससे मैं नगर निगम में खुले 88 रुपये जमा करा सकूं।
लाला ने सौ के चार नोट दिए और दो पचास के। साथ ही बोला कि नगर निगम में आपको खुले पैसों की परेशानी नहीं होगी। वहां कैश काउंटर में बैठने वाला व्यक्ति काफी ईमानदार है। वह किसी व्यक्ति का एक रुपये तक नहीं रखता। उसके पास हमेशा खुले पैसे होते हैं। मैने कहा यदि नहीं हुए तो उसे भी परेशानी होगी और मुझे भी। मैने घर में बच्चों की गुल्लक टटोली और उससे 38 रुपये का जुगाड़ किया। अब मेरे पास बिल के खुले पैसे थे, ऐसे में मुझे कोई टेंशन नहीं थी।
दिसंबर का महीना था। सुबह दस बजे निर्धारित समय पर मैं निगम पहुंच गया, लेकिन वहां कर्मचारी कुर्सी पर नहीं दिखे। सभी सुबह की ठंड को दूर करने के लिए धूप सेंकने में मशगूल थे। करीब पौन घंटे बाद कर्मचारी कुर्सी पर बैठे। मुझसे पहले दो-तीन लोगों का नंबर था। कैश काउंटर में बैठा व्यक्ति मुझे वैसा ही मिला, जैसा कि लाला ने बताया था। सुबह-सुबह उसके पास भी ज्यादा खुले नोट नहीं थे। लोग बड़े नोट लेकर आए थे। वह अपनी पैंट की जेब, पर्स, तिजोरी सभी को टटोलकर लोगों को चिल्लर लौटा रहा था। मेरा जब नंबर आया तो उसने कहा कि खुले पैसे हों तो अच्छा रहेगा। मैने उसे सौ के पांच नौट के साथ ही खुले 88 रुपये दिए। वह खुश हो गया। उसने कहा कि अब कुछ और लोगों को भी वह चिल्लर लौटा सकेगा।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।