अपनी कमाई की साइकिल, घर से हुई गायब, पेंट ने कराई चुगली, साइकिल की हुई वापसी
साइकिल का रंग रोगन कई स्थानों से उखड़ गया। साइकिल जंग खाने लगी। मैं भी इस साइकिल के प्रति लापरवाह होने लगा। उसमें कपड़ा भी तब मारता, जब ज्यादा धूल चढ़ जाती। उसके कई पार्ट घिसने लगे। फ्रेम चटक गया।

साइकिल का रंग रोगन कई स्थानों से उखड़ गया। साइकिल जंग खाने लगी। मैं भी इस साइकिल के प्रति लापरवाह होने लगा। उसमें कपड़ा भी तब मारता, जब ज्यादा धूल चढ़ जाती। उसके कई पार्ट घिसने लगे। फ्रेम चटक गया। सो वेल्डिंग का टांका लगाना पड़ा। अब इस साइकिल को चलाने में मुझे मजा कम व थकान ज्यादा लगती थी। वर्ष 88 के करीब मैं निजी ठेकेदार के साथ ठेकेदारी का काम सीखने लगा। मेरा काम सुपरवीजन का था। साथ ही कैसे टेंडर भरे जाते हैं, इसमें मैं माहिर होता जा रहा था। इसके लिए मुझे घर से एक तरफ करीब आठ से दस किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था। नई साइकिल की आवश्यकता पढ़ने लगी।
उस समय महिने में करीब सात सौ रुपये मिल जाते थे। इसमें से दो सो रुपये खुद पर व पांच सौ रुपये घर की जरूरतों पर खर्च करता था। एक दिन मेरी माताजी ने ही मुझसे कहा कि नई साइकिल क्यों नहीं लेता। इस पर मैने नए डिजाइन वाले हैंडिल की साइकिल खरीदी, जो करीब साढ़े सात सौ रुपये में आई। ये साइकिल हीरो कंपनी की थी। मेहनत की कमाई की साइकिल। सचमुच इसे खरीदने में इतनी खुशी हुई, जो मुझे पहली साइकिल मिलने पर भी नहीं हुई थी।
उन दिनों ठेकेदार का बिल्डिंगों में पुताई व रंगाई का काम चल रहा था। मेरा काम सुपरविजन का था। एक पेंटर ने मुझसे साइकिल मांगी। उसका नाम जोगिंदर था।
उस दिन जोगिंदर के पास साइकिल नहीं थी और उसे दो किलोमीटर की दूरी से पेंट के डिब्बे लाने थे। अक्सर साइकिल देने से मना करने की आदत मेरी थी, लेकिन मैने उस दिन उसे मना नहीं किया। करीब एक घंटे के भीतर वह पेंट लेकर आ गया। तब मैने साइकिल का मुआयना नहीं किया। शाम को घर जाकर देखा तो साइकिल में जगह-जगह हरा पेंट लगा है, जो सूख कर पक्का हो गया। इस पर मुझे काफी गुस्सा आया। मेरी नई साइकिल की सुंदरता पर कई दाग लग चुके थे। अगले दिन मैने जोगिंदर को काफी डांट भी लगाई। उसने रंग छुड़ाने का प्रयास भी किया। पर कैरियर व पिछले मरगार्ड से रंग नहीं उतर सका।
हमारे घर में एक कमरा ऐसा था, जिसकी छत नहीं डाल सके थे। इसलिए मैने उस पर सीमेंट की चादरें डाली हुई थी। उस कमरे पर दरवाजा भी नहीं था। उसमें बड़े भाई की मोपेड व मेरी साइकिल रहती थी। साथ ही उस कमरे का इस्तेमाल स्टोर की तरह किया जा रहा था। उन दिनों बरसात के दिन थे। तेज बारिश होने पर छत से ऐसी आवाज निकलती थी, मानो कहीं फायरिंग हो रही हो। हल्की बारिश में मधुर संगीत का अहसास होता था। घर के भीतर से ही बाहर छत की आवाज से बारिश का पता चल जाता था। बारिश का फायदा उठाकर ही एक रात घर से चोर मेरी साइकिल ले उड़ा। सुबह उठने पर जब साइकिल गायब देखी, तभी चोरी का पता चला।
साइकिल चोरी का दुख काफी हुआ। दोबारा मिलने की उम्मीद इसलिए नहीं रही कि बड़े भाई की साइकिल भी चोरी के बाद दोबारा नहीं मिली। घर में डांट इसलिए नहीं पड़ी कि मैने ताला लगाया था। चाबी मेरे पास ही थी, नहीं तो चाबी ताले में ही फंसी रहती। यह जानते हुए भी कि साइकिल नहीं मिलेगी, फिर भी देहरादून में डालनवाला पुलिस थाने में रिपोर्ट भी लिखाई। करीब एक सप्ताह बीत गया, पर साइकिल का पुलिस भी कोई सुराग नहीं लगा पाई।
एक दिन जोगिंदर मुझे मिला। वह दूसरे ठेकेदार के पास काम कर रहा था। उसके पास मेरी साइकिल भी थी। उसने मुझे बताया कि मेरी साइकिल को चुराने के बाद एक चोर ने उनके गांव में किसी व्यक्ति को सौ रुपये में बेची थी। साइकिल में रंग लगा होने की वजह से जोगिंदर ने पहचान लिया। साथ ही सौ रुपये देकर उसने साइकिल वापस ले ली। मैने जोगिंदर को सौ रुपये अदा किए। वापस साइकिल पाकर मैं खुश था। मैने सोचा कि यदि साइकिल पेंट से गंदी नहीं होती, तो शायद जोगिंदर भी उसे पहचान नहीं पाता। तब मुझे पेंट लगने की घटना पर जोगिंदर को डांटने का भी अफसोस हुआ। हालांकि, चोर का नाम भी पता चल गया था। पुलिस को भी तब बताया गया, लेकिन पुलिस ने उस पर कोई एक्शन लिया या नहीं, इसका मुझे पता नहीं चला।
भानु बंगवाल
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Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।