लेखः पढ़ा-लिखा बेरोजगार बनाम ऑनलाइन शिक्षा, युवाओं की हकीकत और प्रोपेगंडा
अभी कुछ बरस पहले ही केशव अपने गाँव को छोड़कर एसएससी की कोचिंग के लिए शहर आया था। ऊपर की मंजिल पर एक कमरे में रहता था। एमएससी गणित की हुई थी। बस कुछ सरकारी नौकरियों के फार्म भरे हुए थे। नीचे मकान मालिक रहते थे अपने दो पोतों के साथ। जैसे ही लोकडाउन लगा बच्चों की ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू करवा दी गई।
केशव रोज उन्हें देखता और उदास सा ऊपर चला जाता। मकान मालिक किराये के मामले में बहुत सख्त था। महीना होते ही तुरंत सिर पर आ बैठता था। बच्चे पूरे दिन लैपटॉप पर कक्षाएं पढ़ते और केशव के पास शाम होते ही खेलने आ जाते। वैसे एक महामारी कोरोना ने जबसे पैर जमाया तब से मकान मालिक किसी के साथ बच्चों को घुलने मिलने नहीं देता था और इसीलिए चालीस हजार खर्च करके लैपटॉप भी खरीदा। कक्षाओं के लिए इंटरनेट सुविधा भी जुटाई। हालांकि केशव घर नहीं जा पाया था इसीलिए वह घर के अन्य सदस्यों से घुला मिला हुआ था।
एक दिन छोटा पोता केशव के साथ जिद्द करते हुए दुकान से चॉकलेट लेने के लिए निकल लिया। रास्ते में बच्चा कहता है कि भैय्या हमसे ना वो एक मूवी डाउनलोड नहीं हो रही, दादू को मत बताना क्या आप कुछ कर सकते हो? केशव अकुला गया। उसकी सिर्फ सिसकी नहीं निकली परंतु वह मन ही मन रो रहा था।
फंडा यह है कि जब उस मकान में एक विषय विशेषज्ञ पढ़ा लिखा बेरोजगार रहता है तो हम क्यों फिर भी बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई से जोड़ रहे हैं, जबकि वो केशव जैसे विद्यार्थियों से मूवी डॉउनलोड के बारे में पूछ रहे होते हैं। यदि अपने आस-पास ही कोई इस तरह का व्यक्ति आपको दिखता है तो उसे मौका दीजिये। क्योंकि इस वजह से एक तो बच्चे खराब विकिरणों का शिकार ना बनेंगे तथा केशव जैसे होनहार परंतु सरकारों की ढीलाई की बदौलत घर बैठे बेरोजगारों को भी कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त होगी।
(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)
मौलिक व स्वरचित
नेमीचंद मावरी “निमय”
युवाकवि, लेखक व रसायनज्ञ
बूंदी, राजस्थान
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।