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December 16, 2024

नवीन भारत की नवीन संसद, नवीन भारत के अभ्युदय का प्रतीक: तरुण विजय

नवीन भारत के अभ्युदय का पथ सदैव कंटकाकीर्ण रहा है। आज जब ब्रिटिश दास मानसिकता से संघर्ष रत राष्ट्र औपनिवेशिक मानस की जकड़न से मुक्त हो भारतीयों द्वारा भारत के लिए स्वतंत्र देश में बनी नवीन संसद का भव्य उद्घाटन देख रहा है, तो यह क्षण 15 अगस्त 1947 के पुण्यदायी क्षण से काम महत्वपूर्ण नहीं है। यह नवीन संसद तमिल सम्राट राज राज चोल के समय प्रयुक्त शिव के नंदी को शिखरस्थ विराजमान किये राज दंड से आलोकित, प्रेरित और स्पंदित होगी, जो स्वतंत्रता के समय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के परामर्श और सहायता से वायसरॉय माउंट बैटन ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक स्वरुप पंडित नेहरू को प्रदान किया था। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

यह एक शुद्ध निर्मल भारतीय वैदिक परंपरा का प्रतीक था। इसलिए कांग्रेस और पंडित नेहरू को भाया नहीं और इसको प्रयाग स्थित सरकारी संग्रहालय में बंद कर दिया गया। यह दैवी कृपा और नरेंद्र मोदी की दूरदर्शिता थी कि इसकी स्मृति जगी और इसे इसके सही उपयुक्त स्थान पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया गया। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

ब्रिटिश असेंबली को हमने बाद में नवीन भारत की संसद के रूप में संगठित किया जिसमें लोकसभा और राज्य सभा का सञ्चालन हुआ, लेकिन सब कुछ वही था जो ब्रिटिश ने बनाया। संसद का भवन हमारा, परन्तु उसके भीतर स्मृतियाँ सब ब्रिटिश और दासता की। वहां सभी प्रारंभिक सदन अध्यक्षों के चित्रों में ब्रिटिश स्पीकरों के चित्र से सदन अध्यक्षों की परंपरा के प्रारम्भ होने का दृश्य हर दिन हमें सदन में प्रवेश करते ही चुभता था। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने ब्रिटिश कालीन दास मानसिकता के चिह्नों को मिटाना प्रारम्भ किया और स्वदेशी चेतना से उत्स्फूर्त नावीन्य का सृजन पर्व प्रारम्भ किया। नवीन संसद वास्तव में उसी नव चैतन्य का वह प्रतीक है जिसे शिव की शक्ति और महान तमिल पराक्रमी स्मृति सेंगोल राजदंड के रूप में शक्ति दे रही है। यह ब्रिटिश दास मानसिकता के अंत का अद्घोष है। नवीन संसद भारतीय नव जागरण के सूर्योदय का , राष्ट्रीयता की आभायुक्त लोकतंत्र का संयुक्त तीर्थ है जो अपराजेय भारत के शौर्य और आध्यात्मिक आत्मा को प्रतिबिंबित करती है। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

नवीन संसद उस महान तमिल शौर्य और धर्माधिष्ठित सत्ता को भी प्रतिबिंबित कर रही है जो अब तक सेक्युलर, वामपंथी बौद्धिक तत्वों की घृणा के कारण दबी रही थी। तमिल भाषा संसार की प्राचीनतम भाषाओँ में एक है, उसमें शिलपद्दिकरम, मणिमेखलै जैसे विश्व विख्यात दो हज़ार वर्ष से भी प्राचीन महान ग्रन्थ हैं। थिरूवल्लुवर जैसे वैश्विक संत और दार्शनिक तमिल जनजीवन के हर पक्ष को प्रभावित करते आ रहे हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी से पहले इस अपार तमिल गौरव के सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्तर पर कभी जानकारियों का प्रसार नहीं किया गया था। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

ऐसा क्यों होता है कि जब भी भारत अपने मूल स्वरुप और सांस्कृतिक सभ्यतामूलक गौरव की और लौटना चाहता है तो ब्रिटिश दास मानसिकता के सेकुलर वाम पंथी और दाम पंथी उसके विरोध में खड़े दीखते हैं ? मुहम्मद गोरी के विरुद्ध बहादुरी से लड़े राजा सुहेलदेव हों या असम के पराक्रमी सेनापति लशित बड़फूकन – केवल नरेंद्र मोदी स्मृति के पुनर्जागरण और दास मानसिकता के विरुद्ध वीरता से लड़ते दिखाई देते हैं। यह दुर्भाग्य है कि जिस प्रधानमंत्री को देश के नागरिकों ने सम्मान पूर्वक प्रधानमंत्री पद हेतु अभिषिक्त किया, उनके लोकतान्त्रिक पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीय गौरव प्रतिष्ठापना कार्यों पर इतना बावेला मचाया जा रहा है मानो भारतीयता का जागरण कोई अपराध हो। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

राष्ट्रीयता के प्रश्नों पर भारत में मतैक्य क्यों नहीं हो सकता ? भारत और भारतीयता के प्रश्नों पर क्यों हमें एक दूसरे के विरूद्ध खड़े होने की आवश्यकता महसूस होती है? क्या भारतीयता किसी एक पार्टी के एकाधिकार में मानी जा सकती है? शत्रु को ऐसी ही मानसिकता के लोगों द्वारा सहायता मिलती है। भारत आज सम्पूर्ण विश्व के देशों के लिए शक्ति और विश्वास का केंद्र बना है। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

लोकतान्त्रिक पद्धति से, जय विजय और पराजयों के लोकतान्त्रिक आरोह अवरोहों से गुजरते हुये नरेंद्र मोदी ने एक शक्तिशाली भारत और भारतीयता निष्ठ छवि बनाकर सम्पूर्ण विश्व में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों का आत्मविश्वास एवं गौरव बढ़ाया है। जहाँ भी वे जाते हैं भारत माता का माथा ऊँचा होता है। शत्रुओं के खेमे में सेंध लगाकर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अनेकानेक विपदाओं के मध्य स्थिर और प्रगतिशील रखने का कीर्तिमान बनाने वाले मोदी जब नवीन संसद का उद्घाटन करेंगे तो यह एक नवीन राष्ट्रीय चैतन्य के अभ्युदय का महान क्षण होगा जो युगों युगों तक हमें अपनी आत्मा की शक्ति और हमारी असंदिग्ध भारत भक्ति का स्मरण कराता रहेगा। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

मुझे इस क्षण राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं
एक हाथ में कमल एक में धर्मदीप्त विज्ञान, लेकर उठने वाला है धरती पर हिंदुस्तान।
अब से पांच दशक पूर्व जब दिनकर जी ने यह पंक्तियाँ लिखी होंगी तब किसी को आभास तक नहीं होगा कि राष्ट्रीयता के भाव में रचे पगे मतदाता एक ऐसे वीतरागी प्रधानमंत्री को पद सौपेंगे, जो वस्तुतः दिनकर जी की कविता को सार्थक सिद्ध करता दिखेगा। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

सम्पूर्ण विश्व में राष्ट्रीयता के बोध ने वहां के समाज के नवजागरण को प्रेरित किया है। दक्षिण कोरिया ने जापानियों द्वारा बनाई संसद की इमारत को तोप लगकत ध्वस्त किया और अपनी नवीन संसद का निर्माण किया। पोलैण्ड ने रूसियों द्वारा निर्मित चर्च को ध्वस्त कर अपने नवीन पोलिश चर्च का निर्माण किया। इस्रायल ने रूसी, अंग्रेजी , जर्मन भाषाओँ के मोह को छोड़ अपनी दो हजार वर्ष से अप्रयुक्त हिब्रू भाषा को संसद, सरकार और समाज की भाषा के रूप में अंगीकार किया। भारत को जो कार्य आज़ादी के तुरंत बाद करना चाहिए था उसको वह आज आज़ादी के अमृत महोत्सव काल में कर रहा है। (जारी, अगले पैरे में देखिए)

शायर अकबर इलाहाबादी नै इन विरोधियों को ही समझते हुए लिखा था-
तेरे लब पे है इराको शामो मिस्रो रोमो चीं, लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ नहीं
अरे सबसे पहले मर्द बन हिन्दोस्तां के वास्ते , हिन्द जाग उठे तो फिर – सारे जहाँ के वास्ते
शुभास्तु ते पन्थानः।

लेखक का परिचय
तरुण विजय (जन्म 2 मार्च 1956) भारतीय राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत पत्रकार एवं चिन्तक हैं। वह 1986 से 2008 तक करीब 22 सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादक रहे। उन्होंने अपने करियर की शुरूआत ब्लिट्ज़ अखबार से की थी। बाद में कुछ सालों तक फ्रीलांसिंग करने के बाद वह आरएसएस से जुड़े और उसके प्रचारक के तौर पर दादरा और नगर हवेली में आदिवासियों के बीच काम किया। वह उत्तराखंड से राज्यसभा के सदस्य भी रहे। सांसद तरुण विजय राज्यसभा के सर्वश्रेष्ठ सांसदों में एक रहे। सभी दलों के नेताओं ने उनकी राज्यसभा में सक्रियता की प्रशंसा की। स्वतंत्र संसदीय समीक्षा संगठन पीआरएस ने उन्हें संसद के सर्वश्रेष्ठ सांसदों में से एक चुना है।
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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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