जानिए उत्तराखंड में कुमाऊं का इतिहास, आजादी के आंदोलन में यहां के लोगों का योगदान
प्राकृतिक सौन्दर्य से सुसज्जित कुमाऊँ हिमालय का एक अत्यन्त रमणीय प्रदेश है। इसके उत्तर में तिब्बत, दक्षिण में मुरादाबाद और बिजनौर, पश्चिम में गढ़वाल तथा पूर्व में काली नदी है। इस प्रान्त का नाम कूर्मांचल या कुमाऊँ होने के विषय में यह किंवदन्ति प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुवे का हुआ, तो चम्पावती नदी के पूर्व कूर्म-पर्वत में, जिसे आजकल कांडादेव या कानदेव कहते हैं, तीन वर्ष तक एक ही अवस्था में खड़ा रहा। उस समय देवतागण तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उसकी प्रशंसा की। उस कूर्म अवतार के चरणों के चिह्न पत्थर में अंकित हो गये। इन चरण चिह्नों के विद्यमान होने की पुष्टि अभी भी क्षेत्रवासी करते हैं। तभी से इस पर्वत का नाम कूर्मांचल हो गया।
ऐसे पड़ा कुमाऊं नाम
कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते-बिगड़ते ‘कुमू’ बन गया, और यही शब्द भाषा से कुमाऊँ में परिवर्तित हो गया। पहले यह नाम चम्पावत तथा उसके आस-पास के गाँवों को दिया गया। तत्पश्चात् यह सम्पूर्ण काली कुमाऊँ परगने का सूचक हो गया और काली नदी के किनारे के क्षेत्र चालसी, गुमदेश, रेगडू, गंगोल, खिलफती और उन्हीं से जुड़ी हुई ध्यानीरौ आदि पट्टियाँ भी काली कुमाऊँ नाम से प्रसिद्ध हुई। ज्यों-ज्यों चंदों का राज्य विस्तार बढ़ा, तो कूर्मांचल अथवा कुमाऊँ उस सारे क्षेत्र का नाम हो गया, जो इस समय जिला पिथौरागढ़, चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल व ऊधमसिंह नगर में सम्मिलित है।
कत्यूरी राजवंश का था सुव्यवस्थित राज्य
कुमाऊँ के प्रागैतिहासिक निवासी खस, किन्नर और किरात कहे जाते हैं। किरात और खस के बाद वैदिक आर्यों का प्रथम समूह मैदानी क्षेत्र से पहाड़ों की ओर बढ़ा। यद्यपि कुमाऊँ के ऐतिहासिक काल में ज्ञात सर्वप्रथम राज्य पर्वताकार राज्य है, तथापि एक विस्तृत शक्तिशाली तथा सुव्यस्थित राज्य के रूप में कत्यूरी राजवंश ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। इतिहासकार कत्यूरी शासनकाल को ईसा से 2500 वर्ष पूर्व से 700 ईसवीं तक मानते हैं। कत्यूरी वंश का संस्थापक राजा शलिवाहन देव माना जाता है। प्रारम्भ में इस वंश की राजधानी जोशीमठ में थी और बाद में कार्तिकेयपुर में स्थापित की गयी।
चंदवंश ने भी किया शासन
जब कत्यूरी वंश की शक्ति क्षीण पड़ने लगी, तो चन्द वंश ने कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया। चंदवंश ने 800-1790 ईसीं तक राज्य किथा। चंद राजाओं के काल में कुमाऊँ में तीन शासन मंडल थे। काली कुमाऊँ, जिसमें सोर, सौरा व अस्कोट थे। अल्मोड़ा, जिसमें सालम, बारामंडल, पाली तथा नैनीताल के पहाड़ी क्षेत्र थे। तराई भाबर का क्षेत्र जिसमें माल भी सम्मिलित था। कुमाऊँ आजादी के बाद तक दो ही जिलों में विभाजित रहा – अल्मोड़ा और नैनीताल। सन 1960 में पिथौरागढ़ को अल्मोड़ा जिला से अलग कर स्वतंत्र जिले का स्वरूप दिया गया। इसी तरह 1996 में पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और नैनीताल तीनों जिलों की सीमाओं के क्षेत्रफल को संकुचित कर तीन नये जिले बागेश्वर, चम्पावत औरऊधमसिंहनगर सृजित किये गये।
25 साल तक गोरखों ने किया शासन
चंद राज्य के पश्चात् सन् 1760 में कुमाऊँ में गोरखों का शासन हो गया, जो पच्चीस वर्षों तक चला। 27 अप्रैल 1815 को अल्मोड़ा की राजधानी में अंग्रेजों का अधिकार होने से सारा कुमाऊँ उनके आधिपत्य में आ गया। कुमाऊँ के प्रथम अंग्रेज कमिश्नर ई. गार्डनर ने 3 मई1815 को कुमाऊँ के निवासियों के लिए घोषणा निकाली कि सम्पूर्ण कुमाऊँ अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया है। अतः जो लोग गोरखों के आतंक से अपने धर-बार छोड़कर जंगलों में चले गये थे, वे वापिस अपने-अपने घरों को लौटें और काम-धन्धों में लग जायें। गार्डनर कमिश्नर को छ: माह बाद ही अंग्रेज शासकों ने वापिस बुला लिया।
1829 को देहरादून को अलग किया कुमाऊं से
ट्रेल, जो पहले गार्डनर के सहायक नियुक्त हुए थे, उन्हें कमिश्नर नियुक्त किया गया और वे 1835 तक इस पद पर बने रहे। सन् 1816 में कुमाऊँ फर्रुखाबाद के बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स के अधीन रखा गया। ट्रेल एक कुशल शासक बताये गये। अंग्रेजी राज्य की जड़ कुमाऊँ में जमाने का श्रेय उन्हीं को
जाता है। सन् 1828 में बरेली की अदालत में कुमाऊँ के फौजदारी मुकदमे भेजने की आज्ञा जारी हुई। कुछ जमींदार तराई-भाबर में मनमानी चुंगी वसूल करते थे, वह बंद करा दी गयी। सन् 1824 में तराई, मुरादाबाद जिले में स्थानान्तरित कर दी गयी। 1826 में देहरादून व चंडी के क्षेत्र भी कुमाऊँ में शामिल हो गये। मई 1829 को पुन: एक आदेश द्वारा देहरादून को कुमाऊँ से अलग कर दिया गया।
कुमाऊं का राजा की पदवी मिली रस हेनरी रामजे को
सन 1839 तक कुमाऊँ व गढ़वाल एक ही अंग्रेज कमिश्नर के अधीन था। इन्हें अलग कर दोनों का प्रबन्ध अलग-अलग अंग्रेज अधिकारियों के सुपुर्द किया गया। सन 1856 में बैटन के स्थान पर कप्तान रामजे, जो बाद में मेजर जनरल सर हेनरी रामजे कहलाये, कुमाऊँ के शासक हुए। रामजे,
लार्ड डलहौजी के चचेरे भाई थे। ये सन् 1856 से 1884 तक कुमाऊँ के कमिश्नर रहे। इनका यहाँ पर अखण्ड शासन रहा। अंग्रेज लेखकों ने इनको ‘कुमाऊँ का राजा’ नामक पदवी से विभूषित किया। कुमाऊँ में इन्हें ‘रामजी साहब’ के नाम से पुकारा जाता था। सन् 1884 में इन्हें जबरदस्ती रिटायर किया गया। उसके पश्चात भी 1892 तक ये अल्मोड़ा में निजी मकान बनाकर रहे।
1857 के गदर में योगदान
सन 1857 का गदर कुमाऊँ में भी अंग्रेजों के लिए एक विद्रोह के संकेत के रूप में उभरा। जब गदर की खबर कुमाऊँ में पहुँची तो कमिश्नर रामजे गढ़वाल गये हुए थे। वह अल्मोड़ा से नैनीताल पहुँचे तथा गदर को कुमाऊँ से बाहर ही रोकने के प्रयासों में जुट गये। कोटा भाबर व तराई में गदर के कारण खूब हाहाकार मचा। कोटे की तहसील रामपुरियों ने लूटी। अंग्रेजों के सरदार धनसिंह व कुछ सिपाही मारे गये। जो लूटपाट करते कपड़े गये, उन्हें फांसी दी गई। अंग्रेज लोग जो भागकर मैदानों से नैनीताल पहुंचे, उनको सरकार की ओर से भत्ता दिया गया। हल्द्वानी पर कई बार गदर समर्थक पहुंचे, परन्तु पहाड़ी क्षेत्र में भारी ब्रिटिश बन्दोबस्त के कारण प्रवेश न कर पाये। गदर के समय अंग्रेजों को कुली मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परिणामत: कमिश्नर रामजे ने जेल से कैदियों को छोड़कर कुली का काम लिया।
अंग्रेजों का अत्याचार, ग्रामीणों से छीना जंगल का अधिकार
भूमि बंदोबस्त के नाम पर अंग्रेजों ने गाँव की उपज में से 55 प्रतिशत पर सरकारी अधिकार की घोषणा कर मालगुजारी में अचानक वृद्धि कर दी। जबकि चंद राजाओं के शासनकाल में कुल उपज का छठा अंश ही लिया जाता था। अंग्रेजों ने सम्पत्तिशास्त्र के अनुसार कुमाऊँ के जंगलों की रक्षा की नीति चलाई। जंगलात बनाने का पहला मन्तव्य ट्रेल ने 1826 में किया। 1855-61 तक अंग्रेजों ने रेल के स्लीपरों के लिए अनेक साल के वृक्ष कटवा डाले। सन् 1868 में जंगल सिविल से उठाकर जंगलात अधिकारियों के अधीन रखे गये। जंगलों को सुरक्षित घोषित करने से पूर्व अकेले अल्मोड़ा जिले में 4540 वर्ग मील भूमि में जंगल थे। 1868 में उत्तर प्रदेश में मेजर पिपरसन पहले कंसरवेटर नियुक्त हुए। 1857 में 3700 वर्ग मील में जंगलात का अधिकार हो गया, और एक जंगलात अधिकारी कुमाऊँ में नियुक्त हुआ। ट्रेल अंग्रेज कमिश्नर ने अस्सी साल का बंदोबस्त जंगलात का निर्धारित किया, उससे गाँववासियों को गहरा धक्का लगा। क्योंकि जो जंगल गाँव की सम्पत्ति थे, उन पर से भी उनका अधिकार छीन लिया गया।
खान मालिकों और बगान स्वामियों को दिए जंगल
1878 में जंगल के कानूनों में फिर से बदलाव लाया गया। तदनुसार शेष 638 वर्गमील भूमि को भी जंगलात की भूमि घोषित कर दिया गया। इससे गाँव वालों को चारा व लकड़ी के लिए अत्याधिक परेशानी का सामना करना पड़ा। 1885 से 1890 तक कुछ जंगल लाभ कमाने के उद्देश्य से लोहे की खान मालिकों को लोहा गलाने के लिए तथा कुछ चाय बागानों के स्वामियों को दे दिए गये। अंग्रेज अधिकारियों ने सन 1893 से अपने लाभ व अधिकारों की रक्षा के लिए बेनाप, ऊसर, नदी, तालाब, ग्लेशियर, बरसाती नाले आदि जमीनों को सरकारी घोषित कर दिया। जंगलात की
इस नयी घोषित नीति कराने में जॉन हिवेट, जॉन कँवल तथा पी. क्लटरबक का हाथ था। ये तीनों मित्र शिकारी थे। अतः अपने शिकार क्षेत्र सुरक्षित रखने तथा आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से यह अत्याचारी नीति गाँव वासियों पर थोपी गयी।
जनता ने गदर में दिया अंग्रेजों का साथ
सन1857 के गदर में अंग्रेजों को कुमाऊँ के लोगों ने सहयोग दिया। गदर के बाद जब सरकार से हथियार छीनने का आदेश आया तो तत्कालीन कमिश्नर रामजे ने लार्ड केनिंग को लिखा – “मेरी हजारों रिआया शान्त व राजभक्त रही है, क्या मैं अपने राजभक्त पर्वतीयों को राजभक्ति का यह ईनाम दूं कि उनकी उन बन्दूकों को छीन लूँ, जिनको वे हमारी सेवा में उस समय काम में लाये, जबकि हम कठिनाई में थे।” रामजे की इस दलील की जीत हुई। पर्वतवासियों की बन्दूकें नहीं छीनी गयीं। किन्तु फिर 1888-89 में कितनी बन्दूकें व तलवारें किसके पास है यह जानने के लिए सब लोगों के हथियार अदालत में मंगा लिये गये। वहाँ कहा गया है कि उन पर लाइसेंस शुल्क लगेगा।
जिन्होंने लाइसेंस लिया, उनके अस्त्र शस्त्र वापिस हुए, बाकी तोड़ लिए गये। कुछ लोगों ने स्वयं अपने घरों में तोड़ डाले और उनकी दरातियाँ बना ली।
1921 में कुमाऊं में जन्मी कांग्रेस
ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनायी गयी राजनैतिक और आर्थिक साम्राज्यवादी नीति एवं पाश्चात्य सभ्यता की विसंगतियों के फलस्वरूप नवजागरण के कारणों से देश में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास हुआ। सम्पूर्ण देश को एकता के सूत्र में बाँधने तथा ब्रिटिश तथा ब्रिटिश सरकार का दृढ़तापूर्वक विरोध करने के लिए संगठन स्थापित किये गये। फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही देश में राष्ट्रीय आन्दोलन का जन्म एवं विकास हुआ। सन 1921 में कुमाऊँ में कांग्रेस का जन्म हुआ। इस वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन प्रयाग में सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में कुमाऊँ के वाचस्पति पंत, ज्वालादत्त जोशी, हरिराम पांडे, मुंशी सदानन्द सनवाल, शेख मानुल्ला, माधव गुरूरानी, बदरीदत्त जोशी आदि शांतिप्रिय राजनीतिज्ञों ने भाग लिया।
अत्याचारों के खिलाफ उठने लगी आवाज
सन 1916 में नैनीताल नगर में कुमाऊँ परिषद को स्थापना हुई। इस संस्था का उद्देश्य कुमाऊँ के दोनों जिलों अल्मोड़ा और नैनीताल में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा शिक्षा सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना था। 1919 के पश्चात् कुमाऊँ परिषद का नेतृत्व गरमदलीय विचाराधारा के लोगों के हाथ में आ गया। इसी परिषद ने कुली उतार, कुली बेगार, कुली बर्दायश, जंगलात, भूमि बन्दोबस्त आदि समस्याओं के विरूद्ध आवाज उठाई और आन्दोलन किया। इस संस्था ने जनसाधारण को उनके शोषण एवं समस्याओं से अवगत करात हुए उनमें जागृति उत्पन्न कर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आन्दोलन के लिए प्रेरित किया।
महात्मा गांधी ने की यात्राएं
सन 1929 में महात्मा गाँधी स्वास्थ्य सुधार तथा खादी प्रचार के लिए कुमाऊँ को यात्रा पर आये। उन्होंने हल्द्वानी, नैनीताल, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, बागेश्वर और कौसानी की यात्रायें की तथा प्रत्येक स्थान पर अपने व्याख्यानों में उन्होंने स्वदेशी, स्वावलम्बन एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों के बारे में जनसाधारण को अवगत कराया। महात्मा गाँधी की कुमाऊँ यात्रा में जवाहरलाल नेहरू कई स्थानों में उनके साथ रहे। इसी वर्ष भवाली में एक बृहद् जनसमूह को सम्बोधित करते हुए नेहरू जी ने जनता को ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आन्दोलन करने के लिए तैयार रहने को कहा। सन् 1929 में ही साइमन कमीशन के भारत आने पर कुमाऊँ में हरगोविन्द पन्त के नेतृत्व में इस कमीशन के विरोध में प्रदर्शन किया गया।
भारत छोड़ो आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव अल्मोड़ा में
भारत छोड़ो आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव कुमाऊँ कमिश्नरी के अल्मोड़ा जिले पर पड़ा। अल्मोड़ा जिले के प्रमुख नेता हरगोविन्द पंत से ब्रिटिश सरकार सदैव शंकित रहती थी। अत: उन्हें भारत छोड़ो आन्दोलन से पूर्व 3 अगस्त 1942 को ही गिरफ्तार कर लिया गया। 9 अगस्त 1942 को राष्ट्रीय ध्वज के साथ अल्मोड़ा नगर में एक जुलूस निकला और सभा सम्पन्न हुई। नगर में राजनैतिक चेतना को देखकर ब्रिटिश सरकार ने प्रमुख कांग्रेसो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। 10 अगस्त को अल्मोड़ा शहर में आम हड़ताल रही और महात्मा गाँधी जय के उद्घोषों के साथ एक विशाल जुलूस निकाला गया। पुलिस ने उत्तेजित जनसमूह को नियंत्रित करना चाहा, तो कुछ लोगों ने उन पर पत्थरों की वर्षा कर दी। कांग्रेस कार्यकर्ता तथा विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
देघाट गोलीकांड में हरिकृष्ण तथा हीरामणि हुए शहीद
अल्मोड़ा इंटर कॉलेज के समस्त अध्यापकों का एक माह का वेतन सामूहिक जुर्माना के रूप में वसूला गया। भारत छोड़ो आन्दोलन, अगस्त माह से जो आरम्भ हुआ तो रूकने का नाम ही न लिया। 18 अगस्त को इसी दौर में अल्मोड़ा जिले के पिछड़े एवं उपेक्षित क्षेत्र चौकोट में भी आन्दोलन ने विकराल रूप धारण किया। मल्ला चौकोट के देघाट में उस समय भीड़ बेकाबू हो गई जब पुलिस ने उनके नेता खुशालसिंह मनराल को गिरफ्तार कर लिया। भीड़ ने पुलिस चौकी पर चढ़ाई कर दी। पुलिस ने भीड़ को तीतर-बितर करने के उद्देश्य से दो राउण्ड गोलियाँ चलायीं । गोलीकांड में हरिकृष्ण तथा हीरामणि नामक दो व्यक्ति शहीद हो गये। देघाट गोलीकांड कुमाऊँ कमिश्नरी में भारत छोड़ो आन्दोलन की अवधि में प्रथम गोलीकांड था। इस प्रकार 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में कुमाऊँ कमिश्नरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
इससे पूर्व इस क्षेत्र में जो भी आन्दोलन हुए वे पूर्ण रूप में अहिंसात्मक रहे, लेकिन भारत छोड़ो आन्दोलन के समय इस्ल कमिश्नरी के लोगों ने हिंसात्मक आन्दोलनों का भी सहारा लिया। प्रभातफेरियाँ की और स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। 15अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। कुमाऊँ कमिश्नरी में जनता ने हर्षध्वनि के साथ जुलूस निकाले, प्रभातफेरियां की और स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।