मजार का सच, जहां रात को सैय्यद बाबा करते थे भ्रमण, सड़क के लिए खुदाई की तो पता चला सच
बात उत्तराखंड के देहरादून में राजपुर रोड स्थित राष्ट्रीय दष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में स्थित एक मजार की हो रही है। तब उत्तराखंड राज्य नहीं बना था और देहरादून उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। करीब 40 साल पहले मजार लैंटाना की झाडि़यों से घिरी हुई थी। मजार आम के पेड़ के नीचे बनी हुई थी। इसके निकट से पगडंडियों वाला रास्ता जाता था। यह कच्चा रास्ता भी दोनों ओर से झाड़ियों से घिरा था। मजार के कुछ निकट एक कृत्रिम धोबीघाट था। रात के सन्नाटे में यह जगह काफी भयावाह नजर आती थी। झाड़ियों के बीच एक्का-दुक्का छोटे पेड़ो पर दूर से जब कोई रोशनी चमकती, तो किसी व्यक्ति के खड़े होने का भ्रम फैलाती थी। कमजोर दिल वाले इसे भूत समझकर दौड़ लगा देते। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सुबह सुबह वहां से धोबी के कपड़े पीटने की आवाजें आती थी। हर बार जब वह कपड़ों को पत्थर के चबूतरे पर पीटता था तो मुंह से सिटी जैसी आवाज निकालता था। वह सरकारी संस्थान का धोबी था, जो हॉस्टल में रहने वाले दृष्टिहीन छात्रों के कपड़े धोता था। मैं कई बार सोचता था कि जब सब मजार के निकट जाने से डरते हैं तो धोबी को डर क्यों नहीं लगता। शायद पेट की आग ऐसी ही होती है कि परिवार पालने के लिए इस तरह का डर निकल जाता है। या फिर वह सिटी की आवाज से आसपास से सन्नाटे को तोड़कर डर को कुछ कम करने का प्रयास करता हो। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सैय्यद बाबा के बारे में कई किवदंती भी थी। कोई कहता कि वह रात के बारह बजे सैय्यद बाबा सफेद घोड़े में बैठकर सफेद कपड़ों में मजार के आसपास भ्रमण करते हुए देखे जाते हैं। उस जमाने का दादा माने जाने वाला व्यक्ति का नाम रामू (परिवर्तित नाम) था, जो हमारे मोहल्ले में ही रहा करता था। अस्सी के दशक में गैंगवार के दिनों में अक्सर पुलिस उसे गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया करती थी। लोग बताते थे कि रामू को भी सैय्यद बाबा के कहर का सामना करना पड़ा। जब मैं छोटा था तो मैने रामू भाई से पूछा कि क्या आपने सैय्यद बाबा को देखा है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
तब उन्होंने बताया कि एक बार मजार के निकट लघुशंका करने पर मेरी तबीयत बिगड़ गई। मुझे लगा कि जैसे कोई मुझे जमीन पर पटक रहा है। तब पिताजी ने झाड़फूंक कर उन्हें बचाया। मजार क्षेत्र के आसपास ज्यादा देर रुकने का डर। यह डर शायद सदियों से चला आ रहा था। इस डर से रामू की तबीयत बिगड़ी या फिर कुछ और कारण रहा। जो कुछ भी हो, लेकिन लोग उस स्थान को पवित्र मानते थे। साथ ही वहां का डर हर एक के मन में था। समय के साथ मजार भी खंडहर में तब्दील हो रही थी। कभी कभार उसमें कोई अगरबत्ती जला देता। या कोई सफेदी करा देता। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
समय गुजरता गया, लेकिन मजार क्षेत्र का रहस्य बरकरार रहा। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र अमर उजाला में होने के कारण में एक शहर से दूसरे शहर में तबादलों की मार झेल रहा था। करीब पहले दो साल ऋषिकेश तीन साल सहारनपुर में रहने के बाद वर्ष 1999 में मैं वापस देहरादून आया। पता चला कि जहां मजार थी, उसके निकट से राजपुर रोड को कैनाल रोड से जोड़ने के लिए सड़क बनाई जा रही है। इसके लिए मजार के निकट मजदूर खुदाई कर रहे थे। खुदाई के दौरान मजदूरों को जमीन में दबी एक छोटी हंडिया मिली। इसे निकाला गया, तो इसमें सिक्के भरे हुए थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
आसपास के बच्चों और कुछ लोगों ने सिक्के अपनी जेब में भर लिए। मुझे इसका पता तो मैने समाचार लिखा कि खुदाई में सिक्के मिले। सिक्कों को देख इतिहासकारों के मुताबिक बताया गया कि सिक्के समुद्रगुप्त के काल के हैं, तो कोई इसे दूसरे युग से जोड़कर देख रहा था। खैर जो भी हो समाचार प्रकाशित होने पर प्रशासन हरकत में आया और सारे सिक्के जब्त कर लिए गए। लोगों के घर घर जाकर सिक्के एकत्र किए गए। सिक्के मिलने के बाद से मुझे मजार का रहस्य भी समझ आने लगा। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
बचपन से मैं जिस सवाल की तलाश कर रहा था, सिक्के मिलने की घटना ने उसका उत्तर दे दिया। यानि सदियों पहले जिसने भी अपनी संपत्ति हंडिया में रखकर जमीन में छिपाई, उसी ने मजार बनाकर वहां लोगों के मन में भय भी बैठा दिया। यह भय वर्षों से लोगों के मन में बरकरार है। ये डर लोगों के मन में आज भी बैठा हुआ है। हालांकि मजार का सच मैने भी किसी तो कभी नहीं बताया। क्योंकि जो मजार को मानते हैं उनकी आस्था तो ये है कि किसी ने सैय्यद बाबा को भेंट के रूप में देने के लिए सिक्कों से भरी हंडिया जमीन में दबाई थी।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।