हिंदी दिवस और पितृ पक्ष, दोनों में रस्म अदायगी, फिर से आ गए दोनों के वार्षिक श्राद्ध

कारण ये है कि छोटे से ही बच्चों में स्कूली किताब को छोड़कर हिदी की कहानी, उपन्यास, इतिहास आदि पढ़ने में अब रुचि भी नजर नहीं आती। युवा पीढ़ी भी अब अंग्रेजी उपन्यास पर ही ज्यादा जोर देती है। हिंदी के लेखकों की किताबें सिर्फ लाइब्रेरी की शोभा बढ़ा रही हैं। वहीं, जो पढ़ते भी हैं, वो भी इस चक्कर में रहते हैं कि उन्हें फ्री में पुस्तक पढ़ने को दे दी जाए। पोर्टलों के साथ ही अन्य मीडिया में प्रकाशित कविताओं का हश्र भी बहुत बुरा है। क्योंकि एक कवि दूसरे कवि और लेखक को फूटी आंख नहीं देखता है। ये भी मैं उसी अनुभव के आधार पर कह रहा हूं, जो मैं लोकसाक्ष्य वेब न्यूज पोर्टल में प्रकाशित करता हूं। मेरे कई व्हाट्सएप ग्रुप हैं। इसमें कई लेखक भी जुड़े हैं। जब किसी भी रचनाकार की कविता को प्रकाशित करता हूं तो उसे इन लेखकों में आधे भी नहीं पढ़ते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इसी तरह का एक किस्सा मैं बताना चाहता हूं। एक कवि ने अपनी कविता का लिंक फेसबुक में शेयर किया। ये लिंक लोकसाक्ष्य पोर्टल में लगी उनकी कविता का था। जिस दिन उन्होंने शेयर किया, कुछ दिन तक उनमें लाइक की संख्या मामूली थी। अचानक कई माह बाद उनकी ये पोस्ट किसी को नजर आई और उसने कमेंट कर दिया। इसके बाद उनकी वाल में इस पोस्ट की हैडिंग पढ़कर दनादन बधाई का सिलसिला चल गया, लेकिन जब मैने एनालेटिक्स चेक किया तो देखा कि जितनों ने बधाई दी, उनमें से दस फीसद लोगों ने भी लिंक खोलकर कविता को नहीं पढ़ा। वहीं, दुष्कर्म, लड़की भागने, क्राइम आदि की खबरें हजारों में पढ़ी जाती हैं और हिंदी के लेखक और कवि इनकी अपेक्षा शून्य पर आ जाते हैं। अब हम किस बात का डंका पीटते हैं। यदि एक दूसरे को नहीं पढ़ेंगे तो फिर कैसे आगे बढ़ेंगे। ये भी सोचनीय प्रश्न है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
यदि किसी को मेरी भावनाओं से ठेस पहुंचे या फिर आपत्ति हो तो मैं उससे क्षमा प्रार्थी हूं। क्योंकि हिंदी दिवस साल में एक बार आता है और पितृ पक्ष भी साल में एक बार ही आते हैं। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उन सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी का ढोल पीटा जाना लगता है, जहां अंग्रेजी में ही काम किया जाता है। सरकारी संस्थान तो हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में हिंदी दिवस पखवाड़ा आयोजित करते हैं। यह पखवाड़ा एक से 14 सितंबर या फिर 14 से 30 सितंबर तक आयोजित होता है। अब पितृ पक्ष को देखिए। यदि अधिमास न हो तो पितृ पक्ष भी 14 से 30 सितंबर के बीच पढ़ता है। या फिर कहें तो इससे कुछ आगे या पीछे पड़ते हैं। करीब दो या तीन साल के अंतराल में ही अधिमास आता है। इस साल भी पितृ पक्ष दस सितंबर से ही शुरू हुए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इसी तहर हिंदी दिवस पखवाड़े व पितृ पक्ष के बीच समानता देखो दोनों लगभग एक ही दौरान साल भर में एक बार मनाए जाते हैं। पितृ पक्ष में ब्राह्माणों की पूछ होती है। पित्रों की तृप्ति के लिए पंडितों के माध्यम से उन्हें तर्पण दिया जाता है। तर्पण के बाद कौवे, कुत्ते व गाय को भोजन देने के साथ ही ब्राह्माण को भोजन कराया जाता है। साथ ही पंडितों को दक्षिणा भी देने की परंपरा है। अब हिंदी पखवाड़ा देखिए। साल भर कौवे की तरह अंग्रेजी की रट लगाने वाले सरकारी व निजी संस्थान इन दिनों हिंदी का ढोल पीटने लगते हैं। इस संस्थानों में हिंदी पखवाड़े के नाम पर बाकायदा बजट ठिकाने लगाया जाता है। हिंदी के रचनाकारों व कवियों के रूप में हिंदी के पंडितों को आमंत्रित किया जाता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
पितृ पक्ष मे किए गए श्राद्ध में पंडितों की भांति हिंदी के पंडित भी रचनाओं व गोष्ठी के माध्यम से हिंदी की महानता के मंत्र पढ़ते हैं। फिर चायपानी या ब्रह्मभोज भी होता है। साथ ही रचनाकारों को शाल आदि से सम्मानित किया जाता है और उन्हें सम्मान के नाम पर लिफाफे में दक्षिणा देने का भी कई संस्थानों में प्रचलन है। हिंदी पखवाड़े का आयोजन संपन्न हुआ और संस्थान के अधिकारी भी तृप्त और रचनाकारों को कमाई का मौका मिलने से वे भी तृप्त। हो गया हिंदी का तर्पण। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अब सवाल उठता है कि हिंदी को लेकर इतना शोरगुल साल में एक बार ही क्यों। इस देश का असली नाम भारत है, हिंदुस्तान है या फिर इंडिया। शायद इस पर भी आम नागरिक के बीच भ्रम की स्थिति हो सकती है। अपने देश में हम भारतवासी हो जाते हैं, वहीं विदेशों में हमारी पहचान इंडियन के रूप में होती है। इंडिया यानी ईष्ट इंडिया कंपनी के पूर्व में गुलाम रहे और शायद आज भी उसकी भाषा अंग्रेजी के गुलाम हैं। विदेश मंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेई ने यूएनओ में हिंदी में संबोधन कर देश भी धाक जमा दी थी। बाद में जब वह प्रधानमंत्री बने तो वह भी अंग्रेजी में संबोधन की परंपरा से अछूते नहीं रहे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़े के दौरान मीडिया भी हिंदी का ढोल पीटने लगता है। हकीकत यह है कि हिंदी मीडिया के भी सारे गैर संपादकीय कार्य अंग्रेजी में ही होते हैं। संपादकीय में भी अंग्रेजी के ज्ञाता को ही तव्वजो दी जाती है। अंग्रेजी के जानकार को ही मीडिया में प्राथमिकता के तौर पर नौकरी दी जाती है। भले ही हिंदी में वह कितनी भी मजबूत पकड़ वाला हो। यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो उसके लिए हिंदी मीडिया में भी जगह नहीं है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
ऐसा नहीं है कि हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए काम नहीं हो रहा है, लेकिन ये काम भी युवा और कई प्रबुद्ध लोगों की ओर से हो रहा है। सोशल मीडिया के जरिये में बड़े बड़े कवि सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं। इनमें युवा कवि भी बढ़चढ़कर हिस्सा निभा रहे हैं। ऐसे सम्मेलनों में अमूमन लेखक ही होते हैं और अभी लेखक पाठकों को खुद से जोड़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनका संघर्ष कब तक सफल होता है, ये किसी को पता नहीं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
ऐसे लोगों को मेरी तरफ से बधाई। वहीं, हिंदी पत्रकारिता ने चाटुकारिता का रूप लेना शुरू कर दिया है। कवियों की कविताओं में भी अब वो धार नहीं है, जो पहले होती थी। अब गुणगान वाली कविता लिखने वाले ज्यादा होते जा रहे हैं। ऐसे में कौन किसे पढ़ेगा, ये भी चिंतन का विषय है। क्योंकि हर सिक्के के दो पहलु होते हैं। यदि एक पक्ष हावी होगा तो हश्र होना लाजमी है। हिंदी को बढ़ावा देने की बात करने वाले खुद बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा देकर विदेश में नौकरी के लिए भेज रहे हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
बहरहाल, हिंदी को मजबूत बनाने के दावे भले ही कितने किए जाए, लेकिन तब तक यह दावे हकीकत में नहीं बदल सकते, जब तक हिंदी को रोजगार की भाषा नहीं बनाया जाएगा। जब तक सभी स्कूलों में हिंदी को अंग्रेजी व अन्य विषयों से ज्यादा तव्वजो नहीं दी जाती। सरकार हिंदी में कामकाज नहीं करती, रोजगार में हिंदी को अनिवार्यता नहीं दी जाती और हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बनती, तब तक हम हिंदी की बजाय अंग्रेजी के ही गुलाम रहेंगे। फिर हर साल हिंदी का श्राद्ध मनाते रहेंगे पर कुछ होने वाला नहीं है।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।