फादर्स डेः जब भी आती है संकट की घड़ी, याद आने लगते हैं पिताजी
कवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता-नर हो ना निराश करो मन को, मैने पहले बचपन में पिताजी से सुना, जो बाद में मैने शायद चौथी जमात में पढ़ी। इस कविता का मतलब पिताजी मुझे किसी अच्छे काम के लिए प्रेरित करने के लिए समझाते थे। साथ ही इसकी एक लाइन-निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे, को फोर्स से समझाते हुए मेरा स्वाभिमान जगाने व हिम्मत बढ़ाने का प्रयास करते थे। तब बचपन में कई बार मुझे पिताजी के उपदेश अच्छे नहीं लगते थे। आज उनकी समझाई गई बातों को मैं अक्सर दोहराता हूं। अपने बच्चों को भी समझाने का प्रयास करता हूं। साथ ही ये भी समझाने का प्रयास करता हूं कि किसी से खुद को कम ना समझो, लेकिन ऐसा करने के लिए मेहनत जरूरी है।
टिहरी जनपद के डांगचौरा के निकट गुरछौली गांव को महज 14 साल की उम्र में मेरे पिताजी ने टाटा कर दिया था। घर छोड़कर वह देहरादून आ गए। अपने साथ जो रकम व चांदी की धगुली आदि जेवर वह लेकर आए, उससे कुछ दिन उसके बल पर अपना खर्च चलाते रहे। तब एक पैसे और दो पैसे से एक बार का भोजन कर सकते थे। जैसा उन्होंने मुझे बताया। देहरादून में उन्होंने पढ़ाई के साथ ही शुरू की नौकरी की तलाश। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
मेरे दादाजी तब ही दुनियां छोड़ चुके थे, जब पिताजी महज ढाई साल के थे और मेरे चाचाजी दादी के पेट में थे। परिवार में वही बड़े थे। उनकी कोई बहन भी नहीं थी। देहरादून आने पर उन्होंने जिल्दसाजी, फोटो फ्रेम बनाना आदि के काम सीखे और धामावाला में अपनी दुकान खोल दी। मुंहफट, स्वाभिमानी, सहृदय, गलत बात पर दूसरों से भिड़ने की प्रवृति ने उनकी आसपास के परिवेश में अलग ही पहचान बना दी। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
उनका नाम कुलानंद था, लेकिन लोग उन्हें पंडित जी के नाम से पुकारने लगे। जब वह छोटे थे, तब स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था। पिताजी भी जुलूस व अन्य विरोध प्रदर्शन में शामिल होते। उस दौरान पुलिस उन्हें पकड़कर ले जाती, लेकिन जेलर उन्हें जेल में बंद नहीं करता। वह पिताजी को पहचानता था। या यूं कह सकते हैं कि वह भी उनकी दुकान में आता जाता रहता था। वह कहता अरे पंडित तुम कहां फंस गए। भाग जाओ दोबारा जुलूस में नजर मत आना। तब पिताजी भी खुश होते कि जेल जाने से बच गए। ठीक उसी तरह जिस तरह उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कई सक्रिय आंदोलनकारी पुलिस की पकड़ से बाहर रहे और राज्य बनने के बाद उनका नाम किसी आंदोलनकारी की सूची में नहीं है। ठीक इसी तरह पिताजी ने भी शायद यह नहीं सोचा कि जो लोग जेल में बंद हो रहे हैं, बाद में वे सरकारी सुविधा के पात्र बनेंगे। खैर आखरी सांस तक उन्हें जेल में बंद ना रहने का कोई मलाल नहीं रहा। वे अल्प संतोषी व्यक्ति थे। देश आजाद हुआ। जेल जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सैनानी कहलाए, लेकिन मेरे पिताजी को इसका कभी मलाल नहीं हुआ कि आंदोलन के नाम पर वह किसी सहायता के पात्र बनते। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान में वह सरकारी नौकरी लग गए और दुकान आठ सौ रुपये में बेच दी। पंडितजी के नाम से लोगों में पहचान बनाने वाले पिताजी को पूजा-पाठ करते मैं कभी कभार ही देखता था। यानी दशहरे से पहले नवरात्र में जौ बुतते हुए। या फिर उसकी कटाई करते हुए। बाकी साल भर उन्हें मैं कभी घंटी बजाते या कोई आरती गाते नहीं देखता था। वह तो कर्म को ही भगवान मानते थे। उनका सीधा मत था कि गलत काम को करो मत और किसी से दबो मत। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
यही नहीं, मोहल्ले के कई लोग उनसे पांच दस रुपये उधार मांगने भी पहुंच जाते थे। इनमें एक धोबन कुछ ज्यादा ही पैसे मांगने पहुंचती थी। वो भी महीने के आखरी समय पर। कहती खर्चा नहीं चल रहा है। बस कुछ दिन बाद लौटा दूंगी। हम खुद छह भाई बहन थे, लेकिन पिताजी को मैने कभी ऐसे नहीं सुना कि मेरे पास भी पैसे नहीं हैं। वह मदद जरूर करते। चाहे दस की जगह पांच रुपये देते। किसी भी गलत व्यक्ति को वह डांटने में भी देर नहीं लगाते। जीवन में उन्होंने ना तो पान खाया, ना ही तंबाकू का सेवन किया और ना ही शराब को हाथ लगाया। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
राजनीति में अच्छी खासी समझ रखने पर लोग वोट डालने से पहले उनसे सलाह भी लेते थे कि इस बार किसे चुनना है। सब नेताओं की जन्मपत्री पंडितजी के पास रहती थी। उनकी इस पकड़ को देखते हुए कई राजनीतिक दलों के लोगों ने उन्हें प्रलोभन देने की भी कोशिश की, लेकिन वह ऐसे लोगों को डांट कर भगा दिया करते। स्पष्टवादिता के चलते उनसे जल्दी से कोई उलझता नहीं था, क्योंकि उनके तर्कों के आगे कोई भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाता था। उनकी जेब में हमेशा टॉफी रहती थी। यदि उनके सामने कोई बच्चा पड़ता तो उसे जरूर देते। शाम के समय जब वह खाना खाते तो मोहल्ले के एक दो कुत्ते भी घर पहुंच जाते थे। तब वह उन्हें एक टुकड़ा रोटी का जरूर देते। इसी तरह वह दिन के भोजन के समय अपनी थाली से एक मुट्ठी पके चावल अलग रख देते थे। फिर इसे घर के बाहर पक्षियों को जरूर डालते थे। घरेलू चिड़िया गौरेया भी उनसे डरती नहीं थी और उनके पास ही बैठ जाता करती थीं। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
उनका सबसे प्रिय काम समाचार पत्र पढ़ना था। समाचार पत्र को पढ़ने के बाद छितरा कर रखने से पिताजी को नफरत थी। वह उसकी तह लगाकर रखते थे। दफ्तर में उनका खाली समय लाइब्रेरी में ही बीतता था। वहां वह एक-एक समाचार पत्र को बारीकी से पढ़ते थे। फिर शाम को छुट्टी के वक्त सारे समाचार पत्र घर लाते और शाम को भी बचे खुचे समाचार और लेख पढ़ते। अगले दिन वापस इन पत्रों को आफिस लौटा देते। वह धीरे धीरे बोलकर समाचार पत्र पढ़ते थे, ऐसे में बचपन में मुझे भी देश के साथ ही विदेश के समाचारों का ज्ञान होने लगा था। अब आपातकाल लगा। कब पाकिस्तान में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी लगाई गई। इस तरह से समाचारों को मैने पिताजी से ही सुना। यही नहीं, हिन्दी जगत के प्रमुख व्यंगकार शरद जोशी के लेख पढ़ते थे। नवभारत टाइम्स में उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ तो पिताजी काफी मजे लेकर पढ़ते और मुझे भी सुनाते। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
यही नहीं, उनके पास साहित्य का भी अच्छा खासा भंडार था। बड़े और नामी लेखकों की किताबें। उपन्यास, गढ़वाली गीत, रचनाएं, कहानियां आदि सब कुछ। बाद में एक एक कर मैं भी इन किताबों में लिखी सामग्री को चट करता रहा। हर शाम को वह रेडियो में नियमित रूप से समाचार सुनते। यानि वह देश और दुनिया के ताजा घटनाक्रम से वह सदैव अपडेट रहते थे। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
रास्ते में यदि पत्थर या ईंट पड़ी हो तो उसे उठाकर किनारे कर देते। साथ ही बाहर से कड़क व गुसैल नजर आने वाले वह भीतर से काफी नरम थे। झूठ व फरेब से उन्हें सख्त नफरत थी। वह कहते थे कि गलती को छिपाओ मत, बल्कि उसे सुधारने का प्रयास करो। घर में पिताजी ने हर सामान को रखने की जगह फिक्स की हुई थी। यदि जगह पर वस्तु नहीं मिलती तो हम भाई बहनों को उनकी डांट सुननी पड़ती। आज देखता हूं कि उनका यह फार्मूला हरदिन कितना काम आता है। अचानक बिजली जाने पर अंधेरे में भी टार्च हाथ में लग जाती है। समय से हर काम करने, अनुशासन में रहने की वह हमेशा सीख देते थे। सुबह सुबह वह घर के आंगन में झाड़ू मारते और झाड़ू मारते समय ये तक नहीं देखते कि झाड़ू पड़ोस के व्यक्ति के घर के सामने तक लगा रहे हैं। यानी जितनी हिम्मत रहती, उतना स्थान घर से आसपास का साफ कर देते। घर के भीतर की सफाई की जिम्मेदारी मां या बहनों की होती। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
वह हर छुट्टी के दिन किसी न किसी परिचित के घर जरूर जाते थे। छोटे में उनके साथ मैं भी जाता रहा। बाद में मैने बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि नाते व रिश्तेदारों में नई पीढ़ी अब हमे पहचानती नहीं। अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह अतिथि सत्कार में भी कोई कमी नहीं रखते। संस्थान में रहने वाले दृष्टिहीन व्यक्तियों को पंडितजी पर काफी विश्वास रहता था। वे उनकी सलाह भी मानते थे, साथ ही यदि उन्हें कोई खरीददारी करनी होती तो पंडितजी से ही पूछते। ऐसे में वह भी दृष्टिहीन का हाथ पकड़कर उन्हें बाजार ले जाते और जरूरत का सामान खरीदवाते। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने पढ़ना नहीं छोड़ा। ना ही 85 साल से अधिक उम्र में भी उन्होंने चश्मा लगाया। देश की समस्याओं को लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक को वह पत्र लिखते रहे। साथ ही सुझाव तक देते रहे। भारत के राष्ट्रपति को भेजे गए कई पत्रों के बाद वहां से जवाब भी आया। यदि किसी को राष्ट्रपति बनने पर बधाई भेजी, तो वहां से आभार का पत्र जरूर आता था। यही नहीं, उनकी लिखावट मोती जैसी थी। ऐसे में हमें (भाई बहनों को) उनसे लिखाई पर डांट भी मिलती थी कि- कितना गंदा लिखते हो। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
अब देखिए, उनकी पत्र लिखने की कला। मैं वर्ष 96 में मेरा अमर उजाला में देहरादून से सहारनपुर के लिए तबादला कर दिया गया। मेरा बड़ा भाई अमर उजाला मेरठ में था। देहरादून में घर में पिताजी और माताजी अकेले रह गए। किसी तरह दो साल तो दोनों ने काट लिए, लेकिन उन्हें बुढ़ापे में दिक्कत होने लगी। हालांकि साप्ताहिक अवकाश के दिन मैं सहारनपुर से देहरादून आ जाता था। तब जरूरत का समान घर में रख देता था। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
वर्ष 98 में दीपावली के आसपास की बात है, मेरा तबादला देहरादून में कर दिया गया। मैं हैरान था कि अचानक तबादला क्यों हुआ। बाद में देहरादून में हमारी यूनिट के इंचार्ज श्री सुभाष गुप्ता जी ने बताया कि मेरे पिताजी ने अमर उजाला के प्रधान संपादकजी श्री अतुल महेश्वरी जी को पत्र लिखा था। उसी के आधार पर मेरा तबादला देहरादून किया गया है। पत्र में पिताजी ने अपनी व्यथा लिखी। कहा कि दो बेटे अमर उजाला में सेवाएं दे रहे हैं। हम पति और पत्नी बुढ़ापे में अकेले रह गए हैं। इनमें किसी एक का तबादला देहरादून हो जाए तो हमारे जीवन के अंतिम क्षण भी आराम से कट जाएंगे। उनके इस मार्मिक पत्र का असर ये हुआ कि मुझे देहरादून भेज दिया गया। हालांकि इसके सवा साल तक ही वह इस दुनियां में रहे। और उनकी मौत के बाद माताजी 20 साल तक जिंदा रहीं। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
आज पिताजी को इस दुनियां से विदा हुए करीब 23 साल हो गए। इन 23 सालों में मैं जब भी कभी खुद कमजोर महसूस करता हूं, तो उनकी आदतों व बातो को याद करता हूं। संकट की घड़ी में मुझे अक्सर पिताजी के मुख से सुनी यही कविता याद आती है कि-नर हो ना निराश करो मन को…..
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।