शांत होने की इच्छा हो, तो पहले इच्छा को शांत करो: मनीष गर्ग
चुनाव के समुद्र की लहरों का वेग में कुछ अजीब सा बदलाव नज़र आ रहा है। काफी हद तक मतदाता शांत हैं, अपनी भावनाओं को खुल कर सामने नहीं ला पा रहे हैं। जो सिर्फ फ्री के लड्डू चखना चाहते हैं, उन्हें सच्चाई से कोई मतलब नहीं हैं।

अनुमान न लग पाने का एक सबसे बड़ा कारण Covid के नियमों के तहत बड़ी जन सभाएं नहीं हो पा रही हैं। दोनों मुख्य दलों से नाराज़ लोगों को तीसरा विकल्प भी नज़र आ रहा है, जो अक्सर उत्तराखंड में पहले नज़र नहीं आता था। दिग्गजों के नाम पर पूर्व में विजय हुए और खुद कुछ न करने का खामियाजा भुगतने का डर अब जाने-अनजाने पूर्व विजय महानुभावों के चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा हैं।
इस बार प्रत्येक दल में बागियों की संख्या भी अधिक है, कुछ खुल कर बगावत कर के दल बदल चुके हैं। कुछ शांत रहकर अंदर खाने बगावत को आंच दे रहे है। इस वजह से प्रत्याशी अधिक विचलित नज़र आ रहे है। बरहाल नतीजा कुछ भी हो लेकिन सच्चाई यही है की राजनीती के सागर में अजीब सी लहरों के वेग से जो राजनितिक मौसम गड़बड़ा रखा है वो मार्च माह की 10 तारीख को नतीजे आने के बाद और भी ज्यादा बिगड़ने की सम्भावना है। कुछ हारने के बावजूद भी समीकरण बिगाड़ने पर अत्यंत प्रसन्न होंगे और कुछ जितने पर भी विकास को अपनी जेब में लेकर घूमेंगे। वैसे खामोश रहने का अपना ही मज़ा है, नीव के पत्थर कभी बोला नहीं करते।
लेखक का परिचय
मनीष गर्ग
समाज सेवक, देहरादून, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।