पूज्य मां को समर्पित कविता-अंतिम सफर: उषा सागर
पूज्य मां को समर्पित कविता-अंतिम सफर: उषा सागर।

कैसा होता है
इंसान चाहता कुछ और है
पर कुछ और ही होता है
जीने की चाह बलवती होती है
किंतु सांसों की गति धीमी होती है
सांसों की डोर टूटने का
क्रम जब शुरू होता है
इंसान ही क्या हर प्राणी
अंतर्मन से रोता है
मैंने देखा था मां को अपनी
इस निरीह अवस्था में
क्या द्वन्द चल रहा था
उनके मन की व्यथा में
अस्पताल के बिस्तर पर
जब ओ लेटी थी
मैं भी उनके पास
वहीं पर बैठी थी
देख उनकी हालत मेरा
मन रोया, अकुलाया था
उनसे मिलने शीघ्र
भाई बहनों को बुलाया था।
मैं देख रही थी उनके
मन के भावों को
वो निहार रही थी ऐसे
जैसे कह रही हो
मत देख मेरे तन मन के घावों को
बता सकी न बात कोई वह
बस लेटी थी पगली सी
चिंता किसी की नहीं उनको
सिर्फ थी अपने बबली की
मां तुम्हारा भी तो मन किया होगा
अपने भाई से मिलने का
किंतु हमारे पास न था
कोई साधन सम्पर्क करने का
रह गया था भाई एक
जो तुम्हारा सगा था
उससे बढकर कहीं अधिक
था वो अपना ,भाई जो चचेरा था
आया अंतिम दर्शन को
आंखें उसकी नम थी
विदा हुई बड़ी बहन
हुई एक और कम थी
त्याग देह को वह हरि के
द्वार निकल पड़ी थीं
दर्शन को उनके अंतिम
द्वारे बहुत भीड़ खड़ी थी।
कवयित्री का परिचय
उषा सागर
सहायक अध्यापक
राजकीय उच्चतर प्राथमिक विद्यालय गुनियाल
विकासखंड जयहरीखाल, जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड।
Bhanu Bangwal
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