हरेला दिवस की सार्थकता एक सामूहिक उत्तरदायित्वः सोमवारी लाल सकलानी
फोटोः उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी से परमार्थ निकेतन के स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने शिष्टाचार भेंट की। उन्होंने मुख्यमंत्री को हरेला पर्व की बधाई दी तथा पौंधा भी भेंट किया।
पर्यावरण संवर्धन एक सामूहिक उत्तरदायित्व है। सामूहिक प्रयास व संकल्प में ही हरेला दिवस की सार्थकता निहित है। कल पूरे देश में हरेला दिवस जोश खरोश के साथ मनाया गया, लेकिन उसे हम रस्म अदायगी न समझे। निरंतर पर्यावरण को बचाने का प्रयास करते रहें। इसी परिप्रेक्ष्य में आज मैं प्रस्तुत कर रहा हूं अपना एक लेख ।
पर्यावरण दर्शन पर प्राचीनतम एवं सर्वोत्कृष्ट उक्ति है। “माता भूमि पुत्रोंsहम पृथिव्या:।” मानव विकास का मुख्य कर्ता है, वह प्रकृति की उपज है, सर्वस्व नहीं है। अत: उसका व्यवहार प्रकृति के अनुकूल अपेक्षित है। प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार यह उसका व्यवहार होना परम आवश्यक है।
हमारे धर्म ग्रंथों, साहित्य, कला एवं दर्शनशास्त्र में धरती को सुंदर स्वच्छ रखने के लिए अनेक दृष्टांत हैं। भारतीय संविधान की धारा 48 में प्रावधान है कि राज्य देश के पर्यावरण की सुरक्षा करेगा। देश के जंगलों वह वन्यजीवों की रक्षा करेगा, लेकिन देश में कानून व नियमों का समुचित पालन नहीं किया जाता है, या लागू नहीं किए जाते हैं। जिससे इच्छाशक्ति की कमी महसूस की जा सकती है। 05 जून सन 1972 विश्व की इतिहास का स्वर्णिम दिन है। इसी तिथि से प्रतिवर्ष विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का संकल्प लिया गया। जिसके फलस्वरूप पर्यावरण सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी, जो निरंतर गतिमान है।
जून 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरो में 12 दिवसीय पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन हुआ । उसके कारण एक नई दिशा प्रशस्त हुई। यह सम्मेलन इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि विश्व के 178 देशों के राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने इसमें भाग लेकर 900 पृष्ठों का ब्लूप्रिंट तैयार करके प्रस्तुत किया था। पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन, प्रदूषण नियंत्रण, जलवायु परिवर्तन पर चर्चा हुई थी और व्यापक एजेंडा तैयार किया गया था। यह एक ऐतिहासिक पहल थी।
पर्यावरण अध्ययन के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय कमीशन में ब्रांट कमीशन एक था। जिसने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था, क्या हम अपने उत्तराधिकारियों के लिए जला हुआ विश्व छोड़ रहे हैं? जिसका पर्यावरण बीमार है। बढ़ती हुई जनसंख्या, उद्योगों , वाहनों द्वारा पर्यावरण निरंतर नष्ट होता जा रहा है। इसी प्रकार लेस्टर ब्राउन ने अपनी पुस्तक (द ग्लोबल इकोनामिक प्रोस्पेक्ट्स) में मूलभूत चार वैज्ञानिक व्यवस्थाओं के ह्रास का उल्लेख किया था। जिनमें वन क्षेत्र, मत्स्य क्षेत्र, घास के मैदान और कृषि क्षेत्रों की व्यवस्था में का वर्णन किया गया है। जो कि पाठ्यक्रमों में भी सम्मिलित है।
इसी तथ्य को प्रख्यात पर्यावरणविद्, चिपको आंदोलन की प्रणेता स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा जी द्वारा एक आंदोलन के रूप मे देखा और प्रस्तुत किया गया। उनके अनुसार युद्ध का भय, पर्यावरण प्रदूषण और भूख ऐसे महा प्रश्न हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणी मात्र के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। उपाय सुझाते हुए श्री बहुगुणा ने क्रांतिकारी नारा दिया था- धार आंच पाणी, ढाल पर डाला /बिजली बढ़ावा, खाला -खाला।
पर्यावरण विकास पर संसार आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट में लिखा, ऐसा विकास जो सुनियोजित गति से चलता रहे। विकाश वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करें और भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गिरकर समझौता ना करें। वह भी बहुत प्रशंसनीय था।
पर्यावरण संवर्धन के लिए संस्कृत साहित्य में वर्णित है न वित्तयेन तर्पणें मनुष्य: तथा महाभारत में भी एक स्थान पर लिखा है न मनुष्यात हीं श्रेष्ठतरहि किंचित। अर्थात मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं बल्कि उसकी उपज है । उसकी श्रेष्ठता सापेक्ष और निरपेक्ष नहीं है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह धरती का उपयोग करें न कि अनियोजित व अनुचित शोषण।
सन 2005 में क्योटो सम्मेलन के लागू होने के बाद पर्यावरण सुरक्षा के प्रति जागरूकता व नव चेतना उत्पन्न हुई। जीवाश्म इंधन विशेषकर पेट्रोल, पेट्रोल के पदार्थों के स्थान पर ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत तलाशे गए। जिसके कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड आदि गैसों के दुष्प्रभाव को सीमित किया जा सकें। जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग जो वर्तमान में सबसे ज्वलंत मुद्दे हैं। उन पर ध्यान दिया जा रहा है, जिसके कारण स्वरूप जैव विविधता एवं प्राकृतिक परितंत्रों में प्रजातियों का पलायन हो रहा है।
ओजोन परत के ह्रास कारण अनेक दुष्प्रभाव जीवन पर पड़ रहे हैं। खास तौर पर जो हमारी सुख समृद्धि का स्रोत है उसकी पारिस्थितिकी के रक्षा उसके वनों, वन्यजीवों की सुरक्षा अविरल बहती हुई स्वच्छ और पवित्र जल धाराओं के रक्षा, उसकी हिमानियों, घाटियों, मिट्टी आदि की रक्षा, राजा भगीरथ की सादगी व संयम का मार्ग प्रशस्त करके हमें आगे बढ़ना है। कल्याणकारी मार्ग द्वारा ही पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।
स्वर्गीय श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा था- आज हमारे सामने जिंदा रहने का संकट पैदा हो गया है । हर व्यक्ति को इस सवाल का उत्तर देना होगा कि क्या हम प्रकृति के कसाई बन कर मौज मस्ती करेंगे या उसके साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जिससे कि अनंत काल तक भावी पीढ़ियों का पोषण धरती करती रहे।
इसलिए खुशहाल बनने का एक रास्ता है कि हमे पृथ्वी के घाव को भरना होगा। जल, जंगल और जमीन की बुनियाद को बढ़ाकर अगली पीढ़ी को निरंतर लाभान्वित करना होगा। पर्यावरण की इस समस्या को रस्म अदायगी के रूप में लेकर कानूनी व तकनीकी रूप से भी इसे समझा जाए, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से समझा जाए। प्रबंधकीय स्तर पर विद्यालयों के ईको क्लबों को सबल किया जाए। पर्यावरण चेतना हेतु बुद्धिजीवियों, पर्यावरण शास्त्रियों, शिक्षकों व विद्यार्थियों को सम्मिलित किया जाए। भारतीय चिंतन के अनुसार धर्म की बात के द्वारा भी इस चेतना को बढ़ाया जाए। इस प्रकार सामूहिक प्रयासों के द्वारा ही पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है। इसी सामूहिक प्रयास में विश्व पर्यावरण दिवस या हरेला दिवस की सार्थकता निहित है।
लेखक का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।