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November 13, 2025

काली कुमाऊं में अभी भी कायम है सामुहिक बेट प्रथा, जानिए क्या करते हैं ग्रामीण

आदिकाल से चली आ रही बेट परंपरा के अनुसार गांव के ग्रामीण सामुहिक रूप से बेटि के घर के फसल संबंधित छूटे कार्यों को कुल देवता के जयकारे के साथ हुड़के की थाप पर निपटाते हैं।

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में काली कुमाऊं के पाटी विकासखंड में एक अनोखी पारंपरिक प्रथा बेट अभी भी कायम है। सामुहिक परंपरा पल्ट की तरह ही इस परंपरा को यहां के ग्रामीण बखूबी निभाते रहे हैं। आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के मुताबिक समस्त ग्रामीण सामुहिक रूप से बेटि के कामों को मिलजुल कर निपटाते हुए देव स्तुति और ऋतु गीत गाते सुने जा सकते हैं।
काली कुमाऊं के पाटी विकासखंड के चाल्सी पट्टी डुंगराकोट ग्राम सभा में बेट प्रथा हरेले के बाद पंचमी, शष्टी या सप्तमी के दिन जागर बाइसी के दौरान मनाई जाती है। इसे बेट लगाई भी कहते हैं। इस प्रथा के अनुसार मंदिर पुजारी या फटशिला देव डांगर (जिसके घर बेट लगाई जाती है, उसे बेटि कहा जाता है) की मदद को गांव के लोग पहुंचते हैं। ग्रामीण उनकी फसलों की गुड़ाई बुवाई आदि के रुके कार्य किए पूरे करते हैं।
काली कुमाऊं में आज भी अनेक परंपराओं का निर्वाह किया जाता रहा है। यह वह विधा है जो आदिकाल से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए इन मान्यताओं का होना जरूरी ही नहीं, अति आवश्यक भी है। इन्हीं मान्यताओं और परम्पराओं के साथ कालांतर से मानव सभ्यता लगातार विकसित होती जा रही है।


इस परंपरा के अनुसार देवता के नाम से बेट लगती है। डांगर के घर में फसल की बुवाई गुड़ाई आदि छूटे कार्यों के लिए ग्रामीण सहभागिता करते हैं। हुड़के बाज आगे आगे अपने हुड़के की थाप में देवगाथा गाते हुए चलते हैं। इस दौरान देवता की जय जय कार के साथ ग्रामीण सामुहिक रूप से बेट परंपरा का निर्वहन करते हैं।
परंपराओं का निर्वाह भी है जरूरी
परंपरा किसी पहचान की मोहताज नहीं। परंपराओं के निर्वहन के लिए हमें अपने आसपास के लोगों से ही सीख मिलती है। जन्मदिन से लेकर मरणासन्न तक में अनेक परंपराओं का पालन करना मानव सभ्यता को विरासतन मिला है। जैसे जब किसी घर में एक बच्चे का जन्म होने के बाद से घर के लोग पारंपरिक तौर तरीकों से नामकरण, अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत, शादी विवाह आदि की तैयारी शुरू कर देते हैं। इन आयोजनों में सामुहिक भोज के साथ नाते रिश्तेदारों को बुलावा भेजा जाता है। उपहार स्वरूप यथासंभव दान और भोज कराया जाता है। इस प्रकार परंपराओं का निर्वाह समाज के लिए जरूरी माना गया है जो आदिकाल से चला आ रहा है।

लेखक का परिचय
ललित मोहन गहतोड़ी
शिक्षा :
हाईस्कूल, 1993
इंटरमीडिएट, 1996
स्नातक, 1999
डिप्लोमा इन स्टेनोग्राफी, 2000
निवासी-जगदंबा कालोनी, चांदमारी लोहाघाट
जिला चंपावत, उत्तराखंड।

Bhanu Bangwal

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मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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