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December 18, 2024

यहां तालाब को खाली कराने के एक राजा ने किए प्रयास, आसमान से बरसे तीर, जानिए पर्यटन स्थलों के रहस्यों की कहानी

उत्तराखंड के चमोली जिले में जहां हिंदुओं के तीर्थ स्थल हैं, वहीं, सिखों का पवित्र धाम हेमकुंड साहिब भी हैं। चारधामों में से एक बदरीनाथ धाम करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है। कहा जाता है कि भविष्य में भूस्खलन की संभावनाओं को देखते हुए ऐसी धारणा है कि बदरीनाथ धाम के रास्ते बंद हो जाएंगे। तब भगवान बदरी विशाल की पूजा के लिए जो स्थल आदि शंकराचार्य जी ने चयनित किया, उसी स्थान पर भविष्य बदरी मंदिर है। कई पर्यटक स्थल, ताल और मंदिर अपने में रहस्य हैं। आइए हम चमोली जिले के पर्यटन और तीर्थ स्थलों से जुड़ी ऐसी रोचक जानकारी देते हैं।
भविष्य बदरी

चमोली जिले में जोशीमठ-नीति बस मार्ग पर जोशीमठ से 18 किलोमीटर आगे सलधार नामक स्थान है। यहाँ पर एक अत्यन्त उष्ण जल स्रोत है। यहाँ से चार किलोमीटर पैदल चढ़ाई का पर्वतीय मार्ग तय करके सुभाई गाँव है। जहाँ आदि गुरू शंकराचार्य की ओर से स्थापित भगवान बदरीनाथ का मन्दिर है। ऐसी धारणा है कि भविष्य में भू-स्खलन के कारण जब बदरीनाथ मन्दिर जाकर पूजा-अर्चना करना सम्भव न हो सकेगा तो यही श्री बदरीनाथ जी की पूजा हुआ करेगी। इसीलिए भगवान बदरीनाथ जी के इस मंदिर को भविष्य बदरी भी कहा जाता है।


पांडेकेश्वर जहां पांडवों के पिता पांडु ने की थी तपस्या
पाण्डुकेश्वर की स्थिति हरिद्वार-बदरीनाथ मार्ग पर 296 किलोमीटर और बदरीनाथ से 28 किलोमीटर है। यह 6000 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित है। धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पंचबदरी में से एक योग-ध्यानबदरी का मन्दिर है। मन्दिर के समीप ही पहाड़ी पर पाण्डु शिला है। जहाँ पाण्डवों के पिता पाण्डु ने श्राप मुक्त होने के लिए तपस्या की थी।
कुबेरजी की होती है पूजा
पाण्डुकेश्वर में अनेक प्राचीन ताम्रपत्र मिले हैं, जो कत्यूरी नरेशों के हैं। पाण्डुकेश्वर के मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए विख्यात रहे हैं। यहाँ कुबेर का स्थान भी है। आज भी बदरीनाथ की धातु वाली उत्सवमूर्ति पाण्डुकेश्वर के मन्दिर में लाकर रखी जाती है और नित्य पूजित होती है।

कल्पेश्वर जहां इंद्र ने की थी तपस्या
श्रीनगर बदरीनाथ मार्ग पर स्थित पीपलकोटी से 22 किलोमीटर आगे हैलंग नामक एक स्थान है। हैलंग से दस किलोमीटर पैदल यात्रा कर उर्गम गाँव पहुँचने पर कल्पेश्वर महादेव मन्दिर के दर्शन होते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार पूर्व काल में इन्द्र ने इस पुण्य स्थल पर तपस्या
के फलस्वरूप कल्पवृक्ष की प्राप्ति की थी। पंचकेदार में इस मन्दिर का पांचवां स्थान है। मन्दिर में शिव पद्धति से पूजा का विधान है। यहाँ पर भगवान को जटा के रूप में पूजा जाता है।
लातादेवी मंदिर में आकाश से गिरी खड्ग विद्यमान
यह जोशीमठ से 15 किलोमीटर आगे भविष्यबदरी मोटर मार्ग पर स्थित है। लातादेवी मन्दिर में आकाश से गिरी खड्ग विद्यमान है। प्रत्येक चौबीस वर्ष में यहाँ विशाल मेला लगता है, उसमें बलिदान को महत्ता दी जाती है। हालांकि अब पशुबलि समाप्त हो गई है। जिस पर पत्थर की शिला पर बलिदान होता था, वहाँ एक ओखली की तरह छोटा सा कुंड है। कहते हैं वह कुंड बरसात में पानी से भर जाता है, परन्तु कितने भी बलिदान हो जायें, वह रक्त से नहीं भरता।
ग्वालदम में प्रकृति ने बिखेरे हैं मनोरम दृश्य
गढ़वाल तथा कुमाऊँ की सीमा पर ग्वालदम स्थित है। यह जनपद चमोली का आकर्षक सैरगाह है। यहाँ पहुँचने के लिए हरिद्वार ऋषिकेश होकर कर्णप्रयाग तथा कर्णप्रयाग से अन्य बस द्वारा 66 किलोमीटर यात्रा तयकर के कर्णप्रयाग-अल्मोड़ा मार्ग पर ग्वालदम है। यहाँ वन विभाग के विश्रामगृह के समीप एक प्राकृतिक झील है। इसमें कार्प, महासीर तथा ट्राउट मछलियाँ पायी जाती हैं।

यहाँ से हिमाच्छादित त्रिशूल (23360 फीट) व नन्दा घुंटी (20700 फीट) सदैव पर्यटकों को दर्शनार्थ आमन्त्रित करते रहते हैं। ब्रिटिश काल में लगाये गये चाय बागान आज भी यहाँ पर अपनी मनोरम छवि लिये हुए हैं। देवदार, चीड़, बुरांश व बाँज के सघन जंगलों के मध्य बसा यह नगर अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। इसका क्षेत्रफल लगभग चार वर्ग किलोमीटर है।
ग्वालदम से दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग नौ किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के पश्चात् ग्वालदम-नाग क्षेत्र है। यहाँ पर ढालदार मैदानों के किनारे पर नाग देवता का मंदिर घने जंगलों से आच्छादित है। यहाँ से सात किलोमीटर की दूरी पर 8000 फीट की ऊंचाई पर देवी का एक पौराणिक मन्दिर है। इसके समीप गढ़वाल के राजाओं द्वारा निर्मित किला है। जिसके अब अवशेष मात्र शेष हैं। यह बघानगढ़ी कहलाता है। यहाँ से हिमालय का विहंगम दृश्य मिलता है।
नन्दप्रयाग में अलकनंदा और नंदाकिनी नदी का होता है संगम
सागर तट से 3000 फीट की ऊँचाई तथा हरिद्वार से 221 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ की जलवायु साधारणतया शीत है। हिमालय सुता अलकनन्दा यहाँ नन्दाकिनी नदी को गले लगाती है। इसलिए इस क्षेत्र एवं संगम को नन्दप्रयाग के नाम से पुकारते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सपर्पित उत्तराखण्ड के स्वतंत्रता सेनानी श्री अनुसूया बहुगुणा की यह जन्मभूमि और कर्मक्षेत्र रहा है। साथ ही डॉ. हरिकृष्ण वैष्णव को जन्म भूमि भी यही है। डॉ. हरिकृष्ण उत्तराखण्ड के ही नहीं अपितु देश की राजधानी दिल्ली के प्रसिद्ध चिकित्सकों में से गणमान्य थे। नन्दप्रयाग का प्राकृतिक स्वरूप एवं वातावरण अति ही मनमोहक है। चारों ओर दूर तक समतल भूमि, सुदूर पर्वतमालायें स्थित हैं।
नंदादेवी राजजात
चमोली जिले के नौटी गाँव से प्रारम्भ होने वाली यह विश्व की सबसे लम्बी 280 किलोमीटर पैदल यात्रा है। राजजात बारह वर्ष में एक बार आयोजित की जाती है। कर्णप्रयाग से सिमली होते हुए नौटी गाँव पहुँचा जा सकता है।


इस राजजात के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसका आरम्भ नौंवी शताब्दी में उस समय हुआ था जब चाँदपुर गढ़ी के राजा शीलपाल ने अपने गुरू नौटी गाँव ब्राहमणों के यहाँ श्री नंदा यंत्र को एक चबूतरे पर जमीन के नीचे स्थापित किया था। इस नंदा यंत्र की पूजा अर्चना राजगुरू किया करते थे। चाँदपुर गढ़ी के समीप कांसुवा में चाँदपुर पंवार वंशीय राजा का छोटा भाई भी रहता था। राजा ने उसे अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया था। प्राचीन परम्परा है की कांसुवा के कुंवरों को मनौती के बाद इस क्षेत्र में चार सींग वाला एक मैढ़ा पैदा होता है। समझा जाता है कि मेढ़े के जन्म लेते ही नंदा मायके चली जाती है।


हिमालय पुत्री नन्दा अपने मायके से कोसों दूर बीहड़ पर्वतों के मध्य स्थित कैलाशपर्वत पर धूनी रमाये शिवजी से ब्याही गयी थी। पर्वतराज की बेटी नंदा इतने लम्बे सुनसान रास्तों से बारह वर्ष के बाद ही अपने मायके आ पाती है। जब वह मायके आती है तो आस-पास के समस्त क्षेत्र उत्सव में डूब जाते हैं। कुछ दिन के बाद नंदा जब ससुराल जाती है तो गाँव के गाँव उस विदाई समारोह में भाग लेने के लिए उमड़ पड़ते हैं। इस प्रकार हिमालय की बेटी नंदा को ससुराल विदा करने की इस सांस्कृतिक परम्परा को राजजात के रूप में मनाया जाता है। यह हिमालय सभ्यता की प्राचीनतम परम्पराओं में से एक है। इस दुर्लभ सांस्कृतिक परम्परा व मर्यादाओं को आज सहेज कर रखने की अधिक आवश्यकता है।
मथकोट जहां कभी रहा होगा न्यायालय
जोशीमठ-नीति मोटर मार्ग पर सात किलोमीटर आगे एक पहाड़ी परम्परानुसार बसा गाँव बड़ागाँव है। इस बड़ागाँव के ठीक ऊपर एक टीला है, जो एक रमणीक स्थान है। यहाँ के प्राचीन खण्डहर बने जलाशय, गढ़वाल नरेश के गढ़ होने की ओर संकेत करते है। एक स्थानीय पर्वतीय गीत के अनुसार तीन रानियों का वर्णन आता है, जो यहाँ रहती थी। स्थानीय बोली के आधार पर ‘मुथ’ या ‘मौथा’ शब्द बड़े के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तथा ‘कोट’ न्यायालय हुआ। ऐसा अनुमान है कि यहाँ कभी गढ़वाल नरेश का पैनखण्डा गढ़ प्रधान न्यायालय रहा होगा। न्यायाधीश राजवंशी ही होंगे। इसलिए उनकी पत्नी को रानी के ही नाम से प्रजा पुकारती होगी। तीन रानियों में रानी प्यारमती सभी में प्रधान थी। जिसका स्नानागार मथकोट में आज भी दृष्टव्य हे।
मथकोट के पूर्व दिशा में एक फलांग दूर सोनधारी नामक स्थान है। कहते हैं यहाँ कभी सुवर्ण से निर्मित धारे थे। पत्थर का बना धारा और चारों ओर तरासे पत्थर आज भी अपनी प्राचीनता दर्शाते हैं। यह वही स्थान है जहाँ से जोशीमठ का प्राचीन भव्य वासुदेव मन्दिर का कलश दिखाई देता है। हो सकता है रानी सुवर्णा ने अपना स्नानागार इसी दृष्टि से यहाँ पर बनाया हो कि स्नान के बाद भगवान वासुदेव के मन्दिर के दर्शन नित्य हो जायें।
ऊटालिंग
बड़ागाँव-तपोवन मोटर मार्ग पर, बड़ागाँव से एक किलोमीटर आगे मोटर मार्ग से ही मिला एक अनोखा लिंगीय आकृति का विशाल पर्वतनुमा पत्थर है। जो मार्ग के बायीं ओर अकेले प्रहरी की भाँति खड़ा है। इसे पूर्व दिशा की ओर से देखने पर शिवलिंग का आभास होता है। उत्तर दिशा से देखने में लम्बी गर्दन वाले ऊँट की तरह दृष्टिगत होता है, इसलिए इसके नाम के साथ ऊँट और लिंग दोनों ही जुड़ गये।
हरियाली देवी के दर्शन के लिए बने हैं नियम, महिलाओं का प्रवेश वर्जित
चमोली जनपद के 10000 फीट की ऊँचाई की चोटी पर त्रिपुर बाला सुन्दरी हरियाली देवी का मन्दिर है, जो कि शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। इस शक्ति पीठ का महत्व इसलिए भी अधिक है कि आज भी पौराणिक परम्पराओं के साथ नियमों का पूरी तरह यहाँ पालन किया जाता है। नियम विरूद्ध चलने का डर स्वयं लोगों में पैदा हो जाता है। जिससे एक शुद्धता बनी है। इस मंदिर में प्रवेश के लिए एक सप्ताह पूर्व प्याज, लहसुन, माँस-मदिरा का त्याग करना अनिवार्य है।
यहाँ पहुँचने के लिए लगभग नौ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। मंदिर में मुख्य
रूप से एक शिला है, जिस पर बालों की तरह की आकृति के रेशे हैं। कहा जाता है कि शंकराचार्य जब बदरीनाथ जा रहे थे तो गुलाबराय में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। देवी स्वप्न में आई ओर कहा कि उसकी पूजा किये बिना वह आगे नहीं जा सकते। शंकराचार्य ने देवी की पूजा की तो वह स्वस्थ हो गये। दीपावली के पहले दिन प्रतिवर्ष जशोली से हरियाली कांठा देवी की डोली यात्रा चलती है। हरियाली कांठा में देवी पूजन से लौट कर ही दीपावली मनायी जाती है। महिलाओं को हरियाली कांठा मंदिर में प्रवेश वर्जित है।
यह यात्रा भी अपने में एक महत्त्वपूर्ण होती है। रात्रि लगभग आठ बजे जशोली से गाजे-बाजे ओर उत्साह के साथ यह यात्रा चलती है और ठीक सूर्योदय पर हरियाली कांठा में पहुँचती है। देवी की डोली को मन्दिर से दूर ही रखा जाता है। इसके लिए आस्था है कि रात्रि को शेर आकर देवी को नदी के जल से स्नान कराता है। स्नान कराने के लिए शेर अपने कान में पानी भरकर लाता है। मंदिर में पूजा अर्चना कर डोली वापस जशोली गाँव को लौटती है। गाँव पहुँचने के बाद ही यहाँ के निवासी दीपावली का त्यौहार मनाते हैं।
तपोवन
जोशीमठ-नीति मार्ग पर, जोशीमठ से बस मार्ग द्वारा 15 किलोमीटर दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थान है। भारत देश में आदि काल से ही ऋषियों-मुनियों एवं सन्तों-महात्माओं के निवासों के निवासों को आश्रम या तपोवन का नाम दिया जाता रहा है। इस शीत क्षेत्र में यहाँ के गरम जल स्रोतों ने समय-समय पर साधु-सन्तों को भी आकर्षित किया है। इस स्थान को स्थानीय लोग ‘ तातापाणी’ नाम से भी पुकारते हैं। इस प्रकार तातापाणी से ही तपोवन नाम प्रचलन में आया होगा। रामायण कालीन तप्तजल कुण्ड के कारण ही इस क्षेत्र की महत्ता अधिक हुई है।
भेंकलताल में पर्यटक भी भूल जाते हैं थकान
हरिद्वार से 194 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग, कर्णप्रयाग से 45 किलोमीटर की दूरी पर थराली है। जो कि चमोली जिले की एक तहसील व विकासखण्ड भी है। थराली से प्राणमती नदी के किनारे पैदल मार्ग से सात किलोमीटर की यात्रा कर केराबगढ़ पहुँचा जाता है। केराबगढ़ से चार किलोमीटर की चढ़ाई के उपरान्त ढाडरबगड़ गाँव आता है। ढाडरबगड़ से दो किलोमीटर के अन्तराल पर बसा है रतगाँव। यह गाँव अत्यधिक ऊँचाई पर बसे होने के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत है।


आलू उत्पादन के क्षेत्र में इसका चमोली जनपद में प्रमुख स्थान है। गाँव में लाट, भैरव, नृसिंह, भेंकलनाग व कई वन देवी देवताओं के मन्दिर हैं। क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से गाँव की सीमा बहुत बड़ी हैं। मुख्य रतगाँव से दो किलोमीटर की चढ़ाई पर है मखमली घास का मैदान, जिसे तालगैर के नाम से जाना जाता है। मैदान को बीचों बीच विभाजित करती एक सर्पिलाकार लघु जलधारा है, यह जलधारा कलताल से भूमिगत होकर आती है।
ग्रामवासी इसे नागराज भेकल का मार्ग बताते हैं। धारा के निचले छोर पर भकलनाग का मन्दिर भी है। इसी मैदान में प्रति वर्ष जून-जुलाई के माह में मेले का भी आयोजन किया जाता है। इस मैदान से भेंकलताल पहुँचने के लिए पुन: चढ़ाई का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। घने जंगलों के मध्य से गुजरना बड़ा ही रोमांचकारी लगता है। थका हुआ पर्यटक भी मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत हो अपनी सारी थकान भूल अग्रिम पाँच किलोमीटर की चढ़ाई स्फूर्ति से पूर्ण कर लेता है। कुछ ही क्षणों में दिखने लगती है 9500 फीट की ऊँचाई पर स्थित दर्पण सी चमकती सुन्दर झील-भैंकलताल। चारों ओर सुन्दर महकता हुआ जंगल, जिसमें भोजपत्र, बाँज, बुरांश, देवदार, थुनेर आदि वृक्ष ताल को घेरे खड़े है। झील आधा किलोमीटर से अधिक का क्षेत्रफल लिए आयताकार आकृति में फैली हुई है।


झील की गहराई का अनुमान मुश्किल
इस रहस्यमय झील की गहराई का सही अनुमान लगाना कठिन है। झील के लगभग मध्य में
पुष्पपादप नुमा झाड़ी है। वह किस प्रकार झील में स्थिर है, यह एक रहस्य है। समीपस्थ गाँव रतगाँव वालों की मान्यता है कि झील में कोई प्राचीन विशाल मन्दिर समाहित है। जिसके शिखर पर यह झाड़ी स्थिर है। झील के दक्षिणी छोर पर एक पुराना बाँज वृक्ष है। जिस पर अनेकों घंटियाँ टंगी हुई हैं। जब कभी अतिवृष्टि या सूखा पड़ता है तो समीवर्ती गाँवों के लोग यहाँ नागराज भेंकल की पूजा अर्चना कर घंटी बांध देते हैं। जिससे उनकी इच्छा पूरी हो जाती है। झील के चारों ओर जंगल में आधा किलोमीटर के क्षेत्रफल में लोहे के छोटे-बड़े तीर मिलते हैं।
आकाश मार्ग से गिरे तीर और भागे सैनिक
ग्रामवासियों का कहना है कि जिस समय गढ़वाल में गोरखों का साम्राज्य था। उस समय कोई गोरखा राजा झील के रहस्य को सुनकर यहाँ पहुंचा तथा झील में समाहित विशाल मन्दिर को देखने की उत्सुकतावश तालाब को अपनी सेना द्वारा खाली करवाना चाह रहा था, तभी आकाश मार्ग से तीर उन पर गिरे, जिससे राजा व उसके सैनिक भाग खड़े हुए।
ब्रह्मताल
भैंकलताल से सघन जंगल की चढ़ाई पार कर दो किलोमीटर की यात्रा उपरान्त तेलांगी बुग्याल के दर्शन होते हैं। तेलांगी से एक किलोमीटर पूर्व की ओर भरणपाटा नामक स्थान पड़ता है। यहाँ पर सरकारी भेड़फार्म है। यहाँ से बुग्याल के मध्य से ढाल शुरू होता है। लगभग पन्द्रह मिनट की यात्रा के पश्चात् 10000 फीट की ऊँचाई पर स्थित सुप्रसिद्ध झील-ब्रहाताल के दर्शन होते हैं। चारों ओर हरी-भरी घास और दुर्लभ जड़ी-बूटियों के ढलानों के बीच स्थित है यह झील। झील और उसके चारों ओर का प्राकृतिक सौन्दर्य किसी परीलोक का आभास कराता है।
बैरी तोक पर्व, यानी दुश्मन पर निशाना साधना
चमोली जनपद में 11000 फुट की ऊँचाई पर बसे गमशाली गाँव की छटा अलौकिक है। नितिघाटी में स्थित यह गाँव प्राकृतिक वन सम्पदा से भरपूर है। यहाँ का विशेष उत्सव बैरी तोक हैं इस उत्सव के दौरान ढोल दमाव की तालों के साथ समूचा गाँव थिरकने लगता है। भकोरों की आवाज घाटी को गुंजायमान कर देती है। चांचढ़ी गीत नृत्यों साथ पहाड़ियाँ भी झूमती प्रतीत होती है। बैरी तोक भोटिया जाति का शब्द है, इसका अर्थ है दुश्मन पर निशाना
साधना। यह उत्सव प्रतिवर्ष श्रावण की संक्राति को होता है। इस दिन प्रात:काल घर के आँगन को गोबर से लीपकर उसमें विभिन्न रंगों के फूलों की अल्पना सजाई जाती है। साथ ही गाँववासी घी में तली पूरी तथा पकौड़ी तैयार कर लकड़ी के बर्तन में पीला रंग घोलकर पहले अपने ईष्ट देवता फैला देवता पर तैयार किये गये पकवान तथा पीला रंग चढ़ाते हैं।

तत्पश्चात् आपस में पकवान को बाँटते है। फैला देवता शिव का रूप माना जाता है। इसे इनके पूर्वज तिब्बत से लाये थे। फिर आरम्भ होता है गाँव के मुखिया का आह्वान, वह बैरी तोक के आयोजन के लिए सबको गाँव के ऊपर बने समतल मैदान पर आमन्त्रित करता है। इस तप्पड़ में गाँव के उत्साही पुरूष पहले से ही बैरी तैयार कर लेते हैं। बैरी तैयार करने के लिए दलदली भूमि को ऊपरी सतह को उखाड़ उसे एक लकड़ी के सहारे खड़ाकर उसकी नाभि फूलों के गुच्छों से तैयार कर देते हैं।

चार धनुषों की मान्यता

बैरी पर निशाना साधने के लिए चार धनुष लाये जाते हैं। पहला धनुष पदान का, दूसरा धनुष गणज्या का ( यह दोनों उत्सव में गीत गाने वाले होते हैं), तीसरा धनुष फोनिया लोगों का और चौथा धनुष अर्जुन का गाण्डीव है। इसके बाद बैरी पर तीर मारने के इच्छुक लोग दो दलों में बँट जाते हैं। एक दल पदान का और दूसरा गैरपदान का। बैरी पर बाण सिर्फ गमशाली गाँव के लोग ही मार सकते हैं। अन्य गाँवों की उमड़ी भीड़ सिर्फ उत्सव देखने वालों की होती है। कौन होगा धुनर्धर यह जिज्ञासा उत्सव में भाग लेने वालों के मध्य बनी रहती है। बैरी का तोका जाना आवश्यक है, क्योंकि यह समूचे क्षेत्र के लिए शुभ का संकेत होता है। बैरी पर तीर लगने के साथ ही उत्सव समाप्त हो जाता है। फिर आरम्भ होता है निशाना साधने वाले व्यक्ति का सम्मान और पौणा नृत्य। गाँव वाले बैरी को रोग और प्राकृतिक आपदा का सूचक मानते हैं। अतः इस पर विजय पाने के लिए बैरी तोक उत्सव मनाया जाता है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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