ग्रामीण कर रहे थे मंदिर की सफाई, झाड़ियों में मिले पनचक्की के अवशेष, रखा जाएगा मंदिर के संग्राहलय में
बराई सारी में नहर के किनारे मन्दालघाटी से लगे का गेंहूं पिसाई का साधन प्राचीन भारतीय संस्कृति का संसाधन रहा है। लोगों के देखते-देखते सन 1980 के दशक तक यह “घट” बहुत ही अच्छी तरह से सही सलामत कार्य रहे थे। उस जमाने में डीजल या बिजली से चलने वाली गेंहूं पीसने की मशीनें नहीं हुआ करतीं थीं। मन्दाल नदी पर ही अनेको “घट” हुआ करते थे। ये घट जामरी, बगेड़ा, बराई, धामधार सहित कई स्थानों पर थे। इन घट से इस पास के गांव ल्वींठा, गिंठाणा, झुंडै सारी, जुकणिया, बगेडा, बसड़ा गुजरी, तिमलसैंण, बरई, चांदपुर आदि गांव के ग्रामीण गेहूं या अन्य अनाज की पिसाई करते थे।
फोटोः ऐसे पीसा जाता था घराट में गेहूं
आज आधुनिकता की चकाचौंध में घराट का अस्तित्व लगभग समाप्त होता जा रहा है। पहले नदियों के पानी से ये घराट चलते थे और अनाज की पिसाई का सबसे सुलभ संसाधन ये ही थे। सामाजिक कार्यकर्ता सयन सिंह रावत निवासी ग्राम बराई ने बताया कि झाड़ियों में मिले घराट के अवशेष को टाण्डा महादेव मन्दिर समिति को सौंप दिया जाएगा। साथ ही इन्हें टाण्डा महादेव मंदिर के संग्रहालय में पूर्वजों की विरासत के रूप में संजो कर रखा जाएगा।
समिति के धीरेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि इतना भारी-भरकम बहुत ही खूबसूरती से तराशा हुआ यह विशाल वृत्ताकार पत्थर कहां से तैयार किया गया होगा। वो भी ऐसे समय जब किसी वाहन की आवाजाही के लिए सड़क तक नहीं थी। इससे पता चलता है कि पुरानी पीढ़ियों का दैनिक जीवन कितना कठिन रहा होगा। हिमालयन ग्रामीण इतिहास संस्कृति, सभ्यता और परम्परा परिषद् के इतिहासकार और शोधकर्ता डॉ. अम्बिका प्रसाद ध्यानी का कहना है कि इस तरह की कई प्राचीन भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक धरोहर उत्तराखंड में बिखरी पड़ी हैं। इन पर शोध कार्य करने की आवश्यकता है।
फोटोः बाहर से ऐसे दिखते थे घराट
उन्होंने कहा कि ऐसे ही गोरखा आक्रमण के समय की पत्थरों पर अंकित भित्ति चित्र, पैरों के निशान, तैड़िया के पालपुर, खत्ता मन्नोरीगांव, द्यूंऴ्यूरौल, जन्दरगड्डी की मृण्मूर्तियां, छोटी छोटी मूर्तियां, शिव-पार्वती, भूमिया पत्थर, पूजा, झर्त गांव में दबी लोदी रिखोला कोठी की दीवारें, थोकदार प्रथाकालीन बड़े भवनों के खण्डहर, दुमंजिली गौशालाएं, पुराने घरों की नक्काशी आदि पर वर्तमान में शोध की जरूरत है। ऐसी ही सांस्कृतिक परम्पराओं, त्योहार, विलुप्त होती प्रथाओं पर अध्ययन हो तो आगन्तुक पीढ़ियों के लिये दिशानिर्देशन होगा।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।