500 साल पुराना ये नौला राष्ट्रीय महत्व का प्राचीन स्मारक घोषित, डॉ. अन्डोला से जानिए नौलों का रोचक इतिहास
मंदिरों की तरह नौलों को भी दिाया जाता था महत्व
उत्तराखंड में नौले का निर्माण एक खास वस्तुविधान के अंतर्गत किया होता है। प्राचीन काल में पहाड़ों में घरों के आसपास जो भूमिगत जल स्रोत होता था। उसे मंदिरों की तरह की महत्व दिया जाता था। मंदिरों के वस्तुविधानों की तरह नौलों को भी खास वास्तु विधान बनाया जाता था। इसकी बनावट भी आकर्षक होती थी। साथ ही इससे मिलने वाला जल भी शुद्ध होता था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
ऐसी होती है बनावट
मंदिरों के गर्भगृह की तरह नौलों का भी गर्भगृह और दो या चार खम्भों पर आधारित वितान हुआ करता था। गर्भगृह में मजबूत तराशे हुए पत्थरों से उल्टे यञकुंड अर्थात नीचे से ऊपर को बढ़ती चौड़ाई में सीढ़ीयुक्त जलकुंड बनाया जाता था। सीढ़ियों के प्रस्तरों को इस प्रकार जोड़ा जाता था कि पानी उनकी दरारों से रिस कर कुंड में इकट्ठा होता रहे। वर्गाकार या आयताकार इन नौलो के कुंड के ऊपर दोनों तरफ बड़े बड़े पटाल लगा कर कपडे धोने और नहाने के लिए अलग अलग व्यवस्था होती है। बैठने के लिए चबूतरों की व्यवस्था होती है। इसकी की छत को पहाड़ी घरों शैली में पत्थरों से ढलवा छत के रूप में आच्चदित कर दिया जाता था। प्रवेशद्वारों के खम्भों पर पुष्पों, बेलों या देवआकृतियों से अलंकृत किया जाता था। कुछ नौलों के वितानों पर देवाकृतियो और कमलदल फूलों का अंकन था। लगभग सभी नौले के माथे पर गणेश जी का अंकन किया जाता था। चन्द्रिका युक्त वितानों को सामान्यतया पटाल से ही आच्छदित करते थे।(खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
आसपास उगाए जाते थे धार्मिक महत्व के पेड़
नौलों की शुद्धता को अक्षुण रखने के लिए जलदेवता के रूप में शेषशायी विष्णुभगवान् की प्रतिमा को स्थापित किया जाता था। कुछ में आकर्षक सूर्यप्रतिमाओं से सुसज्जित हैं। कुछेक नौलों में ब्रह्मदेव की स्थापना भी मिलती है। गणेश भगवान् की स्थापना युक्त नौले उत्तराखंड में बहुताय मिलते हैं। नौलों के स्तम्भों पर द्वारपाल, अश्वरोही, नृत्यांगनाएं, कलशधारिणी, सर्प और पशु पक्षियों की मूर्तियों का अंकन मुख्यतः होता था। उत्तराखंड में अल्मोड़ा के स्यूनारकोट नौले में सरस्वती माँ और भगवान् विष्णु के दशावतारों का अंकन विशेष है। नौलों के आस पास, पीपल, सीलिंग जैसे धार्मिक महत्त्व के पेड़ लगाए जाते थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
कत्यूरकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का गवाह
अल्मोड़ा के स्यूनारकोट में कत्यूरकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का गवाह यह नौला कुमाऊं की प्राचीन स्थापत्य कला और जल संस्कृति का अद्भुत का उदाहरण है। इस बाबत भारत सरकार ने गजट नोटिफिकेशन जारी किया है। अल्मोड़ा के मटेना गांव में 1522 में कत्यूरी शासनकाल में नौला बना था। देखरेख के अभाव में यह मलबे से पट गया था। वर्ष 1522 में नौला बनने का शिलापट लगा था। इसके बाद दो साल पहले 500 साल पुराने इस नौले के जीर्णोद्धार का काम पूरा किया गया था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
राष्ट्रीय महत्व का प्राचीन स्मारक
सोमेश्वर तहसील के स्यूनराकोट गांव में प्राचीन नौले को राष्ट्रीय महत्व का प्राचीन स्मारक घोषित किया गया है। राष्ट्रीय स्मारक के रूप में नौले को पहचान मिलने से अब क्षेत्र की अन्य ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की उम्मीद भी जगी है। कुमाऊं के गांव-गांव में अलंकृत नौले बनाने की स्थानीय परंपरा रही है। प्राचीन समय से ही यह पेयजल के मुख्य स्रोत के रूप में रहे हैं। कत्यूर, चंद शासनकाल में बहुत से नौलों का निर्माण किया गया। जो आज भी ऐतिहासिक धरोहर के रूप में देखने को मिलते हैं। लोग आज भी उनसे शुद्ध पेयजल प्राप्त कर रहे हैं। स्यूनराकोट गांव में प्राचीन नौला कत्यूरी शासन काल का है। इसका निर्माण 14वीं सदी में किया गया था। लंबे समय से क्षेत्रवासी इस ऐतिहासिक नौले के संरक्षण की मांग कर रहे थे। जिसके बाद पुरातत्व विभाग ने सर्वे भी किया था। केंद्र सरकार प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम 1958 की धारा 4 उप धारा 1 के तहत प्राचीन स्मारक को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करने करती हैं। स्मारक को राष्ट्रीय महत्त्व घोषित करने का गजट नोटिफिकेशन जारी किया है। संस्कृति मंत्रालय की अधिसूचना में उल्लेखित है अगर किसी को कोई आपत्ति या सुझाव हो तो वह दो महीने के भीतर महानिदेशक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को जानकारी भेज सकता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सरल और संतुलित है निर्णाण कला
नौले की स्थापत्य कला नौले का निर्माण अत्यंत सरल संतुलित है। कुंड को सोपनयुक्त सीढ़ियों से पर्याप्त गहरा बनाया जाता गया है। वर्गाकार अथवा आयताकार कक्ष निर्माण में केवल गर्ग गर्भ ग्रह और अर्धमंडप, सस्तंभ मंडप की ही शैली अपनाई गई है। इसमें कुंड के ऊपर साधारण कक्ष बनाकर बरामदे में प्रवेश द्वार के दोनों ओर एक एक बड़ा पटाल लगाकर कपड़े धोने और नहाने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है। नौले में कुंड गठन वर्गाकार है। नौलों में कपाट की व्यवस्था नहीं है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
लंबे समय से हो रही थी संरक्षण की मांग
ऐतिहासिक नौले के संरक्षण की मांग लंबे समय से की जा रही थी। राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने के बाद से ऐतिहासिक धरोहर का संरक्षण हो सकेगा। कत्यूरकाल में सामरिक लिहाज से बेहद अहम स्यूनराकोट की तलहटी पर बने मंदिरनुमा प्राचीन नौले के राष्ट्रीय धरोहर घोषित होने से आने वाली पीढ़ी के लिए अध्ययन स्थली भी बनेगा। 14वीं सदी में निर्मित प्राचीन नौले में भगवान विष्णु के सभी दस अवतारों को दुर्लभ स्थापत्यकला के जरिये अलंकृत किया गया है। यह कुमाऊं की चुनिंदा अद्भुत एवं उत्तम स्थापत्यकला का उदाहरण भी है। साथ ही जल विज्ञान एवं संरक्षण की मिसाल भी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सुंदरता की अनोखी मिसाल
स्थानीय ग्रीन ग्रेनाइट पत्थरों से बने प्राचीन नौले के चारों ओर संधी उपासना की कलाकृतियां उकेरी गई हैं। गर्भगृह व बाहरी भाग में मंदिर जैसी कलाकृतियां तथा भगवान विष्णु के दस अवतारों की आकृतियां इसे और विशिष्ट बनाती हैं। पुरातत्वविदों का मानना है कि प्राचीन समय में संभवत: नौले की परिक्रमा की परंपरा रही होगी। इसलिए स्यूनराकोट का प्राचीन नौला चारों तरफ से खुला है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
ये माना जाता है सबसे पुराना नौला
शोधकर्ता डॉ मोहनचंद तिवारी के अनुसार, बागेश्वर जिले के गडसर गांव में स्थित का बद्रीनाथ नौला ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे प्राचीन माना जाता है। बताया जाता कि कत्यूरी शाशकों ने इस नौले का निर्माण सातवीं शताब्दी में किया था। जलविज्ञान के सिद्धांतों पर इस नौले का निर्माण किया गया है। इसलिए यह आज भी जल से परिपूर्ण रहता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
काफी पुराना है नौलों का इतिहास
उत्तराखंड के अधिकतर नौलों का निर्माण कत्यूर और चंद राजाओं के शाशन काल में हुआ था। चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला सांस्कृतिक विरासत से संपन्न माना जाता है। इस नौले की स्थापना 1272 ईसवी में राजा थोरचंद ने की थी। राजा कुर्मचन्द ने सन 1442 में इस नौले का जीर्णोद्वार कराया था। चंपावत का एक हथिया नौला भी सांस्कृतिक महत्व का नौला है। इसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण एक हाथ वाले शिल्पी ने किया था। इसके अलावा रानीधारा का नौला, पंथ्यूरा नौला, तुलारमेश्वेर नौला, द्वाराहाट का जोशी नौला, जान्हवी नौला गंगोलीहाट और डीडीहाट का छनपाटी नौला व अल्मोड़ा का भंडारी नौला और पल्टन बाजार का सिद्ध नौला अपने आप में उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति को समेटे हुए है।
लेखक का परिचय
नाम-डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
ये लेखक के निजी विचार हैं। वर्तमान में वह दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। साथ ही देहरादून उत्तराखंड में निवासरत हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।