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September 24, 2024

फिर बंद हुई टरबाइन, राजधानी के बड़े क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति बंद, सो रहा राजा, पानी को तरस रही प्रजा

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गर्मी शुरू होते ही पानी को लेकर उत्तराखंड की राजधानी में देहरादून में हाहाकार मचने लगा है। जल विद्युत निगम की टरबाइन चलने पर आधारित पेयजल व्यवस्था ध्वस्त होती जा रही है।

गर्मी शुरू होते ही पानी को लेकर उत्तराखंड की राजधानी में देहरादून में हाहाकार मचने लगा है। जल विद्युत निगम की टरबाइन चलने पर आधारित पेयजल व्यवस्था ध्वस्त होती जा रही है। राजा सो रहा है। प्रजा पानी को तरस रही है। समाचार बनते हैं, लेकिन अधिकारियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती है। वैसे भी मीडिया के पास इन सब फालतू बातों के लिए वक्त नहीं है। उन्हें तो इसमें दिलचस्पी है कि किस नेता ने कहां पूजा की, किस नेता से कौन नेता मिला। जनता जाए … में। उसकी समस्या ना तो जनता पढ़ती है और न ही नेता। पानी मिले या ना मिले, जनता को तो एक दूसरे की टांग खिंचाई वाली खबरें ही पसंद हैं। ऐसे में अब कोई समस्या मुद्दा नहीं बनती हैं। वहीं पानी ने रंग दिखाने शुरू कर दिए। मई की शुरुआत में ही ये हाल हैं तो समझो जून तक पहुंचते पहुंचते क्या हाल होंगे। पानी को लेकर लाखों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। पानी की उपलब्धता का भी फिलहाल कोई संकट नहीं है। ग्रेविटी के स्रोत में पानी तो है, लेकिन विभागीय तालमेल के अभाव से जल संकट बना हुआ है। वहीं, शहनशाही और पुरकुल गांव में पानी की शुद्धता के लिए बनाए गए प्लांट में हर माह लाखों रुपये बहाए जा रहे हैं। फिर भी नतीजा ढाक के तीन पात निकल रहा है।
ये हैं जलापूर्ति के स्रोत
दून में वर्तमान में 279 ट्यूबवेल के साथ ही तीन नदी व झरने के स्रोत हैं, लेकिन ज्यादातर पेयजल आपूर्ति ट्यूबवेल से ही की जाती है। गर्मी बढ़ते ही भूजल स्तर गिर जाता है। ट्यूबवेल की क्षमता भी घटने लगती है। अन्य स्रोतों से भी पानी का प्रवाह घटना शुरू हो जाता है। जिस कारण पेयजल संकट गहराने लगता है। आमतौर पर दून में पेयजल की मांग 162.17 एमएलडी है, जबकि उपलब्धता 162 एमएलडी है। इस हिसाब से दूनवासियों को पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है, लेकिन गर्मी में उपलब्धता कम होने लगती है। कारण बिजली की अनियमित आपूर्ति और जल स्तर का गिरना बताया जाता है। लीकेज और वितरण व्यवस्था की खामियों के कारण वर्षों से यह समस्या बनी हुई है।
ग्लोगी पावर हाउस स्रोत की कहानी
देहरादून शहर के उत्तरी भाग के एक बड़े हिस्से में ग्लोगी पावर हाउस से जलापूर्ति की जाती है। ये ग्रेविटी वाला स्रोत है। यानी कि यहां से पेयजल लेने के लिए बिजली के पंप की जरूरत नहीं पड़ती है। पानी अपने आप ही ढलान वाले क्षेत्र में पाइप लाइनों में बहता है और एक बड़े क्षेत्र में जलापूर्ति होती है। ग्लोगी पावर हाउस में जल विद्युत निगम की चार टरबाइनें हैं। इसे चलाने के लिए जो पानी नदी के स्रोत से लिया जाता है, वही आगे चलकर जल संस्थान की पाइप लाइनों में डाल दिया जाता है।
इन टरबाइन में मात्र दो ही नियमित चलती हैं। ऊर्जा निगम यदि किसी खराबी के चलते इन टरबाइन से बिजली पैदा करना बंद करता है तो वह स्रोत से पानी लेना भी बंद कर देता है। ऐसे में जल संस्थान को भी जलापूर्ति के लिए पानी नहीं मिलता है। बताया जा रहा है कि शनिवार की दोपहर बाद टरबाइन बंद कर दी गई। इससे आगे की जलापूर्ति ठप हो गई है। रविवार की सुबह भी इस स्रोत से जलापूर्ति नहीं होने से एक बड़े क्षेत्र में पानी की आपूर्ति ठप हो गई है।
ये किए गए थे उपाय
जल विद्युत निगम से पानी की निर्भरता को समाप्त करने के लिए जल संस्थान ने पिछले साल एक योजना बनाई थी। बताया जा रहा है कि करीब 45 लाख रुपये की ये योजना है। इसके तहत एक वाटर टैंक स्रोत पर बनाया गया है। स्रोत के पानी को इस टैंक से जोड़ने के लिए चैनल का निर्माण और पाइप लाइन आदि बिछाने का काम भी होना है। एक साल पहले टैंक तो बना दिया गया, लेकिन अन्य काम एक ईंच भी नहीं हुए। ऐसे में इस टैंक का उपयोग नहीं हो पा रहा है और पानी जल विद्युत निगम की टरबाइन चलने पर ही मिल रहा है।
ये आ रही है समस्या
अब टरबाइन बंद होने पर जल संस्थान कई बार सीधे स्रोत से ही पेयजल आपूर्ति करता है। ऐसे में नदी की बजरी और रेत भी पाइप लाइनों में चली जाती है। इससे लाइनें चोक हो जाती हैं। चैनल के माध्यम से यदि टैंक में पानी पहुंचाया जाता तो शायद समस्या का समाधान हो सकता था। इसके बावजूद एक साल तक इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
ये हो सकता है समाधान
यदि इच्छाशक्ति हो तो पेयजल समस्या को दूर किया जा सकता है। इसके लिए विभागीय सामंजस्य चाहिए। टरबाइन को चलाने के लिए जिस चैनल के जरिये स्रोत से पानी लिया जाता है, उसमें ही कुछ काम करने की जरूरत है। यानी चेनल जब टरबाइन के निकट पहुंचती है तो उस पर दो गेट बन सकते हैं। एक गेट टरबाइन चलाने के लिए खोला जाए। वहीं, दूसरा गेट टरबाइन न चलाने की स्थिति में खोला जा सकता है। ऐसे में भले ही जल विद्युत निगम टरबाइन नहीं चलाए तो पानी आगे निर्बाध रूप से बढ़ जाएगा। फिलहाल अभी जो व्यवस्था है, उसके तहत टरबाइन बंद करने के लिए स्रोत से ही पानी की आपूर्ति बंद की जा रही है। इससे एक बड़े क्षेत्र में पानी के लिए हाहाकार मच रहा है।
इन इलाकों में मचा हाहाकार
दो दिन से टरबाइन बंद होने से कई इलाकों में जलापूर्ति बाधित पड़ी है। देहरादून में पुरकुल गांव, भगवंतपुर, गुनियाल गांव, चंद्रोटी, जौहड़ी गांव, मालसी, सिनौला, कुठालवाली, अनारवाला, गुच्चूपानी, नया गांव, विजयपुर हाथी बड़कला, किशनपुर, जाखन, कैनाल रोड, बारीघाट, साकेत कालोनी, आर्यनगर, सौंदावाला, चिड़ौवाली, कंडोली सहित कई इलाकों में शनिवार की शाम से पेयजल आपूर्ति ठप पड़ी है।
शुद्धता के लिए हर माह खर्च किए जा रहे हैं लाखों रुपये
उत्तराखंड की राजधानी में देहरादून में पानी की गुणवत्ता को लेकर हर माह पानी की तरह पैसा तो बहाया जा रहा है, लेकिन इस पानी में यदि आप कभी दाल तक नहीं गला सकते हो। यानी की पानी की हार्डनेस इतनी ज्यादा है कि पानी साफ करने के उपकरण एन आरओ भी एक दो साल बाद जवाब देने लगते हैं। यही नहीं, इस पानी में चाय बनाओ तो वो फट जाएगी। दाल गलाओ तो घंटों तक नहीं लगती। ऐसे में बगैर आरओ के चाय बनाना और दाल गलाना भी मुश्किल है। अब बात करते हैं पानी के शुद्धिकरण की। जल संस्थान के उत्तरी जोन में दो फिल्टरेशन प्लांट शहनशाही आश्रम और पुरकुल गांव में स्थित हैं। इन दोनों प्लांट में पानी की गुणवत्ता पर हर माह 23 लाख से ज्यादा की राशि पानी की तरह बहाई जा रही है। नतीजा वही ढाक के तीन पात है।
नहीं है पानी की गुणवत्ता पर भरोसा
सवाल ये है कि पानी की गुणवत्ता पर न तो सरकार को ही विश्वास है और न ही किसी सरकारी मशीनरी पर। इसे एक आसान से उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि उत्तराखंड में जल संस्थान शुद्ध पानी की आपूर्ति कर रहा है तो फिर सीएम आवास, राजभवन, मुख्य सचिव आवास, सचिवालय, विधानसभा सहित सारे मंत्रियों और वीआइपी के घरों में वाटर प्यूरीफाई का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है। अब इस उदाहरण से ही साफ है कि किसी को भी शुद्ध पानी पर भरोसा नहीं है। यानी सरकार आमजन को साफ पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रही है।
इस तरह बहाया जा रहा है पैसा
सूत्रों के मुताबिक पानी की गुणवत्ता के लिए दोनों फिल्टरेशन प्लांट की जिम्मेदारी निजी ठेकेदारों के हाथ सौंपी गई है। पुरकुल गांव में करीब 15 लाख और शहनशाही आश्रम में करीब साढ़े आठ लाख रुपये हर माह पानी के शुद्धिकरण के लिए खर्च किए जा रहे हैं। इसमें क्लोरीनीकरण से लेकर मजदूरों का वेतन ठेकेदारों के जिम्मे है। इसके बावजूद पानी की कठोरता पर जल संस्थान ने आज तक कोई काम नहीं किया है। पानी इतना हार्ड है कि यदि इसे आरओ (वाटर प्यूरीफाई) के बगैर ही सीधे इस्तेमाल में लाया गया तो चाय तक नहीं बन पाती। यही नहीं, घंटों तक कूकर में चढ़ाने के बाद भी दाल नहीं गलती है। हल्की बारिश हो तो मिट्टीयुक्त पानी की आपूर्ति होने लगती है। सूत्र तो ये बताते हैं कि पानी की शुद्धिकरण के नाम पर हर प्लांट में पांच से सात लेबर लगी है। वहीं, मात्र कुछ बोरी क्लोरीन और फिटकरी पर ही हर माह एक प्लांट में 15 लाख और दूसरे प्लांट में साढ़े आठ लाख रुपये का खर्च दिखाया जा रहा है।
क्लोरीन का इस्तेमाल
समय समय पर सामाजिक संस्था स्पेक्स की ओर से समय समय पर लिए गए पानी के नमूनों में देहरादून में शुद्ध पानी पर सवाल उठे हैं। कहीं, क्लोरीन ज्यादा है तो कहीं कम है। स्पेक्स के सचिव डॉ. बृजमोहन शर्मा का कहना है कि क्लोरीन पानी में तब मिलाई जाती है जब पानी में फिकल कॉलीफार्म होता है। ज्यादा क्लोरीन से कैंसर तक का खतरा होता है। इसी तरह फिटकरी भी पानी में सोलिड्स को कम करने के लिए मिलाई जाती है। ये टीडीएस को सेटल करती है। यदि इसका अनुपात भी सही नहीं होगा तो ये मानव के शरीर के लिए घातक है।
क्यों नहीं लगाते हार्डनेस कम करने के संयत्र
आजकल तो हर तरह के उपकरण बाजार में उपलब्ध हैं। ऐसे में पानी की हार्डनेस को कम करने के लिए उपकरणों का इस्तेमाल तक नहीं किया जाता है। वैसे देहरादून के पानी में एक प्राकृतिक गुण ये भी है कि यदि उसे दस से 12 घंटे तक स्थिर रख दिया जाए तो उसकी हार्डनेस 60 से 70 फीसद तक कम हो जाती है। इसीलिए पहले वाटर फिल्टर प्लांट में पानी स्टोर किया जाता था। उसे बाद में सप्लाई के लिए छोड़ा जाता था। अब स्टोरेज की क्षमता कम है। ऐसे में पानी को सीधे ही सप्लाई कर दिया जाता है। इससे पानी में हार्डनेस के कारण न तो दाल गलती है और न ही चाय ही बन सकती है।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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