टकनौर क्षेत्र की कृषि पर संकट की छाया, किसानों को उपज का नहीं मिल रहा उचित मूल्य

उत्तरकाशी जनपद के भटवाड़ी प्रखंड का टकनौर क्षेत्र अपनी समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक और कृषि पहचान के लिए हमेशा से जाना जाता रहा है। यहाँ की धरती को “पहाड़ की उपजाऊ घाटी” कहा जाए तो गलत नहीं होगा। उपला क्षेत्र के सेब हों या पूरी घाटी का आलू और राजमा। यह क्षेत्र हमेशा से नगदी फसलों का बड़ा उत्पादक और आपूर्ति केंद्र रहा है। विशेष रूप से टकनौर की राजमा ने तो देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
बीते कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की आर्थिकी धीरे-धीरे संकट की ओर बढ़ रही है। किसानों को उनकी मेहनत का समुचित मूल्य नहीं मिल पा रहा। सरकार की ओर से बैठकों और घोषणाओं में कृषि सुधार की बातें अवश्य होती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर किसानों को कोई ठोस राहत नहीं मिल पा रही है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
वर्तमान सीजन में अत्यधिक वर्षा के बावजूद इस क्षेत्र में आलू की बम्पर पैदावार हुई। इसके बावजूद बाजार में उचित भाव के अभाव में किसानों के चेहरों पर निराशा है। बीस वर्ष पूर्व का मूल्य आज भी जस का तस बना हुआ है, जबकि लागत कई गुना बढ़ चुकी है। कई किसान अपनी उपज को बेचने से भी हिचक रहे हैं। कारण ये है कि बाजार भाव खेती पर हुए खर्च से भी कम है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
राजनीतिक रूप से सक्रिय यह इलाका हमेशा से जनचेतना का प्रतीक रहा है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि किसानों की इस गंभीर समस्या पर स्थानीय नेतृत्व ने अब तक कोई ठोस पहल नहीं की। उपला टकनौर के सेब उत्पादकों ने जब न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की मांग पुरजोर तरीके से उठाई थी, तब सरकार ने उनकी मांगें स्वीकार भी की थीं। उसी तर्ज पर पूरी घाटी की नगदी फसलों में विशेषकर आलू के लिए MSP तय करने की आवाज़ अब तक नहीं उठ पाई। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
आज स्थिति यह है कि एक समय आत्मनिर्भर माने जाने वाले इस क्षेत्र के किसान धीरे-धीरे खेती से विमुख हो रहे हैं। खेती की घटती लाभप्रदता ने पलायन की रफ्तार को और तेज़ कर दिया है। गाँवों से युवाओं का तेजी से शहरों की ओर रुख करना इस बात का संकेत है कि पहाड़ की आर्थिकी का आधार हिल रहा है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्रिय यहाँ के युवा व स्थानीय नेता आज भी अपने पद और प्रभाव को लेकर अधिक चिंतित दिखते हैं, जबकि खेती बचाने के लिए एकजुट प्रयासों की दरकार है। बीते पंचायत चुनावों में क्षेत्र की समृद्धि के जो दावे किए गए थे, वे चुनाव बीतते ही विकास की जमीनी हकीकत में गुम हो गए, और कंकरीट की ठेकेदारी की जुगत मे शहर मे जुट गये। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
समय रहते यदि यहाँ के युवाओं और किसानों ने अपनी कृषि पहचान को बचाने की मुहिम नहीं छेड़ी, तो आने वाले वर्षों में यह क्षेत्र आर्थिक असमानता और पलायन के दलदल में और गहराई तक चला जाएगा। सरकार को चाहिए कि इस क्षेत्र की प्रमुख नगदी फसलों में राजमा, आलू और सेब के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तय करे, साथ ही यहाँ पर कोल्ड स्टोरेज और वैल्यू-एडिशन केंद्रों की स्थापना करे। ऐसा होने पर किसान अपनी उपज को लंबे समय तक सुरक्षित रख सकेंगे और बिचौलियों पर निर्भर नहीं रहेंगे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
टकनौर की मिट्टी सोना उगलने की पूरी क्षमता रखती है। आवश्यकता है तो केवल उस सोने को सँभालने और किसानों के पसीने का उचित मूल्य मिलने की। यदि समय रहते यह कदम नहीं उठाये गये, तो यह समृद्ध घाटी भी आर्थिक असमानता और पलायन के दलदल में डूब जाएगी।

उत्तरकाशी निवासी प्रताप प्रकाश पंवार समाजिक कार्यकर्ता हैं। साथ ही वह विभिन्न मीडिया से भी जुड़े हैं।
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Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।